अभी भी हैं ऐसे लोग
कथा साहित्य | लघुकथा प्रभुदयाल श्रीवास्तव1 Mar 2019
"एक मीठा पान लगा देना भाई, ज़रा जल्दी करना ऑफ़िस के लिये देर हो रही है।"
मैं अपना मोपेड वाहन साईड स्टेंड पर लगाकर और आदेश देकर पान का इंतज़ार करने लगा। दुकान में और भी ग्राहक अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े थे मेरी तरफ देखकर मुस्कराने लगे। इधर दूकानदार ने भी एक उचाट सी नज़र मेरी ओर डाली और हँसने लगा।
पास में खड़े ग्राहक मुस्करा रहे हैं और दूकानदार हँस रहा है. मैं कुछ सतर्क सा हो गया क्या बात है। मैंने अपने कपड़ों की तरफ दृष्टिपात किया कि शायद गलत या उल्टे-सीधे कपड़े तो नहीं पहन रखे हैं। अथवा किसी ने गधा, मूरख या पागल जैसा जुमला लिखकर शर्ट अथवा पेंट पर तो नहीं चिपका दिया है। परंतु जब ऐसा कुछ नहीं दिखा तो मैंने पैरों की तरफ़ देखने का प्रयास किया शायद एक पैरों में बेमेल जूते पहन लिये हों आथवा जुराबें दूसरी-दूसरी... पर ऐसा कुछ नहीं था। मैं सोच ही रहा था कि मैं हास्य का केन्द्र बिंदु क्यों बन रहा हूँ मुझे दुकानदार की प्रेम से सनी मीठी सी आवाज़ सुनाई दी, "भाई साहिब ये मेडिकल स्टोर है, पान की दुकान तीन दुकानें छोड़कर आगे है।" मैंने दुकान की ओर ठीक से निहारा तो जैसे मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। बुरी तरह से झेंप गया। मेडिकल स्टोर में जाकर पान की फ़रमाइश कर बैठा था।
सॉरी कहकर जैसे ही मैं मुड़ने को हुआ दुकानदार बोला "कोई बात नहीं भाई साहब मैं पान यहीं मँगवाये देता हूँ।" इससे पहले मैं कुछ बोल पाता उसने अपने नौकर को पान की दुकान से पान लेने भेज दिया।
"दरअसल आपकी दुकान और पानवाले की दुकान का काउंटर एक जैसा है मैं धोखा..." मैंने सफ़ाई देनी चाही।
"हो जाता है कभी कभी..." दुकानदार हँस रहा था।
मैं सोच रहा था अभी भी दुनिया में ऐसे लोग हैं जो भावनाओं की क़द्र करना.......
"भाई साहब आपका पान," नौकर की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने पैसे देने चाहे।
"मेडिकल स्टोर से पान खाने पर पैसा नहीं लगता।"
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