अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पत्रकार फूहड़मल की कुछ न करने की मैराथन दौड़

 

एक युग था जब यहाँ उच्च आदर्श वाले पत्रकारों की ऊँचाइयाँ छूना मुश्किल था पर आज के पत्रकार इतने नीचे गिर गए कि वहाँ तक जाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। इन गिरे हुओं से जनता त्रस्त है, पर गिरकर पड़े हुए इन पत्रकारों का ही ज़माना है, जिनपर किसी लताड़ का असर नहीं होता और ये कब किसका कान काट ले जाएँ, इस भय से यहाँ के निवासी मजबूरीवश इन कनकौओं के प्रति उसी प्रकार समर्पित हैं, जिस प्रकार लालबुझक्कड़ के रहते उसके ग्रामवासी थे। यह मजबूरी इस नगर की नहीं बल्कि पूरे देश की है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति डीवाय चन्द्र चूर्ण ने सोशलमीडिया एवं कॉल्जियम विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा कि झूठ इस क़द्र पैर पसार चुका है कि सच के अस्तित्व पर संकट आ गया, एक झूठी बात को बीज की तरह ज़मीन में बोकर सच की फसल काटी जा रही है। झूठी ख़बर के दौर में सच पीड़ित हो गया है जहाँ लोगों के पास सब्र और सहिष्णुता की कमी आ गयी है। सोशल मीडिया पर जो कुछ बीज के रूप में कहा जाता है वह सिद्धान्तण में अंकुरित होता है जिसका तर्कसंगत विज्ञान की कसौटी पर परीक्षण नहीं किया जाता है। सोशल मीडिया निजता को लेकर बड़ा प्लेटफार्म है, इस प्रकार सच के अस्तित्व पर आया संकट चिंता का विषय है। सर्वोच्च न्यायाधिपति की चिंता पूरे देश की चिंता है, सोशल मीडिया का यह झूठ सुरसा के मुख की तरह फैलता जा रहा है जिसे कॉपी पेस्ट के साथ ख़बरों चैनलों पर देखा जा सकता है।

यह संक्रमणकालीन बीमारी आपके या मेरे शहर में कोरोना की तरह आतंक मचाए हुए है जिसका चिंतन कोई नहीं करना चाहता है। फूहड़मल मालपानी प्राथमिक कक्षा पढ़ा है, कोई मिडिल कक्षा बोलता है, कोई हायर शिक्षा; पर लिखने में वह फिसड्डी है पूरी उम्र दूसरों से लिखवाकर अपने नाम से छपवाता है, इसलिए उनकी शिक्षा के लेकर कहा नहीं जा सकता है। हाँ बातूनी इतने कि अपनी बातूनी कला से किसी भी प्रदेश, राष्ट्र के प्रमुख से बातें करने में झिझक नहीं, अपने मतलब और काम निकालना उन्हें आता है। कहा जाता है कि उन्होंने जब हिन्दी वर्णमाला के क ख ग घ न तक के शब्द पढ़े और तब वर्णमाला के इन अक्षरों को अपने फ़ितूर दिमाग़ से नई परिभाषा बनाकर अपने शिक्षक और घरवालों को पढ़ाना शुरू कर दिया। उसकी पढ़ाई उसे पेटभर रोटी नहीं दे सकती थी पर उसकी चितवन मधुवन सा आभास कराती मानो अंजता को साकार कर दे। ज़िन्दगी की शुरूआत में उसने चितवन को चित्र रूप देना शुरू कर वर्णमाला के शब्दों की अपनी निजी परिभाषा बना ली जिसका उसके द्वारा निकाला गया अर्थ का तोड़ मास्टर के पास भी नहीं था। वर्णमाला के क शब्द से कमाओ ख से खाओ, ग से गहने बनवाओ, घ से घर बनवाओ, ल से ललचाओ, प से पार्टी लो, फ से फँसाओ और न से नाम कमाओ? नाम कमाने के लिए अगर बदनाम भी हुए तो बदनामी से भी नाम रोशन होगा। नाम न कमा लिया पर चितवन से नैनों की मौज ज़्यादा दिन नहीं टिक सकी, और एक नैन रूढ़ गया। 

