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गिरिजा संग होली खेलत बाघम्‍बरधारी 

 

श्मशान जीवन के अंतिम पड़ाव की विश्रामस्थली है, जहाँ मृत्यु के पश्चात शरीर स्थायी रूप से पंचतत्व में विलीन हो जाता है। रंगों की वीतरागता इस श्मशान भूमि में किसी को भी आह्लादित नहीं करती, तभी मृतक देह को विदाई करते समय हर व्यक्ति जीवन की असारता समझते हुए, अध्यात्मवाद में सराबोर हो मृतक की देह को दहकती अग्नि में भस्मीभूत होने तक मशग़ूल होता है। भस्मीभूत शव को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित कर उसकी परिक्रमा के पश्चात घर लौटने के बाद यही मनुष्य बुद्धत्व की तमाम देशनाओं को विस्मृत कर सांसारिक हायतौबा में ख़ुद को झोंक देता है फिर जीवन के रंगों का पूर्णाभास उसे क़तई नहीं हो पाता है। 

लोक-संगीत-केवल मन बहलाव का ही साधन नहीं है, अपितु हमारी गौरव-पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा का इतिहास है। यह हमारे थके-हारे, चिता-ज्वर से जर्जर तन-मन को पुनः उत्साहित करनेवाला अमृत है, आपके मन की मलिनता को धोकर जन-मानस को निर्मल बनाने वाला अद्भुत् जादूगर है! . . . संगीत क्या नहीं है? संगीत नादब्रह्म है! . . . और इसे केवल कुछ गवइयों/गायकों ने जन-समाज में वितरित करने का काम हमारे लिए किया है जिसे फाग कहा गया है। . . . जी हाँ, वही फाग जिनमें विश्व के अमर कवियों—सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदि की रचनाएँ सम्मिलित हैं। वही फाग जो राम-चरित्, कृष्ण-चरित्र के साथ औढर आडम्बरधारी कालों के काल महाकाल शिव को भी रंगों से रँगने से नहीं छोड़ा और माता गिरिजा की भी गौरवशाली फागें जन-जन तक पहुँचाई जाती हैं जिनमें शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्‌भुत और शांत-साहित्य के इन रसों का समावेश है। 

विश्वविख्यात ब्रजभूमि की चुहलबाज़ी होली की निराली छटा जीवन में रोमांच व आनंद को जन्म देती है जबकि श्मशान की कल्पना देहावसान से ही महसूस की जाती है। श्रीश्री 108 रामकृष्‍ण दास त्‍यागी मंदाकिनी संगम चित्रकूट धाम ने वर्ष 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्‍तक भजन तरंगिणी में भस्‍मधारी शिवशंकर और माँ गौरा की होली का उल्‍लेख कवित्त में कर मुझे लिखने की प्रेरणा दी है। देखें गिरिजा और भोले के लिए गाने जाने वाला फाग:

“आजु गिरिजापति खेलें होरी॥
 
भस्म अंग सिर गंग बिराजै, जटा-मुकुट लट फेरी। 
बायें अंग जग जननी भवानी, नचे जोगिनी घेरी॥
 
बाघंवर पीतांबर ओढ़े, शेषनाग लपटोरी। 
चंद्रभाल सोहै कपालपर, देखी चकित भई गोरी॥
 
गिरजै सैन दियो सखियन को, लै गुलाल रंग दौरीं। 
देखी सरूप शीश भयो नीचे, महादेव कहूँ होरी॥
 
कानन वाके कुंडल सोहै, हाथ त्रिशूल लियोरी। 
शृंगीनाद बजाय रिझावत, गंगादास कर जोरी॥”

अजीब संयोग की बात है कि देह त्यागने के पश्चात अर्थी को जहाँ गुलाल-अबीर डालकर सजाया जाता है, वहाँ रंगों के आभास के साथ ही मृतक के सगे-संबंधियों को मृतक से सदा के लिए बिछोह पर अपूर्णीय कष्टभाव को सहना, नियति का बदरंग स्वरूप माना गया है। मृत्यु के आगमन पर मृतक देह के साथ रंगों से लगाव किसी को गले नहीं उतरेगा किन्तु यह यथार्थ सत्य है कि जन्म से मृत्यु तक के सफ़र में सप्तरंगी रंगों की छटा बिखरी हुई है। ऐसे ही यदि महाकाल के प्रतिनिधि महादेव शिव श्मशान भूमि पर मुर्दे की भस्म लपेटे, काले सर्पों की माला पहने, बिच्छुओं का जनेऊ धारण कर विचित्र स्वरूप लिए भय की उत्पत्ति के साथ, तांडवकर्ता अपनी प्रकृति के विपरीत, होली के रंगों की उमंग में जीवन के सारतत्व का संदेश दें तो यह अद्वितीय ही माना जाएगा:

“होरी खेलें शिव सहित बाल॥
 
बाजैं मृदंग गप्ति सुर मृचंग, डमरू डफ ढोलक औं कृणाल। 
लम्बूरा शंख सितार मँजीरा, वेणु लिए करमें कृपाल। 
तब हर-हर हर्ष सुमनसों बरसैं, ऐसी लीला किह्यौ नाथ। 
तब देखी छकित में चंद्रमाल॥
 
झोरिन अँबीर पिचकारी साथ, रंग केसर औ कुम कुम गुलाब। 
जहँ उठे धूम धुधकार होत्त, नभ में बादर जरद लाल। 
बरसत हैं मेध कुहकें मराल। 
 
देवन समाज सब भीजि रहीं महानी चीर नरसिंह खाल॥
अरझें सखियाँ माँगें फगुवा, प्रभु दै दीजै कछ प्रणतपाल। 
जे जौन चहे ते तौन लिये, हीरा मोती पुखराज लाल। 
 
सुर नर सब गावैं पार न पावैं, सारद लिखिगें सर्व काल। 
ब्रह्मा उनहीकी शरण गए, तब छूटि गए भ्रम मोह जाल॥
गावैं पँवार जस लेखराज, बिध बिसुन सकल दिग दृगन पाल। 
झूमत हैं झूमि दूरत हैं ताल, बेहाल भए नर-नारि परस्पर। 
खेलि रहे, शिव रीझ नेक बजाय गाल॥”

अभी तक पाठकों ने बृजवासी ग्वाल बाल, प्रेम में पगे श्रीराधा-कृष्ण व गोपियों के बीच होली और रंगों से सराबोर जीवनशैली का आनंद उठाया है, किन्तु यह पहली बार है, जब जगत-जननी माँ पार्वती और मृत्यु के कारक शिवजी के जीवन में रंगों होली व रंगों से परिचित हो रहे हैं। एक ओर मानव हृदयाकाश विषैली विकारमयी बदलियों से ढँका राग-द्वेष से अपनी स्वच्छंदता की शाश्वत तस्वीर भूलकर अपने व्यक्तित्व की बहुआयामी दिशाओं में ख़ुद को बंद कर बैठा है वहीं दूसरी ओर मन की धरती पर प्रतिशोध की नागफनियों से पट गया है। इसलिए रंगों के स्वरूपों की मौलिकता उसके जीवन में स्वर्णमृग की तृष्णा बनकर रह गई है। यहाँ शिवशंकर के स्‍वरूप का वर्णन किया गया है:
 
“चिता भस्‍म सारे
देह लेप बेलपत्र प्‍यारे। 
डमरू उचारे
सतनन्‍दी असवारे है॥”

रंगों की मादकता मृत्युंजय के लिए यहाँ धतूरे की तरंग से कई गुनी ज़्यादा है। इसमें डूबे नंदीश्वर उमा की मोहिनी सूरत देखते हैं, जो उन्हें और भी मदहोश कर देती है:

“जटा पैं गंग भस्म
लागी है अंग संग
गिरिजा के रंग में
मतंग की तरंग है।”

विचित्रताओं की गढ़ बनी हिमालय भूमि भोले को देख पुलकित होती है। विभिन्न ध्वनियों में नगाड़े, ढोल व मृदंग आदि कर्णभेदी ध्वनियों के बीच नंगेश्वर के गण फागुन की मस्ती में ये तक भूल जाते हैं कि उनके तन पर वस्त्र हैं या नहीं:

“बाजे मृदंग चंग
ढंग सबै है उमंग
रंग ओ धड़ंग गण
बाढ़त उछंग है।”

एकबारगी हिमाचलवासी भोलेशंकर की बारात देखकर अवाक् से रह उमा की क़िस्मत के लिए विधाता को कोसते हुए अपने-अपने घरों के दरवाज़े बंद कर देते हैं। आज भोलेशंकर उस दूल्हा रूप से भी डरावने दिख रहे हैं, जो होली में मतबोर होकर झूम रहे हैं और उनके साथ उनके शरीर में लिपटते सर्प-बिच्छू फुफकारते हुए मस्त हो रहे हैं:

