रामचरित मानस में स्वास्थ्य की अवधारणा
आलेख | सांस्कृतिक आलेख आत्माराम यादव ‘पीव’1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनादिकाल से हमारे ऋषि मुनियों ने ही स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों और रोगों के सम्बन्ध में पर्याप्त ध्यान दिया गया है और वेदों से लेकर पुराणों में इसका उल्लेख धर्म, दर्शन, पर्यावरण, आयुर्विज्ञान आदि के साथ समन्वय किए हुए मिलता है। अध्यात्म और योग मनुष्य के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर चलते हैं। यही कारण है कि पश्चिम के भोगवादी समाज में आधुनिकतम चिकित्सा-सुविधाओं के बावजूद भारत सरकार के प्रयासों से योग दिवस के रूप में की गइ अपील का अनुसरण कर योग करने की प्रतिस्पर्धाएँ आयोजित होने लगी हैं और इसके पृथक से प्रशिक्षक भी अपना अनुभव कर रोज़गार के रूप में लाभ प्राप्त कर रहे हैं। ‘रामचरित मानस’ में रामकथा के पौराणिक स्वरूप के साथ जिस जीवन दर्शन की व्याख्या मिलती है, वह आधुनिक व्यक्तिवाद और समाजवाद की तरह एकाकी नहीं है। उसमें व्यक्ति और समाज की एकरूपता के साथ-साथ मनुष्य की अंतर्बाह्य स्थितियों, उसके पर्यावरण, स्वास्थ्य, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था आदि सबका परिपूर्ण स्वरूप मिलता है। यह बात अवश्य है कि ‘रामचरित मानस’ चिकित्सा-पद्धतियों का विवेचन करने वाला ग्रंथ नहीं है परन्तु महाकवि तुलसीदास ने अपने इस मानस में मनुष्य के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य और इसके लिए वांछित पर्यावरण का महत्त्व अंकित किया गया है जिसका अनुसरण करने में एक पीढ़ी अभी से लग गयी है वहीं आज भी आर्ष गुरुकुल इसे जीवित रखे हुए है।
गोस्वामी तुलसीदास की राम-राज्य की धारणा में सभी मनुष्यों की नीरोगता और स्वास्थ्यता सबसे महत्त्वपूर्ण बात है:
दैहिक दैविक, भौतिक तापा,
राम-राज्य काहू निंहं ब्यापा।
राम राज्य में दैवी विपत्तियाँ (सूखा, बाढ़) ग़रीबी आदि के साथ-साथ दैहिक ताप अर्थात् शारीरिक रोग किसी को नहीं होते। इसका आशय यह है कि स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार इनकी रोकथाम की व्यवस्था पहले ही कर दी गयी है। यदि कोई रोग होता है तो उसका प्रभावकारी उपचार विद्यमान है। मनुष्य के सुखी जीवन की यह पहली शर्त है। इसके अनुरूप सामाजिक व्यवस्था होनी चाहिये। वर्तमान यंत्र प्रधान और भोगवादी सभ्यता ने जहाँ मनुष्य के मन में कुण्ठा, तनाव और संघर्ष को जन्म दिया है, वहाँ इसने एड्स जैसे लाइलाज रोग भी विकसित किये हैं। ‘रामचरित मानस’ में वर्णाश्रम धर्म के आधार पर संतुलित समाज व्यवस्था में सब सुखी, भय और कष्टों से मुक्त और निरोग एवं स्वस्थ रहते हैं:
वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पाबहीं सुखहि नहिं भोग सोक न रोग॥
‘रामचरित मानस’ सबके स्वस्थ एवं निरोग रहने के लिये नगर के लिए पर्यावरण, सफ़ाई आदि पर ध्यान दिया गया है। घरों और सार्वजनिक स्थलों पर वाटिकाएँ लगाकर प्रदूषण को रोकने का प्रबंध किया गया है:
सुमन वाटिका सबहिं लगाई।
विविध भाँति करि जतन बनाई॥
गुंजन मधुकर मुखर मनोहर।
मारूत त्रिविध सदा बह सुन्दर॥
इसी प्रकार शुद्ध पेय जल और रोगाणु पैदा करने वाले कीचड़ को समाप्त करके स्थानादि के लिए नदी, तालाब कुओं आदि की व्यवस्था की गयी है:
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गम्भीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥
मनुष्यों के स्वस्थ रहने के लिए उचित पर्यावरण के साथ-साथ रामचरित मानस में औषधि-विज्ञान की कुछ व्यावहारिक बातों का भी समावेश हुआ है। उस प्राथमिकता इस बात को दी गयी है के सात्विक एवं मर्यादित जीवन-चर्या द्वारा मन एवं शरीर से स्वस्थ रहकर आत्मोपलब्धि द्वारा वास्तविक सुख प्राप्त हो। यह एक संतुलित चर्या है, क्योंकि इसके बिगड़ने और भोग लिप्सा से ही अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। पीने के लिए जहाँ पनघट थे, जहाँ सभी के पीने योग्य पानी था वहाँ पर नर-नारी का स्नान वर्जित था, ताकि पीने का पानी शुद्ध बना रहे। इन सबके बावजूद यदि कोई विकार होने से रोग उत्पन्न होता है तो वैद्य को उसका सही निदान बिना किसी स्वार्थ एवं भय के करना चाहिये। गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार चिकित्सा के व्यावसायीकरण और राजनीतिक दबाव से राजधर्म के साथ-साथ स्वयं वैद्य का भी नाश हो जाता है।
सचिव वैद्य गुरु तीनि जौ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
इसी प्रकार दवा कोई अच्छी बुरी नहीं होती। रोग के लक्षण के आधार पर बुरी मानी जाने वाली वस्तु भी दवा के रूप में अच्छी हो सकती है और अच्छी मानी जाने वाली वस्तु बुरी। यह स्थिति के अनुसार उसके प्रभाव पर निर्भर होता है। क़ीमती सस्ती दवा के विषय में भी यह बात सत्य है। कभी साधारण दवा जीवन रक्षक बन जाती है, तब उसी का महत्त्व होना चाहिये:
ग्रह, भेषज, जल, पवन, पट, पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।
‘रामचरित मानस’ में रोग के सटीक उपचार पर बल दिया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रोग की सही दवा के बजाय नशीली वस्तुएँ द्वारा तत्काल राहत देने की निंदा की है। निम्न दोहे में इस बात के अतिरिक्त शरीर-विज्ञान की जानकारी भी दृष्टव्य है:
ग्रह ग्रहीत पुनि वात बस तेहि पुनि बीछी मार।
ताहि पिअइय बारूनी भहहू काह उपचार॥
सब जानते हैं कि वात के रोगी को थोड़ी सी चाट से ही काफ़ी दर्द होता है। यदि उसे बिच्छू काट ले, तो फिर उसके दर्द की कल्पना ही रोमांचक होती है। ऐसी स्थिति में उसे दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए शराब पिलाना क्या बुद्धिसंगत है? इससे उसे दर्द से छुटकारा नहीं मिलेगा, बल्कि वह पागल या बेहोश हो जायेगा। यह बात सही उपचार के लिये चेतावनी का संकेत है।
‘रामचरित मानस’ में युद्ध में घायलों के इलाज का भी उल्लेख मिलता है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग मेघनाद द्वारा सांग-प्रहार किये जाने पर मरणासन्न लक्ष्मण का है। लक्ष्मण का इलाज लंका के वैद्य सुषेण करते हैं, जिन्हें हनुमान ले आते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वैद्य के लिये कोई मित्र या शत्रु नहीं होता। वह मानवीय संवेदना से परिपूर्ण होता है और हर बीमार को बचाना उसका कर्त्तव्य होता है। राजशक्ति भी इसमें दख़ल नहीं देती। यह युद्ध की नैतिकता है। अन्यथा रावण चाहत, तो सुखेन को लक्ष्मण का इलाज करने से रोक सकता था। युद्ध में विरोध सिद्धान्त या पक्ष से होना चाहिये, व्यक्ति से नहीं। रामचरित मानस का यह प्रसंग इसी आदर्श की स्थापना करता है। लक्ष्मण कहते हैं, जो वहाँ उपलब्ध हालत देखकर वैद्य सुखेन एक विशेष जड़ी बूटी लाने के लिये कहते हैं, जो वहाँ उपलब्ध नहीं है और जो इतनी प्रभावकारी है कि उससे लक्ष्मण बच सकते हैं। हनुमान यह दुष्कर कार्य करते हैं। जड़ी बूटी आने पर सुखेन लक्ष्मण का इलाज करते हैं।
तुरत वैद्य तब कीन्ह उपाई।
उठि बैठे लछिमन हरषाई॥
यह बात आयुर्विज्ञान की उन्नति और उसके उच्च ज्ञान की सूचक है। यह कोई आश्चर्य नहीं है। आज भी ऐसी अनेक जड़ी बूटियों का पता चलता है, जो प्रभावकारी हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा जिस आत्मीयता के साथ जगत के कल्याणार्थ रोगों के उपचार हेतु मानस में उल्लेख किया है वह प्रशंसनीय है जिससे आने वाली पीढ़ी को लाभ उठाना ही मानस को आत्मसात करना है।
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