कामकाजी माँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 Jul 2019
वह गूँध रही ख़ुशियाँ और सपने
काट रही बाधाएँ
झाड़ रही मन के मैल
बुहार रही घर के क्लेश
और अब
धुल रही बासी सोच
चमका रही मेधा।
उसने सहेजी हैं संवेदनाएँ
ठीक कीं सिलवटें विचारों की
समेट दिए अविश्वास
धुल दिए मन-प्राण सबके
और अब
लिख रही लेखा-जोखा
वर्तमान और भविष्य का।
वह हटा रही अपनी आरज़ू
सजा रही गौरव बच्चों का
उम्मीदों और सपनों को भी
और अब
उखाड़कर खर-पतवार
बना दी है समतल राह।
वह
आधुनिक युग की कामकाजी माँ!
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