“बाघम्बर धारे
कारे नाग फुफकारे सारे
मुण्डमाल वारे
शंभु औघड़ हुए मतवारे हैं। 
 
जटा को सम्‍हारे
शीषगंग के फुहारे चले। 
अर्धचन्‍द्र न्‍यारे भाल
भूषण उजियारे है॥

होली के अवसर पर भला ऐसा कौन होगा, जो अपने प्रिय पर रंग डालने का मोह त्याग सके। सभी अपने-अपने हमजोली पर रंग डालने की कल्पना सँजोए होली की प्रतीक्षा करते हैं। जब स्वयं जगत संहारक शिव उमा को रँगने से नहीं चूके तो साधारण मनुष्य अपनी पिपासा कैसे छोड़ सकता है:

“गिरिजा संग होरी खेलत बाघम्बरधारी
अतर गुलाल छिरकत गिरिजा पंहि
अरू भीज रही सब सारी। 
 
रोरी रे झोरी सो फैकत
अरू अब रख चमकत न्यारी
गिरिजा तन शिव गंग गिराई
हंसत लखत गौरा मतवारी।”

कैलाशवासी गौरा के तन को रँग दे तब क्या वे भोले बाबा को छोड़ देंगी? वे भी हाथ में पिचकारी लेकर अपनी कसर निकाले बिना नहीं रहेंगी। जिसे देख भले ही हँसी से ताली बजाती सखियाँ दूर बैठी लोट-पोट हो जाएँ, फिर वे ख़ुशी से गीत गा उठें तो मज़ा और भी बढ़ जाए:

“औघड़ बाबा को रँगे शैल-सुता री
अरू रंग लिए पिचकारी
फागुन मास बसंत सुहावन
सखियाँ गावत दे-दे तारी।”

उमा की पिचकारी से भोले बाबा का बाघम्बर भीग जाता है और शरीर में रंगी विभूति बहकर रंग केसर ही रह जाता है, तब रंग अपने भाग्य पर मन ही मन हर्षित हो उठता है। इस भाव दशा को कवि इस तरह व्यक्त करता है:

“उड़ी विभूति शंभू केसर
रंग मन में होत उलास
भीग गयो बाघम्बर सबरो
अब रख जहाँ प्रकाश।”

होली शाश्वत काल से बुराइयों को दग्ध कर अच्छाइयों को ग्रहण करने का संदेश देती आ रही है जिससे कि वर्षभर एकत्र विकारों को धोया जा सके और उनका स्थान प्रेम, भाईचारा और सद्भाव की मधुरिमा ले सके। यह हार ग़मों को भुलाकर हँसी-ख़ुशी मस्ती में खो जाने की है जिसकी सुगंध साहित्यकारों-धर्मज्ञों ने पुराणों में अभिव्यक्त कर चिरस्थायी बना दी है। जिससे होली मनाने का उत्साह दिनोदिन ज़बरदस्त होता दिखाई देता है। प्रथम कितना सुहाना होगा वह दृश्य, जब डमरूधारी बाबा जगजननी के पीछे दीवानों की तरह भागे थे। वे आँखें धन्य हैं जिन्होंने मोह-माया से परे इस लीला को देखा होगा। जब अपनी भिक्षा की झोली में रंग-गुलाल व रोरी भरकर नाचते भोले बाबा को उमा के ऊपर छिड़कने का दृश्य अनुपम रहा होगा, जिन्‍होंने देखा होगा वे आँखें धन्‍य हो गयी होंगी। इसी तरह कई रस भरे गीत लावनियाँ अपने मधुर एवं मादक स्वरों से ब्रज ही नहीं, बल्कि लोक घटनाओं में समाए चरित्रों राधा-कृष्ण के मिले-जुले प्रेम-रंगों से भरे होली पर्व को इस सृष्टि पर जीवंत जीने वाले पात्रों सहित भारत देश की माटी में बिखरी भीनी फुहारों से उपजने वाली ख़ुश्बू को ढोलक, झाँझ व मंजीरों की थाप से फागुन के आगमन पर याद करते हैं। यही क्रम जीवन को आनंदित करता हुआ सदियों तक जारी रहेगा और स्वर लहरियाँ देर रात गए तक गाँव की चौपालों में गूँजती रहेंगी। 

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