फूहड़मल मालपानी की पहुँच संपादक तक थी, झट से पत्रकार बन गए और कुछ दिन बाद उनका एक नैन फूट गया आई मीन रूढ़ गया, हम काना होना तो नहीं कह सकते पर एक नैन बचा। बचे नैन को छिपाकर रूढ़े दूसरे नैन से विकलांग पीड़ित का लाभ सरकार से माँगा, किन्तु सरकार ने नहीं दिया तब गले में फाँसी महसूस हुई तो झट झाँसी से फ़र्ज़ी विकलांग बन सरकारी सुविधाभोगी हो गए। विकलांगता के भी नियम क़ानून क़ायदे थे, यात्रा में विकलांगता का लाभ उठाते समय उनकी फ़र्ज़ीवाड़ा क़ानून के शिकंजे में फँस गया, इससे उनकी ख़ूब बदनामी हुई अख़बारों में सच्ची ख़बरें छपीं, जिसे इन्होंने झूठी बताया, जो भी हो पर इस धुआँधार बदनामी से इनका नाम पूरे सूबे में रोशन हुआ। यही बदनामी आख़िरकार नैनसुख फूहड़मल मालपानी जी के लिए वरदान साबित हुई और वे अधिकारियों में आतंक का कारण बन गए। सबकी ज़ुबान पर उनकी भेदती-कुरेदती आँखें व स्थूलकाय बलखाती काया में धँसी रीढ़ की हड्डियों के चर्चे मूर्खों व अधिकारियों के समक्ष चटखारा लिए होते और वे इनकी काया किस माटी से बनी है, इसका पता लगाने के लिए चन्द्रयान पर गए विक्रम की तरह अपने सूत्रों को सफलतापूर्वक लैण्डिग तो कराते पर इनके सूत्रों का हश्र विक्रम व रोवर की तरह ही निराशाजनक होता। 

शिष्टता अनमोल धन है पर पत्रकार फूहड़मल धार्मिक क़िस्म के हैं वे वेद-पुराणों पर उतनी ही बात पर विश्वास कर ठहर जाते है जितनी उनकी काम की है। पुराणों के वचन कि यह संसार मिथ्या है, माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि के नाते झूठे है, लकीर पर चलने वाले फूहड़मल ने उसे आगे-पीछे के अर्थ और भाव को नहीं पकड़ा और तभी से झूठ के होकर रह गए। उन्होंने शिष्टाचार का अभिनय कर ईमानदारी से झूठ को सच साबित करने का कौशल प्राप्त कर लिया तथा इसी सिद्धान्त की बदौलत वे दिन व दिन में गोल-मटोल हो गए। उनके पास झूठ बोलने व सच को झूठ साबित करने का प्रचण्ड समर्थन है इसलिए सच इनके पास टिकता नहीं तथा झूठ इनकी ज़िन्दगी से जाता नहीं। इनका मानना है झूठ सनातन काल से चला आ रहा है और सारे संसार में बोला जाता है इसलिए झूठ दुनिया सर्वव्यापी, सर्वमान्य होने से अजर-अमर है। झूठ का इनका अपना शास्त्र है जिसमें पहले क्रम में आधा सच के साथ आधा झूठ बोलना, पूरा का पूरा झूठ बोलना जिसे ये सफ़ेद झूठ मानते हैं। ये देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार मनगढ़न्त झूठ, गप्प झूठ का तिलिस्म तथा बिना सिर-पैर की बातों वाले झूठ के पैर लगाकर मैराथन दौड़ करवाने में महारथ हासिल कर चुके हैं। 

जैसा नाम वैसा काम, पत्रकारों की भी नस्लें ग़ज़ब हैं जिसमें फूहड़मल मालपानी जैसे पत्रकार आपके यहाँ, आपके आसपास भी होंगे जो अपने दिल की धड़कन की कमानी अपने हाथ में लेना चाहते हैं, उनका ख़्बाव है कि वे दुनिया की घड़ी को स्वयं अपने दिल की घड़ी की कमानी से संचालित करें। उनका मानना है कि हाथों की कलाई में बँधी घड़ी के कलपुर्जे में जंग लग चुकी है जिससे दुनिया-भर के लोग निकम्मे हो गये हैं ऐसे में उनका दिल स्वयं एक आधुनिक चिप का साफ़्टवेयर कन्ट्रोल रूम बनकर सबके दिलों को चलाने का प्रोग्राम बना चुका है, बस इसकी इजाज़त वे चाहते हैं। इतने बड़े डील-डौल वाले शरीर में नाक छोटी पर चौड़ी है जिसे देखकर कोई भी अनायास हँस पड़ता है, पर जब ये हँसते है तो हँसी अपने आप आ जाती है। बड़े सयाने कह गये हैं कि आदमी को आदमी की बोली बोलना चाहिये जिसमें संगत बनी रहती है परन्तु जब कोई कुत्ते जैसे भौंके तो यह विसंगति कहलायेगी। असमंजस्यता, अनुपातहीनता और विसंगति का सम्बन्ध आदमी की चेतना से है, हँसी आ भी सकती है, नहीं भी आ सकती, आघात चेतना पर होता है। चेतना में आदमी आदमी की बोली बोलता है जो संगतपूर्ण है किन्तु अगर आदमी कुत्ते की बोली बोले तो इसे कोई संगतपूर्ण नहीं कहेगा? 

अपने को पूर्ण चैतन्य का दर्जा देने वाले पत्रकार फूहड़मल मालपानी के साथ दूध पीते बछड़े से लेकर साँड़ प्रकृति के झूठे एक से एक तुर्रमख़ां क़िस्म की फ़ौज खड़ी की है जो राजनीति के शिखर को अपने क़दमों में पड़ा बताते हुए अपनी आदतन भ्रष्टाचार को भी शिष्टाचार का स्वरूप प्रदान कर अपनी ढपली अपना राग अलापने में गुरूघंटाल हैं। महाझूठों के शहनशाह इन सज्जन के पास अपना कहने के लिए सिवाए अपनी तोंद के कुछ नहीं? छोटी-बड़ी तोंदों में सप्तरंगी से लेकर नौरंगी सोमरस की बोतलें को अपने उल्टे-सीधे काम निकालने के लिए अधिकारियों-शौकीनों की ख़िदमत में पेश कर अपना लक्ष्य पाना इनका धर्म है। सारे जग में ख़ुद की पत्रकारिता का डंका बजवा रहे फूहड़मल का पत्रकारिता के प्रति प्रेम या धर्म क्या है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि इनके यहाँ 20 वर्षों में तीन अलग-अलग सांसदों ने 15 लाख, 7 लाख एवं 11 लाख की घोषणा कर पत्रकार कालोनी व पत्रकार भवन हेतु दिए पर इनके सभी तुरर्मख़ां भामाशाहों ने सांसदों का पैसा वापस करवा दिया। इन्हें लगा कि भवन बन जायेगा तो जिसने स्वीकृत कराया उसका नाम होगा, अपना नहीं, बस अपने नाम से पैसा लेकर ही भवन बनेगा, दूसरों के भवन में क़दम नहीं रखेंगे? कलेक्टर ने एक सरकारी आवास भी दिया जिसे ये सँभाल नहीं पाए, बाद में विधायक से अभी एक छोटा भवन मिल गया जो इनके विशालकाय पेट में पच नहीं रहा है और ये अपने स्वभाव के तहत अफ़वाह फैलाकर तमाशा करने पर आमादा है ताकि इनकी मैराथन दौड़ में यह जीत हासिल कर दुनिया को बता सकें कि देखो हमने और हमारी फूहड़-चौकड़ी ने इस शहर में कुछ भी न करने की मैराथन दौड़ जीत ली है। भले ही अपने मन की वैमनस्यता जीत लें, पर यह जीत भी एक बड़ी हार होगी।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

चिन्तन

वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता

साहित्यिक आलेख

ऐतिहासिक

सामाजिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं