मेरी अपनी कथा-कहानी
संस्मरण | आत्मकथा प्रभुदयाल श्रीवास्तव1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
विद्युत् मंडल में एक्सिक्यूटिव इंजीनियर के पद से सेवानिवृत होने 21 साल बाद आज बचपन की ओर लौटता हूँ तो संघर्षों का वह कठिन दौर आँखों के सामने साक्षात् उपस्थित होकर अपनी कहानी कहने लगता है और यह घोषणा भी करने लगता है कि इस दुनिया में कठिन कुछ नहीं होता। जहाँ चाह होती है वहाँ राह निकलती ही है भले देरी कितनी भी लगे।
मेरे परदादा लाला पीताम्बर लाल एक छोटी से रियासत धरमपुरा जो कि दमोह नगर से दो मील दूर बांदकपुर रोड पर स्थित है में मुख्त्यार थे। अब तो धरमपुरा दमोह शहर का एक महल्ला है। छोटी रियासतों के मंत्री ही शायद मुख्त्यार कहलाते थे। बड़ा रुत्बा था उनका। लगभग आधे एकड़ ज़मीन में मकान बना था जो ‘लालाओं की बाखर’ कहलाता था। राज दरबार में बहुत सम्मान था उनका। घर में पूजा पाठ होते रहते। साधु संन्यासियों की भीड़ लगी रहती। दान दक्षिणा भोजन प्रसादी का रोज़ दौर चलता। परिवार के लोगों के परवरिश की सारी जिम्मेवारी भी उन्होंने अपने सिर पर ओढ़ रखी थी। जब तक वे जीवित थे जब तक तो सब ठीक चला लेकिन उनकी आँखें मुँदते ही सारी व्यवस्थाएँ चरमरा गईं। शाही ख़र्च के कारण कोई भी पूँजी संचित थी ही नहीं और मेरे दादाजी लाला चोखेलाल जी भी ख़ास कुछ नहीं कर सके। पिताजी लाला रामसहाय जी ज़रूर रेल महकमे में काम करने लगे थे। घर से दूर मुंबई और पूना, झाँसी जैसी जगहों में वे कार्यरत रहे। लेकिन रेल कर्मचारियों की लम्बी हड़ताल और बर्ख़ास्तगी के चलते वे अपने घर लौट आये थे। अंग्रेज़ी प्रशासन ने बाद में सब कर्मचारियों की सेवाएँ बहाल कर दी थीं लेकिन घर के बुज़ुर्गों ने बाद उन्हें नौकरी में नहीं जाने दिया। लाला पीताम्बर लालजी की मृत्यु के बाद ही घर के आर्थिक हालत बिगड़ने लगे थे। इधर पिताजी भी एक लम्बी-सी बीमारी के चलते बेवक़्त ही काल के गाल में समा गए। यह परिवार के लिए बहुत बड़ा आघात था। अल्प आयु में जब उनकी मृत्यु हुई मेरे बड़े भाई साहब नौवीं कक्षा पास कर दसवीं में पहुँचे थे। बीमारी में पैसा लगभग सभी समाप्त हो चुका था। ऐसे में मेरी माँ भगवती देवी पर मेरे बड़े भाई एक बड़ी बहन और मेरे एक छोटे भाई के भरण पोषण का दायित्व आ पड़ा। सहारे के नाम पर मात्र थोड़ी-सी खेती थी जिसमें बामुश्किल दो क्विंटल अनाज ही साल भर में मिलता। परिवार के वे लोग जिनकी परदादा पीताम्बर लाल जी ने जी जान से परवरिश की थी मौक़ापरस्त हो, दूर हट गए। किसी भी तरह बड़े भाई साहब ने टियूशन पढ़ाते हुए और ख़ुद पढ़ते हुए मेट्रिक पास किया और शिक्षक हो गए। हाँ मेरे मामाजी ने ज़रूर उनकी आर्थिक सहायता की। मामाजी श्री अयोध्या प्रसाद खरे और उनके पुत्र श्री स्वामी प्रसाद खरे जी ने यथा योग्य सहायता हमारे परिवार को दी। मैंने पहली कक्षा धरमपुरा दमोह के पृथ्वीराज चौहान प्राइमरी स्कूल से पास की अब तो यह स्कूल हायर सेकेंडरी स्कूल हो गया है और नाम भी बदलकर सरदार पटेल स्कूल हो गया है।
मेरा यह सौभाग्य रहा कि भाई साहब की पोस्टिंग जिस रहली नामक क़स्बे में हुई वह वीर क्रांतिकारी सदाशिवराव मलकापुरकर जो कि अमर शहीद चंद्र शेखर के अभिन्न साथी थे का गृह ग्राम था। भाग्य से हम लोग उन्हीं के मकान में किराये से रहे। एक और विशेष बात रही कि जिस कमरे में हम रहे उस कमरे में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की माता श्री जगरानी देवी दो साल पहले रहकर झाँसी जा चुकी थीं। सदाशिवजी झाँसी में शिक्षक थे और गर्मियों और सर्दियों में छुट्टियों में रहली आते रहते थे। और हम लोगों को आज़ाद के बारे ढेर से क़िस्से कहानियाँ सुनाते थे। सदाशिव जी जिन्हें हम काका कहते थे तो अविवाहित थे लेकिन उनके बड़े भाई शंकरराव जी के बच्चे और हम भाई बहन उनको घेर के बैठ जाते और देर रात तक क्रांतिवीरों की कहानियाँ चलतीं। काका भी हम बच्चों के साथ बच्चे बन जाते और मज़े से, कैसे अँग्रेज़ों को चकमा देते थे कहाँ-कहाँ छुपते थे सब बातें बताते थे। बड़े भाई साहब भी स्कूल की लाइब्रेरी से कहानी, उपन्यास इत्यादि की किताबें ले आते थे। शायद क्रांतिकारियों के क़िस्से और लायब्रेरी की किताबों ने मुझे बचपन से ही साहित्य को पढ़ने-लिखने की और आकर्षित किया।
पहली कक्षा धरमपुरा में पढ़ने के बाद मैं दूसरी से पाँचवीं कक्षा और आधे साल तक रहली में पढ़ा। पहले प्रायमरी चौथी तक ही होती थी और पाँचवीं से आठवीं तक मिडल स्कूल कहलाता था। रहली में सुनार नामक नदी बहती है उसी नदी में मैंने तैरना सीखा। मैंने ‘नदी की वो गुट गुट’ संस्मरण इसी नदी में होने वाली घटना के आधार पर लिखा है। जो बाल साहित्य की ‘धरती’ नामक बाल पत्रिका में रावेन्द्र रवि ने प्रकाशित किया है। वेब दुनिया में भी यह छपा है। मैं पढ़ने में बहुत ठीक था और अक्सर कक्षा में प्रथम आता था। उस समय शिक्षा विभाग का नियम था की जो विद्यार्थी पाँचवीं की तिमाही परीक्षा में प्रथम आता था उसे पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक बारह रुपये प्रति माह छात्रवृति मिलती थी। मैं प्रथम आया और मुझे यह छात्रवृति प्राप्त हुई। और आठवीं कक्षा तक सतत मिलती रही। रहली में बिताये गए दिन शायद मेरे जीवन के सबसे सुनहरे दिन थे। दूसरी कक्षा से पाँचवीं तक की पूरी पढ़ाई वहीं हुई।
मेरे बड़े भाई साहब उसी स्कूल में पढ़ाते थे जिसमें मैं पढ़ता था। सारे शिक्षकों का वरद हस्त मेरे सिर पर होता था। भाई साहब की स्कूल में बड़ी धाक थी। सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम उन्हीं के संरक्षण में होते थे। मैं भी भाषण प्रतियोगिताओं कविता पाठों में भाग लेता था।
कभी-कभी तो अपने ही स्कूल के फटीचर होने के सबूत भी बच्चे देते थे जब नारे लगते, “एग्रीकल्चर हाई स्कूल टूटे बेंच फाटे स्टूल।”
एक वाक़या जो मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा वह बहुत ही मज़ेदार है। हर शनिवार को स्कूल में रामायण होती थी शाम को सात बजे मैं अपने मित्र रवि के साथ रामायण में शमिल होने गया था। रामायण शुरू होने में कुछ समय बाक़ी था सो हम सभी मित्र गण भूतों के बारे चर्चा करने लगे थे। भूत होते हैं अथवा नहीं होते हैं इसी बात ख़ूब बहस हुई। पाँचवीं में पढ़ने वाले मैंनेअपनी बुद्धि के अनुसार यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि भूत नहीं होते लेकिन कुछ मित्र ठोस सबूत दे रहे थे कि भूत होते हैं। रामायण समाप्त कर मैं अपने मित्र रवि के साथ रात साढ़े दस बजे घर लौट रहा था। रवि का घर पहले पड़ जाता था। उसके घर चले जाने पर मैं अकेला रह गया मेरा घर लगभग पाँच सौ फ़ुट आगे था। उन दिनों बस्ती में बिजली तो थी नहीं सो सड़क पर अंधकार पसरा पड़ा था। मैं जल्दी-जल्दी तारों की रोशनी में घर की तरफ़ क़दम बढ़ने लगा। भूतों की गर्मागर्म बहस मेरे दिमाग़ में बहुत दौड़ रही थी। तभी अचानक सामने आकाश में एक तारा टूटा और नीचे की और जाकर सामने लगे एक पेड़ के ठूँठ पर लोप होने लगा। उसी समय एक कुत्ता बड़ी ज़ोर से रोया। दिमाग़ के भूत ने मुझे इतना डरा दिया कि मैं चिल्लाकर वापस उसी तरफ़ भगा जहाँ से आया था। पेड़ के ठूँठ में मुझे भूत नज़र आया। फिर पीछे भागने पर ऐसा जैसे लगा भूत मेरे पीछे दौड़ रहा है। यह तो अच्छा हुआ कि मेरी एक बुआ के लड़के दिन्नू भैया जो खाना खाकर उसी सड़क पर टहल रहे थे ने मुझे पकड़ लिया। मैं तो बस भागने के मूड में ही था। उन्होंने मुझे ज़ोर से झकझोर दिया, “कहाँ जा रहे हो मुन्ना? क्यों चीख रहे हो?” मुझे कुछ होश आया, “भूत . . . शायद कुछ है उधर।” इतने में मेरी चीख सुनकर हमारे मकान मालिक वीर क्रन्तिकारी शंकरराव मलकापुरकर भी दौड़े आये और मुझे पकड़कर घर ले आये। मैंने उन्हें भी हाँफते हुए भूत होने की बात बताई तो वे हँसने लगे, “कहाँ होता है भूत? भूत वूत कुछ नहीं होता। भय का भूत तुम्हारे ऊपर चढ़ गया है।” फिर मुझे समझाने लगे, “पेड़ के ऊपर तारा टूटा और कुत्ता रोया और तुम्हारे मन में यही भय का भूत था तो तुम डर गए।” थोड़ी देर में मैं सामान्य हो गया और अपनी मूर्खता पर बहुत शर्मिंदा भी हुआ।
सर्दियों में तो बाक़ायदा बड़े लक्कड़ जलाकर अलाव के सामने हम लोग तापने बैठते थे। फिर काका सदाशिवराव, अपने चंद्र शेखर आज़ाद के साथ रहते हुए बहादुरी और रोमांच पैदा कर देने वाले क़िस्से सुनाते। तीन-चार क़िस्से तो मैं अभी भी नहीं भूला हूँ। काश उस समय मैं जानता होता कि काका एक महान क्रांतिकारी हैं और जिस घर में मैं रहता हूँ वह देश के सच्चे सपूतों का घर है तो मैं काका साहब से ढेर सारे क़िस्से कहानियाँ हासिल कर लेता। लेकिन क्या करूँ दस-ग्यारह साल की उम्र में मुझे इतनी समझ भी नहीं थी। वह तो बाद में पता लगा कि जिस कमरे में मैं पढ़ता था उस कमरे में देश माता जगरानी देवी के क़दम पड़ चुके थे।
आज़ाद के क़िस्से मैं अलग से आगे दूँगा।
रहली क़स्बे के बीच से बहने वाली सुनार नदी में मैंने तैरना सीखा। मेरे पाँचवीं कक्षा पास करते-करते बड़े भाई साहब शिक्षक की नौकरी छोड़ कर रेलवे महकमे में चले गए थे। भुसावल, धोंड में ट्रेनिंग के बाद जबलपुर फिर गृह नगर दमोह आ गए थे। मैं भी रहली छोड़कर परिवार के साथ दमोह आ गया और छटवीं कक्षा में शासकीय हाई स्कूल में दाख़िला ले लिया।
परन्तु यहाँ विधाता की नज़र फिर टेढ़ी हो गई। दमोह में जो मेरा गृह नगर है में आगे पढ़ने के रंगीन सपने सँजोये मैं शाला जाने लगा था कि यहाँ आने के मात्र सात महीने बाद ही भाई साहब की बिलकुल अज्ञात और विचित्र बीमारी के चलते केवल बाइस साल की आयु में ही मृत्यु हो गई। फिर कुठाराघात, ईश्वर तो माने तमंचा ताने ही बैठा था। अब तो आगे अंधकार ही था बिलकुल अँधेरा। मैं तेरह साल का बालक, छटवीं पास होकर सातवीं में पहुँचा था। बड़ी बहन सावित्री मात्र बीस साल की थीं। उनकी पढ़ाई तो आठवीं पास करने बाद पहले ही बंद हो चुकी थी। हम दो भाई, एक बहन और माँ, चार लोगों का गुज़ारा कैसे हो यह प्रश्न मुँह फाड़कर सामने खड़ा था। घर में बस एक पुराने घर के सिवाय कुछ नहीं था। परिवार के साझे में ज़मीन जिसमें हमारे हिस्से में मात्र साढ़े चार-पाँच एकड़ और वह भी भगवान् भरोसे। चाचा बाबा सब दूर खड़े होकर तमाशा देखने वाले। पर कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान् तो होता ही है। परिवार के लोग ठीक नहीं थे तो क्या हुआ पर बाहर के लोग तो ठीक थे। पर आजा पीताम्बर लाल जी की साख, पिताजी का ईमान और भाई साहब के मित्रों की लम्बी क़तार सबके हाथ सहायता के लिए आगे आ गए। बड़ी बहन की नगर पालिका के स्कूल में शिक्षिका के पद पर तैनाती हो गई। गाड़ी आगे चलने लगी। ६३ रुपये मासिक पगार, इतने में महीने भर का गुज़ारा तो हो ही सकता था। डूबते को तिनके का भी सहारा बहुत होता है . . .। मेरी और छोटे भाई की पढ़ाई भी बदस्तूर जारी रही। मुझे जो रहली में रुपये बारह की छात्रवृति मिलती थी वह दमोह आने पर किसी नियम के तहत बंद हो गई थी लेकिन भाई साहब की मृत्यु के बाद किन्हीं अदृश्य हाथों ने छात्रवृति फिर से बहाल करा दी। मैंने सातवीं और आठवीं प्रथम अथवा द्वितीय रहकर उत्तीर्ण कर ली थी। नौवीं कक्षा की प्रथम तिमाही परीक्षा में मैं फिर प्रथम आया और मुझे बीस रुपये प्रति माह की छात्र वृति प्राप्त हो गई जो ग्यारहवीं कक्षा तक मिलती रही। पढ़ने में अच्छा होने के कारण शिक्षक वृन्दों का वरद हस्त हमेशा मेरे ऊपर रहा। ग्यारहवीं पास करने के बाद प्रश्न फिर खड़ा हुआ कि मुझसे नौकरी कराई जाये अथवा आगे पढ़ाया जाए। नौकरी में बाबू बनना पड़ता अथवा प्रायमरी स्कूल में मास्टरी करना पड़ती। उच्च प्रथम श्रेणी, छह विषयों में विशेष योग्यता—आगे की पढ़ाई करने पर ज़ोर दे रहे थे लेकिन बहन की मात्र तेरासी रुपये की पगार हाथ वापस खींच लेते थे। इतने से रुपये में घर का ख़र्च चले या मैं धरमपुरा दमोह छोड़कर बाहर पढ़ने जाऊँ; सब कुछ अनिश्चित। तभी हमारे केमिस्ट्री के व्याख्याता मिस्टर घोष ने नौगांव में मेरे रहने की व्यवस्था अपनी दीदी के घर पर करवा दी। जहाँ के पॉलिटेक्निक कॉलेज में मुझे दाख़िला दिला दिया गया। उनके घर में मैं ऐसा पेइंग गेस्ट बनकर रहा जहाँ मैंने एक भी रुपया पे नहीं किया। एडमिशन सूची में कॉलेज में सबसे अधिक मार्क्स मेरे ही थे। यहाँ भी मुझे प्रथम वर्ष में राज्य की चालीस रुपये माह की छात्र वृति मिलने लगी। राष्ट्रीय छात्रवृति की परीक्षा जिसमेंं प्रथम तीन विद्यार्थियों को साठ रुपये छात्रवृति मिलनी थी में, मैं चौथे नंबर पर आ पाया। हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले मुझसे, अंग्रेज़ी माध्यम का परचा शायद ठीक से हल न हो सका हो या हो सकता है बहुत से बच्चे बी.एससी. करके आये थे मुझसे ज़्यादा होशियार हों क्योंकि मैं तो बस ग्यारहवीं पास करके ही गया था। लेकिन यहाँ फिर भाग्य ने ज़ोर मारा। जो विद्यार्थी इस स्कालरशिप परीक्षा में प्रथम आया था वह फ़र्स्ट ईयर पॉलिटेक्निक की अंतिम परीक्षा में फ़ेल हो गया। चौथे नंबर पर रहने वाला मैं प्रथम तीन की सूची में आ गया और मुझे साठ रुपये की स्कॉलरशिप मिलने लगा जो कि पॉलिटेक्निक के अंतिम वर्ष तक मुझे मिलता रहा। मैंने इलेक्ट्रिकल विषय लिया था। अंतिम वर्ष की परीक्षा देने और नतीजे घोषित होने के बाद शीघ्र ही मैं मध्य प्रदेश विद्युत् मंडल में नौकरी पा गया।
मध्य प्रदेश विद्युत् मंडल में जूनियर इंजीनियर के पद पर भर्ती होकर एक्सेक्यूटिव इंजीनियर के पद से में सेवा निवृत्त हुआ।
हालाँकि मैंने गणित साइंस की पढ़ाई की थी लेकिन मेरा रुझान हमेशा हिंदी साहित्य की तरफ़ ही रहा। घर के हालात ठीक होते और इंजीनियर बनकर और जल्दी नौकरी पाकर घर का बोझ हल्का करने की ज़रूरत न होती तो मैं भी हिंदी विषय लेकर स्नातक होता और पीएच.डी. करके किसी कॉलेज में प्राध्यापक होता। हिंदी विषय में हमेशा टॉपर रहा। कवितायें तो मैं आठवीं कक्षा से ही लिखने लगा था। शाला के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा भाग लेता था और पुरस्कार जीतता था। वैसे तो घर में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था लेकिन ख़ुद की बचपन से ही विशेष रुचि काव्य रचना की ओर रही। शायद यह पैदाइशी ही रही। नौंवीं क्लास तक पहुँचते-पहुँचते मैंने प्रेमचंद, टैगोर, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और वृन्दावन लाल वर्मा के अधिकांश उपन्यास कहानियाँ पढ़ डाले थे। लिखने-पढ़ने का शौक़ तो बदस्तूर जारी रहा लेकिन विद्युत् मंडल की नौकरी जन संपर्क की सेवा थी और चौबीस घंटे तनाव और सतर्कता की भेंट चढ़ती रहती थी। ऐसे में लेखन में व्यवधान पड़ना स्वाभाविक था। लिखा तो बहुत पर छपा नहीं और काग़ज़ों, कॉपियों तक ही सीमित रह गया। मेरे ज़माने में तो ऐसा कुछ माना जाता था की आर्ट्स विषय कम बुद्धि और कमज़ोर बच्चे ही लेते हैं। कुशाग्र बुद्धि वालों को तो मैथ्स, साइंस पढ़ना चाहिए। फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद तो नौकरी पक्की ही होती थी। घर बैठे ही ऑर्डर आ जाता था। मध्य प्रदेश में तो शिक्षित इंजीनियर थे ही नहीं। आर्ट्स में तो यह सुविधा थी ही नहीं। टेस्ट और साक्षात्कार बस यही करते रहो। ख़ैर जो बीत गई सो बात गई।
मेरा प्रमोशन जब सहायक इंजीनियर के पद पर हुआ और फ़ील्ड से मुक्त होकर जब मुझे ऑफ़िस में काम करने का मौक़ा मिला तब ही मुझे ठीक से लिखने का समय मिल पाया। ऑफ़िस का समय दस बजे से पाँच बजे तक होता था; उसके बाद मुझे लिखने का मौक़ा ही मौक़ा था। मेरी रचनाएँ अमृत सन्देश रायपुर और नव भारत रायपुर में छपनी शरू हो गईं। पहले तो मैं कवितायें ही लिख रहा था। लेकिन नौकरी में रहते हुए मैंने जो अधिकारियों के दुरंगे चरित्र और उनमें विसंगतियाँ देखी तो क़लम विद्रोह से भर उठी और मैंने अपनी व्यथा व्यंग्यों के माध्यम से उकेरी। सेवानिवृति के पहले के आठ साल मैंने छिंदवाड़ा में नौकरी की और यहाँ मैंने ख़ूब व्यंग्य लिखे। देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में मेरे दो सौ के लगभग व्यंग्य प्रकाशित हुए। कहानियाँ लघुकथाएँ भी मेरी ख़ूब छपीं।
बाल साहित्य तो मैंने सेवा निवृत्ति के बाद उस समय से शुरू किया जब मेरा सारा समय मेरे दो पोतों और तीन पोतियों के साथ बीतने लगा। बच्चों में रहे बच्चा बनकर फिर तो बाल मन में हिलोरें उठनी ही थीं। प्रथम बाल कविता ‘रोटी का सम्मान’ महेश सक्सेना जी ने ‘अपना बचपन’ अख़बार भोपाल में प्रकाशित की थी। फिर तो बाल-कविताओं गीतों का ही दौर चला देश कि लगभग सभी बाल पत्रिकाओं/पत्रों में मेरी रचनाएँ प्रकाशित की।
बचपन की कुछ और घटनाएँ जो मुझे अभी तरोताज़ा लगती रहतीं हैं और उद्वेलित करती रहती हैं। शायद कुछ सोच रही है कि कायस्थों के मुँह का थूक फोड़े फुँसियों/दाद इत्यादि बीमारी में बहुत लाभकारी होता है। इसी तारतम्य में मेरे घर पर ग़रीब तबक़े की महिलाएँ पान लेकर आती थीं और मुझसे पान चबाकर उसकी पीक देने की गुज़ारिश करती थीं ताकि उस पीक से घर के फोड़े-फुँसियों के रोगी को लगाकर उससे नजात पाई जा सके। पहले तो मुझे बहुत मज़ा आता था। लेकिन बाद में मुझे कुछ अजीब-सा लगने लगा। ये कैसी बेहूदगी है किसी का थूक किसी की दवा बन जाये। मैंने ऐसा करने को रोकना चाहा लेकिन महल्ले के लोग ग़ुस्सा न हो जाएँ और उनके मन को दुःख न पहुँचे इंकार करना कठिन होता था।
आठवीं कक्षा में प्यारे मोहन श्रीवास्तव हमारे कक्षा शिक्षक थे। एक दिन मैं उनके पीरियड की पुस्तक घर पर भूल आया। श्रीवास्तव सर ने इस बात पर मुझे सिर के पीछे ज़ोर से चाँटा मार दिया। मैं स्कूल में पहली बार पिटा था इसलिए सहना सम्भव नहीं हुआ और मैं रोने लगा। पहले पीरियड से पाँच पीरियड तक मैं लगातार रोता रहा दूसरे शिक्षकों ने ख़ूब समझाया तब भी मैं चुप नहीं हुआ। अंत में प्यारे मोहनजी आये और बोले, “मेरे बाप अब चुप हो जा अब कभी नहीं मरूँगा।” बाद में तो मैं उनका प्रिय शिष्य हो गया। प्यारे मोहनजी बहुत अच्छे मिलनसार और हमेशा मदद करने को तत्पर रहने वाले शिक्षक थे। मैं सातवीं कक्षा में प्रथम पास होकर आठवीं में पहुँचा था और सर को शायद यह मालूम नहीं था। बाद में अपनी भूल पर उन्हें खेद भी हुआ।
उसी साल एक और वाक़या हुआ। एक दिन लंच अवकाश में मैं अपने एक मित्र शब्बीर हुसैन के साथ स्कूल के अहाते पर बैठा था। शब्बीर को न जाने क्या सूझा उसने मुझे धक्का दिया और मैं नीचे गिर पड़ा। चूँकि मैं हाथों के बल गिरा था मुझे कोई भी चोट नहीं आई। लेकिन अचानक गिरने से मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठा मैंने भी उसका एक पैर पकड़कर नीचे खींच लिया। पैर खींचने के कारण वह एक हाथ के बल धड़ाम से गिरा और उसका हाथ कलाई के पास से बुरी तरह टूट गया। अब तो मैं घबरा गया। वह शहर के अमीर आदमी का बेटा था। ताबड़-तोड़ उसे अस्पताल ले जाया गया। और प्लास्टर बाँधने के बाद उसे उसके घर पहुँचाया गया। उस समय प्यारे मोहनजी ही मेरे क्लास टीचर थे। इतना बड़ा हादसा हो गया और उन्होंने मुझसे एक भी शब्द नहीं कहा। बस इतना, पूछा कैसे हुआ? मैंने जो हुआ था सच-सच बतला दिया। सारे मित्र शब्बीर को घर पर जाकर देख आये लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी। आख़िर जिस बात का डर था वही हुआ। बकरी की अम्मा कब तक ख़ैर मनाती। शब्बीर के पिताजी का बुलावा आ गया। मेरी तो जान ही सूख गई उसके पिताजी ज़रूर नाराज़ होंगे। लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा। जैसे ही मैं उनके घर पहुँचा उन्होंने मुझे बड़े प्यार से पास में बिठा लिया। इसमें डरने की क्या बात थी बच्चे तो खेल कूद में गिरते ही हैं। शब्बीर भी शिकायती लहजे अपने वालिद से बोला, “अब्बू ये देखो मेरा सबसे पक्का दोस्त। मुझे गिराकर मेरा हाथ तोड़ दिया और मुझे देखने भी पन्द्रह दिन बाद आया।” मैं तो शर्म के मारे धरती में गड़ा जा रहा था। मैं तो बेकार ही डर रहा था। चाय-नाश्ता करके मैं घर आ गया। और जब तक शब्बीर का हाथ नहीं ठीक हो गया मैं लगभग हर रोज़ उसे देखने जाता रहा।
धरमपुरा दमोह में बिताये दिन भी स्मरणीय रहे। मैं शालेय गतिविधियों में बिना किसी बाहरी सहयोग के भाग लेता रहा। कवितायें ख़ुद लिखता और कार्यक्रमों में सुनाता।
एक बार तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में भाग ले लिया। शायद १९६१-६२ की बात है मुझे चीन से भारत के युद्ध संबंधों पर मंच पर बोलने को कहा गया। तात्कालिक भाषण में तो तत्काल ही विषय दिया जाता है पर्ची के आधार पर। मैं बुरी तरह से घबराया हुआ था। नहीं मालूम मैंने मंच से क्या बोला? लेकिन जब परिणाम आया तो मैं प्रथम घोषित किया गया। ये कैसे हो गया मुझे आज तक समझ में नहीं आया।
नौवीं कक्षा में तो मैं दो सौ मीटर की दौड़ में भी प्रथम आया। जबकि दौड़ने की प्रैक्टिस बिलकुल नहीं थी। लेकिन दो दिन बाद ही फ़ाइनल टूर्नामेंट के सिलेक्शन के समय तो मैं पचास मीटर भी नहीं दौड़ सका। प्रेक्टिस नहीं होने से पैरों ने जवाब दे दिया। अभी जब यह लेख लिख रहा हूँ तो मैं धरमपुरा दमोह में ही हूँ। आँगन में बने कुँए को देखकर अचानक स्मरण हो आया की कैसे कुँए पर नहाने के बाद गीली चड्डी सूखाने के लिए हाथ में लेकर झुलाते हुए हम गाते थे, “कुँए का पानी कुँए में जाए मेरी चड्डी सूख जाये।” और वाक़ई चड्डी सूख जाती थी!
कभी-कभी लगता है की चापलूसी करना भी जीवन एक अनिवार्य अंग है। मेरी विचारधारा इसके बिलकुल विपरीत थी। मुझे उसका नुक़्सान भी उठाना पड़ा। दसवीं कक्षा में पढ़ते समय ज़िला वन अधिकारी की ओर से एक निबंध प्रतियोगिता “वन्य पशुओं की रक्षा कैसे की जाये” विषय पर आयोजित की गई थी। सारे दमोह ज़िले में मेरा निबंध प्रथम आया था और वन विभाग ने प्रथम पुरस्कार एक घड़ी भेजी थी लेकिन हमारे प्राचार्य महोदय ने वह घड़ी किसी अपने ख़ास को दे दी। और मुझे अपने किसी ख़ास के द्वारा दो रुपये का पेन थमा दिया गया। जो मुझे उस समय मिला जब मैं नौगांव से छुट्टियों में दमोह आया।
इसी चापलूसी से विमुख रहने पर मुझे लोकल पेपरों और शाला परफॉर्मेंस में इतने कम मार्क्स दिए की मेरा प्रदेश में प्रथम पच्चीस वरीयता प्राप्ति कुछ मार्क्स से ही छूट गई। अगर ये मार्क्स मुझे मिल जाते तो निश्चित ही मैं प्रथम पच्चीस आ जाता। ख़ैर इसे गुण कहें या अवगुण नौकरी करते समय मेरे आड़े आता रहा। और सिद्धांतों से मैंने समझौता कभी नहीं किया। कई लोग तो जिस जगह नौकरी ज्वाइन करते हैं चापलूसी के बल पर वहीं से सेवानिवृत होते हैं लेकिन अपने राम तो प्रदेश भर में घूमें और कुल उन्नीस जगह नौकरी की।
बाल साहित्य की अब तक पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं:
बचपन गीत सुनाता चल
बचपन छलके छल-छल-छल
दादाजी का पिद्दू (बाल कहानी संग्रह)
अम्मा को अब भी है याद (51 बाल कविताएँ)
मुट्ठी में है लाल गुलाल (121 बाल कविताएँ
व्यंग्य संग्रह दूसरी लाइन
अब तक लगभग 65 पाठ्य पुस्तकों में मेरी बाल रचनाएँ शामिल हैं जो देश के हर प्रान्त के बच्चे पढ़ते हैं। मेरा लिखा बच्चे शालाओं में पढ़ रहे हैं यह देखकर मेरे मन को बहुत सुकून मिलता है।
करोना के समय ऑन लाइन पढ़ाई होती थी तभी यू ट्यूब देखकर मालूम पड़ा कि कितने सारे बच्चे पाठ्यक्रम में मुझे पढ़ रहे हैं।
मेरे बालसाहित्य को धार देने और बच्चों तक पहुँचाने में वेब दुनिया पत्र का बड़ा योगदान रहा।
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