अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ओ पिता!

तुम चले गए

 

छोड़ गए रुग्ण काया 
और रुग्ण प्रश्न जीवन के 
.... अनुत्तरित!

 

तुम्हें जाना ही था 
नियत था सबकुछ 
फिर भी 
तुम्हारी प्रतिबद्धता 
ढो रही थी रुग्णता ...    
चिंता और ... रिक्तता भी!

 

तुमने कुछ कहा क्यों नहीं?
क्यों रहे मौन?
क्यों नहीं परोसी अपनी झल्लाहट
हर बार की तरह ---- ?

 

ओ पिता!
तुम्हारी ख़ामोशी 
भयभीत करती थी मुझे; 
अनहोनी की आशंका 
फूट पड़ी थी गहरे दबे बीज से।

 

तुम भी तो खींच रहे थे रथ
 टूटे पहिये पर,   
... ... ... ... 
...  टूटने लगे हैं अरे,
महसूसने लगे थे तुम 
और देने लगे थे संकेत  
नियति के विधान का;

 

तुम समझ चुके थे ... 
 देश-परदेस का अर्थ
और समझाना चाहा था मुझे भी
... ... ...  
तभी तो 
आंधियों में भी थिर था चित्त तुम्हारा।


ओ पिता!
जाते-जाते तुमने, भेद दिए.....    
मौन के असीम अर्थ
संकेत के विविध पहलू 
स्पर्श के अनगिन आयाम 
पंचतत्व के सूक्ष्म संबंध    
और 
प्रयाण की त्वरित प्रक्रिया।

 

ओ पिता!
मंझे धागे का कमज़ोर पड़ना,
... ... ...  ... 
टूटन का अंतहीन सिलसिला  
जाने कब से गुन रहे थे तुम! 

 

मैं देह थामे रही थी  
और तुम!
 हौले से निकल लिए थे –
इन आँखों के सामने!
बे-आवाज़!

 

कुछ भी तो नहीं बदला था!
... सबकुछ बदल गया था!
तुम शिव हो गए थे
देह शव!

 

पथराई आँखें 
ढूँढती  रही थीं शिव को 
... शव मे!

 

ओ पिता!
तुम गए  
... ... तपिश के दाघ से परे 
विश्राम स्थली में 
और
मुस्कुराए हो एक बार फिर! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

पत्र

कविता

ऐतिहासिक

स्मृति लेख

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कहानी

किशोर साहित्य नाटक

सामाजिक आलेख

गीत-नवगीत

पुस्तक समीक्षा

अनूदित कविता

शोध निबन्ध

लघुकथा

यात्रा-संस्मरण

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं