ओ पिता!
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 Jul 2019
तुम चले गए
छोड़ गए रुग्ण काया
और रुग्ण प्रश्न जीवन के
.... अनुत्तरित!
तुम्हें जाना ही था
नियत था सबकुछ
फिर भी
तुम्हारी प्रतिबद्धता
ढो रही थी रुग्णता ...
चिंता और ... रिक्तता भी!
तुमने कुछ कहा क्यों नहीं?
क्यों रहे मौन?
क्यों नहीं परोसी अपनी झल्लाहट
हर बार की तरह ---- ?
ओ पिता!
तुम्हारी ख़ामोशी
भयभीत करती थी मुझे;
अनहोनी की आशंका
फूट पड़ी थी गहरे दबे बीज से।
तुम भी तो खींच रहे थे रथ
टूटे पहिये पर,
... ... ... ...
... टूटने लगे हैं अरे,
महसूसने लगे थे तुम
और देने लगे थे संकेत
नियति के विधान का;
तुम समझ चुके थे ...
देश-परदेस का अर्थ
और समझाना चाहा था मुझे भी
... ... ...
तभी तो
आंधियों में भी थिर था चित्त तुम्हारा।
ओ पिता!
जाते-जाते तुमने, भेद दिए.....
मौन के असीम अर्थ
संकेत के विविध पहलू
स्पर्श के अनगिन आयाम
पंचतत्व के सूक्ष्म संबंध
और
प्रयाण की त्वरित प्रक्रिया।
ओ पिता!
मंझे धागे का कमज़ोर पड़ना,
... ... ... ...
टूटन का अंतहीन सिलसिला
जाने कब से गुन रहे थे तुम!
मैं देह थामे रही थी
और तुम!
हौले से निकल लिए थे –
इन आँखों के सामने!
बे-आवाज़!
कुछ भी तो नहीं बदला था!
... सबकुछ बदल गया था!
तुम शिव हो गए थे
देह शव!
पथराई आँखें
ढूँढती रही थीं शिव को
... शव मे!
ओ पिता!
तुम गए
... ... तपिश के दाघ से परे
विश्राम स्थली में
और
मुस्कुराए हो एक बार फिर!
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