गाँधी की दृष्टि में हिंदी की महत्ता
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. आरती स्मित1 Oct 2023 (अंक: 238, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
गाँधी को समझने की प्रक्रिया जारी है। गाँधी को समझने के लिए उनका स्वदेशप्रेम समझना ज़रूरी लगा मुझे। उनके स्वदेश प्रेम को समझने के लिए उनके बचपन से गुज़रते हुए, जब युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े मोहनदास को इंग्लैंड यात्रा करते और वहाँ की पत्र-पत्रिकाओं में स्वदेश की लोक-संस्कृति, पर्व-त्योहार, खान-पान, वेषभूषा की विशिष्टता को उजागर करते देखा तो इतनी बात सहजता से मेरी बुद्धि ने ग्रहण कर लिया कि अपने देश को बहुत जाने बिना भी गाँधी अपने भीतर देश को जीते थे। स्वदेश के प्रति अगाध प्रेम दक्षिण अफ़्रीका में पूर्णत: प्रकट हो जाता है, क्योंकि गाँधी के लिए देश कोई भूखंड नहीं, जनता है—वह बड़ी आबादी जिसके उत्कर्ष–अपकर्ष से देश की विकास-रेखा घटती–बढ़ती है।
और जब किसी व्यक्ति के भीतर राष्ट्र जीता हो तो उसकी दृष्टि सबसे पहले वहाँ की मूल समस्या और उसके प्रभावी समाधान की ओर जाएगी। इस समाधान के रूप में ही गाँधी ने भारतीय भाषाओं की पड़ताल शुरू की और हिंदी पर जाकर ठहरे। वे मातृभाषा को शिक्षा की प्रथम भाषा और राजभाषा बनाने के पक्षधर तो थे ही, मगर उनकी दृष्टि एक ऐसी समृद्ध भाषा को तलाश रही थी, जिसका अवगाहन अधिकाधिक जनसमाज के द्वारा किया गया हो, जो बहुरूपा, ललिता और आमजनों के दिलों को जोड़नेवाली हो तभी एकता का सूत्र स्वाभाविक रूप से सभी को अपने में बाँध सकेगा।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि जिस राष्ट्र की अपनी भाषा सुदृढ़ होगी, वह राष्ट्र आंतरिक रूप से सुगठित-संगठित होगा और गाँधी ने इस सत्य को राजनीति में क़दम रखने से बहुत पहले ही समझ लिया था। उन्होंने मैकाले की शिक्षा नीति और लॉर्ड चेम्सफोर्ड की रणनीति के भीतर छिपी बुरी मंशा भाँप ली थी, इसलिए स्वयं विद्यालय में ज़बरन अंग्रेज़ी पढ़ने और अंग्रेज़ी में ही अँग्रेज़ों के बीच रहकर, बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी अंग्रेज़ी के प्रति मोहासक्त नहीं हुए, बल्कि यह महसूस किया कि ये अँग्रेज़ तो अपनी मातृभाषा/ राष्ट्रभाषा छोड़कर दूसरी भाषा नहीं बोलते, जबकि भारतीय आपस में मिलने पर भी अंग्रेज़ी में बोलने और अंग्रेज़ी चाल-ढाल अपनाने में ही अपनी शान समझते हैं। अंग्रेज़ी शिक्षा पाए या पा रहे भारतीयों की मनःस्थिति समझ लेने के बाद उनके लिए यह और ज़रूरी हो गया कि वे अपने देश के लिए एक ऐसी भाषा को सबके सामने रखें जिसे देश की अधिक आबादी बोलती, पढ़ती-लिखती और कुछ आबादी बोलती-समझती हो और अपना कार्य-व्यापार करती हो यानी कि जो व्यवसाय से भी जुड़ी भाषा हो।
अँग्रेज़ों की नीति रही, ‘किसी देश पर राज करना है तो वहाँ के भाषा-साहित्य को नष्ट कर दो’। और भारत आकर धीरे-धीरे उन्होंने यही किया। इस देश की जड़ में समाई हिंदी भाषा अपने विविध रूपों में जनता के बीच रही, भले ही वह धर्मग्रंथों के रूप में, निर्गुणिया गीतों, दोहों-सवैयों में या भक्ति साहित्य में रही, वह अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी जनता की ज़ुबान पर रही, दिल में रही और जीवन रस पाती रही। अँग्रेज़ों ने अंग्रेज़ी को छलना की तरह प्रयुक्त करते हुए इस देश के समृद्ध परिवारों के मस्तिष्क को अपना ग़ुलाम बना लिया और अपने ही देश की बड़ी आबादी से उनकी दूरी बना दी। ऊँच-नीच, सभ्य-जाहिल के रूप में एक ऐसी खाई जो पाटे न पटती। इस खाई के विस्तार के पीछे दो ही चीज़ें थीं पहरावा और भाषा। अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ीदाँ पोशाकों ने अमीरों को दिमाग़ी रूप से अँग्रेज़ का पिट्ठू बना दिया, जिनके भीतर अपने ही कराहते देशवासियों के प्रति संवेदना की नदी सूख चुकी थी। विदेश में होते हुए भी गाँधी की दृष्टि देश के भीतर बुने जा रहे इस मायावी जाल पर पड़ी हुई थी और दक्षिण अफ़्रीका में रहते हुए ही भारतीयों को संगठित करने में उन्होंने एक भाषा की अनिवार्यता अनुभव की थी।
सभी जानते हैं कि गाँधी के राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में जिन प्रमुख ग्यारह विषयों पर पूरी शिद्दत से काम हो रहा था उनमें खादी और हिंदी का स्थान सर्वोपरि था। यानी पहरावा और भाषा की एकरूपता से देश भर में समानता और एकता का पाठ। ये दोनों ऐसे सरोकार थे, जिससे आम जन का मन जुड़ता था। गाँधी ने स्वदेशी आहार पर भी उतना ही बल दिया, क्योंकि वे महसूस रहे थे, देश किस तरह खोखला किया जा रहा है। कोई कितनी भी दलीलें दें, मगर इस बात से इनकार करना असंभव होगा कि हिंदी भाषा की महत्ता को गाँधी ने स्वयं समझा और इसके राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार में आरंभ से लगे रहे। वे हर जगह, हर परिस्थिति में यह समझाने की कोशिश करते रहे कि भाषा और भूषा की समानता एकात्म स्थापित करती है। गाँधी की दृष्टि इस मामले में तत्कालीन नेताओं की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ थी। उनके लिए स्वराज्य कभी केवल राजनीतिक स्वरूप में सिमटा नहीं था, वह तो देश की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्वरूपों को अधिक उजागर करनेवाले तत्वों में समाया था। वह ऐसे राष्ट्र का प्रतीक था जहाँ अस्सी प्रतिशत जनता तंगहाली, अशिक्षा और बेरोज़गारी झेलती हुई गाँवों में बसी थी, जिसकी बोली हिंदी थी, भाषा हिंदी थी, चलन हिंदी में था और रोज़ी के लिए बाहर जाकर भी अपनी हिंदी को नहीं छोड़ती थी; जिस आबादी को अपनी बोली-भाषा की सरसता से प्यार था और गाँधी मानते थे कि यही सरसता समरसता लाएगी क्योंकि यह हिंदू-मुस्लिम दोनों की भाषा है और इसमें अरबी-फ़ारसी शब्द पानी में नमक की तरह घुले हुए हैं, जिन्हें सायास अलग करने की कोशिश में भाषा का सौंदर्य तो खो ही जाएगा, फिर वह आम जन की भाषा नहीं रह जाएगी। इसलिए गंगा-जमुनी संगम की भाषा हिंदी ही राष्ट्रीय आंदोलन को दावानल की तरह फैलाएगी। फिर राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की महत्ता क्यों न स्वीकारी जाए! यह गाँधी की हिंदी थी और यही हिंदुस्तानी।
हम इस सच से नज़र नहीं चुरा सकते कि हम वास्तव में गाँधी की हिंदी को ही जीते हैं, क्योंकि न तो हम क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ हिंदी और न ही केवल उम्दा अरबी-फ़ारसी की भाषा का व्यवहार कर जनमानस तक अपनी पहुँच बना सके हैं। यहाँ तक कि जनमानस के लिए रचा गया साहित्य गाँधी की हिंदी/हिंदुस्तानी को ही प्रतिबिंबित करता है। विरोध करनेवालों ने भले ही उन्हें शब्दजाल में उलझाकर रखा, किन्तु हिंदी के संदर्भ में उनकी दृष्टि पूरी व्यापकता लिए हुए और स्पष्ट थी। 7 अगस्त 1929 को ‘हिंदी नवजीवन’ में उन्होंने लिखा भी:
यदि हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनवाना चाहते हैं, यदि हिंदू-मुस्लिम दोनों में एकता सिद्ध करना चाहते हैं तो हम संस्कृत या अरबी-फ़ारसी शब्दों का इरादतन बहिष्कार नहीं कर सकते। अर्थात्, भाषा लिखते या बोलते समय हमारे मन में एक-दूसरे का या एक-दूसरे की बोली का द्वेष नहीं होना चाहिए, बल्कि एक-दूसरे के लिए प्रेम अथवा मुहब्बत होनी चाहिए।”1
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अहिंदीभाषी, जिन्हें युवावस्था तक हिंदी पढ़ना-लिखना, यहाँ तक कि बोलना भी नहीं आता, वह जब राष्ट्र के स्वातंत्र्य के बारे में विचारता है तो अपनी दृष्टि का फैलाव करता है, फिर वह हिंदी की अस्मिता की गरिमा को पहचानता है, महसूसता है और निष्ठापूर्वक स्वीकारता हुआ, पूरे देश को समझाने निकल पड़ता है कि:
“हिंदी ही हिंदुस्तान की शिक्षित समुदाय की भाषा हो सकती है। यह बात निर्विवाद सिद्ध है। यह कैसे हो, केवल यही विचार करना है। जिस स्थान को आजकल अंग्रेज़ी भाषा लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, क्योंकि हिंदी का उसपर पूर्ण अधिकार है . . . अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिंदी सीखना बहुत ही सरल है। हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग साढ़े छह करोड़ है। बांग्ला, बिहारी, उड़िया, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, मराठी, पंजाबी और सिंधी हिंदी की बहनें हैं। इन भाषाओं के बोलनेवाले थोड़ी-बहुत हिंदी समझ और बोल लेते हैं। इन सबको मिलाने से संख्या 22 करोड़ हो जाती है। जिस भाषा का इतना प्रचार है, उसकी बराबरी करने के लिए अंग्रेज़ी, जिसे एक लाख भी हिंदुस्तानी ठीक-ठीक नहीं बोल सकते, क्योंकर समर्थ हो सकती है? आज तक हमारा काम और देसी व्यवहार हिंदी में प्रारंभ नहीं हो पाया, इसका कारण हमारी भीरुता, अश्रद्धा और हिंदी भाषा के गौरव का अज्ञान है। यदि हम भीरुता छोड़ दें और श्रद्धावान बनें, हिंदी का गौरव समझ लें तो हमारी राष्ट्रीय और प्रांतीय परिषदों और सरकारी विधानसभाओं का काम भी हिंदी में चलने लगेगा।”2
इसके पूर्व, गाँधी अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले को दिए वादे कि ‘एक वर्ष तक सिर्फ़ देश को देखेंगे-समझेंगे, कहीं भी भाषण नहीं देंगे।’ से एक वर्ष बाद जैसे ही मुक्त हुए, उन्होंने जगह-जगह भाषण ही दिए और उसका प्रमुख विषय हिंदी और खादी को हर क्षेत्र में बढ़ावा देना था। 5 फरवरी 1916 ई. को काशी नागरी प्रचारिणी सभा में भाषण के दौरान उन्होंने कहा:
“इस सभा के जो अधिकारी वकील हैं, उनसे मैं पूछता हूँ: आप अपना काम अंग्रेज़ी में चलाते हैं या हिंदी में? यदि अंग्रेज़ी में चलाते हैं तो मैं कहूँगा कि हिंदी में चलाएँ। जो युवक पढ़ते हैं, उनसे भी मैं कहूँगा कि वे इतनी प्रतिज्ञा करें कि हम आपस का पत्र-व्यवहार हिंदी में करेंगे। जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अवश्य पवित्र है, उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती। हमारा मुख्य काम तो तमिल सीखना है, पर तो भी हम अन्य भाषाएँ भी सीखेंगे। अगर हम तमिल सीख लेंगे तो तमिल बोलने वालों को भी हिंदी सिखा सकेंगे।”3
मात्र एक वर्ष देश का भ्रमण करके गाँधी ने भाषा के सम्बन्ध में इतना ठोस निर्णय लिया और न सिर्फ़ निर्णय लिया, उसकी व्याप्ति के लिए हर तरह से जुट गए, गाँधी का यह भाषण महज़ भाषण नहीं है, हिंदी भाषा को लेकर उनके भीतर जो सम्मानभाव, जो आध्यात्मिक अनुभूति पनपती है, वह स्पष्ट दिखता है। गाँधी के लिए तुलसीदास मात्र कवि नहीं, एक ऐसे रचयिता थे जो आम समाज को और वंचित समाज के दिलों में संवेदना की धारा प्रवाहित कर सकें और उनके इस महान कार्य को हिंदी ने ही रूपाकार दिया। इतना ही नहीं, दक्षिण अफ़्रीका के प्रवास के दौरान उन्होंने भली-भाँति महसूस किया कि कि गिरमिटिया मज़दूरों को एकसूत्र में पिरोकर उन्हें अपनी भारतभूमि और वहाँ की संस्कृति से जोड़कर रखने और प्रतिकूल परिस्थितियों में ऊर्जस्वित करनेवाला धर्मग्रंथ तुलसीकृत मानस ही था जो (अवधी) हिंदी और देवनागरी लिपि में रचा गया। वहाँ रहते तमिलभाषी भी हिंदी बोलते-समझते थे। इसलिए हिंदी की गुरुता पर उन्हें अधिक सोचने-विचारने की ज़रूरत नहीं पड़ी। स्वतंत्र भारतीय समाज के लिए उन्हें जिस भाषा की तलाश थी, वह भी उन्हें हिंदी में ही मिली। फिर तो उनकी तर्कशील बुद्धि ने देश के महामहिमों को तर्क के आधार पर समझाना शुरू किया। इसकी एक बानगी 20 अक्टूबर 1917 को द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन, भड़ौच में देखने को मिलती है जब गाँधी ने अध्यक्ष पद का निर्वहन करते हुए अपनी बात रखी थी:
“हमारे वायसराय ने जो भाषण दिया है, उसमें उन्होंने केवल आशा प्रकट की है। उनका उत्साह उन्हें उपर्युक्त श्रेणी में नहीं ले जाता . . . यदि हम गहराई से देखें तो पता चलेगा कि अंग्रेज़ी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती और न ही उसका प्रयत्न करना चाहिए।
तब राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिए? इस पर विचार करें।
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वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
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उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज होना चाहिए।
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उस भाषा को भारत के ज़्यादातर लोग बोलते हों।
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वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए।
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उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर ज़ोर न दिया जाए।
अंग्रेज़ी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है . . . यहाँ के शासन का ढाँचा इस तरह सोचा गया है कि अँग्रेज़ कम होंगे। यहाँ तक कि वायसराय और दूसरे अँग्रेज़ उँगलियों पर गिनने लायक़ रहेंगे। अधिकतर कर्मचारी भारतीय ही रहेंगे . . . स्थायी स्थिति तो यह है कि भारत में, सार्वजनिक कामों में अंग्रेज़ी भाषा की ज़रूरत सबसे कम पड़ेगी।
अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा कृत्रिम विश्वभाषा ‘एस्पेरेंटों’ दाख़िल करने जैसी बात है। अंग्रेज़ी हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है, यह कल्पना उसी प्रकार हमारी कमज़ोरी की सूचक है, जिस प्रकार ‘एस्पेरेंटो’ को विश्वभाषा बनाने का प्रयत्न अज्ञानता का सूचक है।”4
इसी प्रकार, 31.12.1917 को कलकत्ता के अखिल भारतीय समाज सेवा सम्मेलन में समाज सेवा के वास्तविक स्वरूप और उसके विस्तार के साथ ही उसकी प्रक्रिया पर अपनी बात रखते हुए गाँधी ने कहा था:
“पहली और सबसे बड़ी समाज सेवा हम कर सकते हैं, वह यह है कि हम इस स्थिति से पीछे हटें, देशी भाषाओं को अपनाएँ, हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसके स्वाभाविक पद पर पुनः प्रतिष्ठित करें और सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य हिंदी में ही प्रारंभ कर दें। हमें तब तक विश्राम नहीं लेना चाहिए जब तक कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में हमें देशी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा नहीं दी जाती। हमारे लिए अपने अँग्रेज़ मित्रों के निमित्त भी अंग्रेज़ी में बोलना आवश्यक नहीं होना चाहिए। प्रत्येक अँग्रेज़ प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारी को हिंदी जाननी चाहिए। बहुत-से अँग्रेज़ व्यापारी हिंदी सीखते हैं, क्योंकि उन्हें अपना व्यापार चलाने के लिए उसकी आवश्यकता होती है। ऐसा दिन अवश्य ही जल्दी आना चाहिए जबकि हमारी विधान सभाओं में राष्ट्रीय मामलों पर देसी भाषाओं में या हिंदी में, जहाँ जो उपयुक्त हो, बहस की जाएगी।”5
यानी जीवन के हर क्षेत्र में क्रांति लाने व सेवा करने के लिए गाँधी भाषा को अनिवार्य तत्त्व मानते थे और उनकी दृष्टि में सिवाय हिंदी के यह क्षमता किसी में नहीं थी।
गाँधी सदैव यह अनुभव करते थे कि इस भाषा की महत्ता इस बात से स्वयं प्रतिपादित होती है कि अनेक बोलियाँ और भाषाएँ इसमें मिलकर रच-पच गई हैं, मानो छोटी-छोटी नदियाँ गंगा में मिलकर गंगा का हिस्सा हो गई हों। हिंदी भाषा की प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति और उसकी शक्ति के प्रति उनमें पूरी आस्था थी। अमीर खुसरो, विद्यापति से लेकर निराला तक को भले ही उन्होंने न पढ़ा हो, किन्तु बुद्ध और जैन तीर्थंकरों के विचारों से अछूते न थे, मैथिलीशरण गुप्त की भारत भारती की गूँज उनके कानों तक पहुँची थी; बनरसीदास चतुर्वेदी की रचना की उन्होंने सराहना की तो प्रेमचंद के लेखन के प्रति भी आश्वस्त रहे। गोया कि जो रचनाकार हिंदी की सरल भाषाशैली में राष्ट्र को जगाने का कार्य करते रहे, उनकी रचनाओं को कुछ पढ़े या बिना पढ़े भी वे मज़मून जानकर सराहते और हिंदी रचनाकारों को और राष्ट्र के निमित्त बेहतर रचने के लिए यह कहकर उकसाते रहे थे कि अभी हिंदी में रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे रचनाकार नहीं हैं। गाँधी की दृष्टि हिंदी साहित्य की साहित्यिक विशिष्टताओं पर कभी नहीं रही, उनके लिए तो वही भाषा-साहित्य महान था जो जनता के दिलों को छू सके; उनकी सोई चेतना को जगा सके; उसे झकझोर सके और राष्ट्र के प्रति असीम प्रेम करना सिखा सके। महान साहित्यकार निराला जी द्वारा उनसे बहस करने पर गाँधी ने बड़ी विनम्रता से स्वीकारा कि उन्हें हिंदी साहित्य की बहुत जानकारी नहीं है।
23 जनवरी 1921 ई. को कलकत्ते में दिए अपने भाषण के दौरान गाँधी ने यह इच्छा भी ज़ाहिर की:
“यदि मुझे अकेले छोड़ दिया जाय तो आप मुझे अपनी शक्तिभर सूत कातने और दत्तचित्त होकर हिंदुस्तानी की पुस्तकों को पढ़ते हुए ही पाएँगे।”6
एक अहिंदीभाषी महानायक का हिंदी के प्रति इतना उत्कट प्रेम स्वयं में अनूठा दृष्टांत है। इसी भाषण में उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया:
“एक क्षण के लिए भी ये न सोचें कि आप अंग्रेज़ी को जनसाधारण के बीच अभिव्यक्ति का सामान्य माध्यम बना सकेंगे। बाईस करोड़ भारतीय हिंदुस्तानी जानते हैं। उन्हें और कोई भाषा नहीं आती। अगर आप बाईस करोड़ भारतीयों के दिलों में बैठ जाना चाहते हैं, तो आपके लिए हिंदुस्तानी ही एकमात्र भाषा है।”7
यह भाषण उसी वर्ष 25 जनवरी को अमृत बाज़ार पत्रिका और 2 फरवरी को यंग इंडिया में प्रकाशित हुआ।
वस्तुतः हिंदी की विराटता, उसका असीमित विस्तार, आगे बढ़कर हर एक को गले लगा लेने की उसकी प्रकृति और स्वयं में पचा लेने की अद्भुत क्षमता गाँधी को कहीं नहीं मिली। निर्गुण संतों ने हिंदी के जिस रूप को सधुक्कड़ी बोली कही, वह वास्तव में एक विराट नद है, जहाँ विभिन्न धाराओं का संगम अनायास हुआ है। अरबी-फ़ारसी, पंजाबी, राजस्थानी, संस्कृत आदि भारतीय भाषा के शब्दों के साथ ही चीनी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि विदेशी शब्दों का प्रवेश जिस सहजता से हुआ और हिंदी ने उसे आत्मसात कर, अपने व्याकरण के अनुसार ढाल लिया, गाँधी हिंदी की इस ख़ूबी से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने आर्यभाषा हिंदी की पाचनशक्ति से उसके विशाल परकोटे को पहचाना था। साथ ही, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, बिहारी, छतीसगढ़ी, कौरवी, राजस्थानी, पहाड़ी आदि बोली-उपभाषा से हिंदी की समृद्धि के प्रति वे निश्शंक तो थे ही, आगत शब्दावलियों के स्वाभाविक रूप में बहुल प्रयोग से भी हिंदी के भाषात्मक सामर्थ्य, भाषात्मक व्यवस्था की व्यापकता, उसकी समृद्धि की संभावनाओं का उन्होंने गहराई से निरीक्षण किया। हिंदी की देवनागरी लिपि और हिंदी व्याकरण की वैज्ञानिकता को आज संसार स्वीकार रहा है। अंतर्जाल के महानायक बिल गेट्स ने भी देवनागरी लिपि को सबसे अधिक वैज्ञानिक मानते हुए भविष्य में उसकी सहायता से काम बढ़ाने की बात कही है। गाँधी इस बात को सौ वर्ष पूर्व कह चुके थे। आज हम यह कह सकते हैं कि हिंदी भाषा, उसके व्याकरण और लिपि को लेकर गाँधी ने जो बातें कहीं, विश्व उसे स्वीकारने को बाध्य है।
14 जुलाई 1927 ई. को गाँधी ने यंग इंडिया में लिखा था:
“मेरा यह दृढ़ विश्वास तो है कि सभी भारतीय भाषाओं की लिपि एक ही होनी चाहिए और ऐसी लिपि देवनागरी ही हो सकती है . . . सभी भाषाओं की ज़रूरतों के अनुसार ढाल सकने की जितनी ख़ूबी देवनागरी में है, उतनी और किसी लिपि में नहीं है तथा इस प्रयोजन के लिए कोई भी दूसरी लिपि उतनी पूर्ण परिष्कृत नहीं है, जितनी कि देवनागरी है।”8
इसके पूर्व अगस्त 1925 ई. को गाँधी ने यंग इंडिया में ही लिखा था, “मैं मानता हूँ कि इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं है कि देवनागरी ही सर्वमान्य लिपि होनी चाहिए।”9
गाँधी का हिंदी प्रेम और हिंदी के प्रति उनका सम्मानभाव, प्रायः हर भाषण और लेख से स्वतः प्रकट हो जाता है। जब उन्होंने स्वदेश के हित में अपनी संवेदना और तर्क-तुला पर तोलकर हिंदी को परख लिया तो राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में जुट गए और चूँकि दक्षिण भारत ही देश का वह बड़ा हिस्सा था, जहाँ हिंदी सिखाने के लिए शिक्षक भेजने की अनिवार्यता थी और इस दिशा में उन्होंने अपने आपको झोंक दिया। स्वयं वहाँ न होकर भी देवदास, काका कालेलकर, स्वामी सत्यदेव सहित अन्य को भी हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत भेजा। उन्हें जहाँ-जहाँ हिंदी में मानपत्र मिले, वे प्रफुल्लित हुए और आभार व्यक्त करते न थके और हिंदी के विस्तार का उनका सपना उनकी आँखों में चमकता दिखा, इसके विपरीत जहाँ भी अंग्रेज़ी में मानपत्र मिले या काँग्रेस के नेताओं ने अंग्रेज़ी में भाषण दिए, वे दिल से दुखी हुए और इसे जनसभा में प्रकट भी किया। यहाँ मिसाल के तौर पर एक प्रसंग का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है . . .। नेता जी जब काँग्रेस अध्यक्ष थे, उन्हीं दिनों कार्यकारिणी सदस्यों की बैठक दिल्ली में हो रही थी। उड़ीसा के मुख्यमंत्री श्री विश्वनाथ दास जब बोलने के लिए आए और अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया तो बापू ने निवेदन किया कि “कम से कम कार्यकारिणी सभा की बैठक में प्रत्येक व्यक्ति को हिंदी में बोलना चाहिए।” किसी ने कहा, “इन्हें हिंदी नहीं आती” तो “वह अपनी मातृभाषा उड़िया में बोलें जिसका हिंदी में कानूनगो द्वारा अनुवाद कर दिया जाएगा।” “मैं हिंदी में अनुवाद कर दूँगा।” सुभाषचंद्र बोस बोले। यही हुआ। विश्वनाथजी ने उड़िया में भाषण दिया और उड़िया के जानकार नेताजी ने उसका अनुवाद हिंदी में किया।
गाँधी वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आज़ादी के लिए एक पहरावा एक भाषा की महत्ता पर बल दिया, लोगों का ध्यान खींचा, राष्ट्रीय नेताओं को हिंदी में ही कार्यकारिणी के कार्य करने के लिए निवेदन किया। गाँधी के निवेदन पर ही लोकमान्य तिलक ने हिंदी सीखना आरंभ किया; सुप्रसिद्ध विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने हिंदी सीखी, उसके बोलने-लिखने का अभ्यास किया और अप्रैल 1920 ई। में काठियावाड़ में अपना भाषण हिंदी में दिया।
गाँधी ने भारत को पग-पग पर जीया था, उसे अंतस से महसूस किया था। बिहार (झारखंड), बंगाल (पूर्वी-पश्चिम), उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड), मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़) से लेकर केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदी की व्याप्ति सागर की तरह चाहते थे। एक महती गरिमामयी भाषा के रूप में जो इतनी नम्र और सरल है कि देश की सबसे अधिक आबादी द्वारा बोली और समझी जाती है। कलकत्ते की एक जनसभा में हिंदी के राष्ट्रीय स्वरूप के संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट किया था:
“यह हिंदी एकदम संस्कृतमयी नहीं है, न ही एकदम फ़ारसी शब्दों से लदी हुई है। देहाती बोली में जो माधुर्य देखता हूँ, वह न लखनऊ के मुसलमान भाइयों की बोली में और न प्रयाग के पंडितों की बोली में पाया जाता है। भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में समझ ले। भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय में मिलेगा और उसमें ही रहेगा। हिमालय से निकली हुई गंगा अनंतकाल तक बहती रहेगी। ऐसा ही हिंदी का गौरव रहेगा। और जैसे छोटी पहाड़ी से निकला हुआ झरना सूख जाता है, वैसी ही संस्कृतमयी तथा फ़ारसीमयी हिंदी की दशा होगी।”10
2 जनवरी 1918 को अमृत बाज़ार पत्रिका, कोलकाता; उप.प. 279 पर यह भाषण प्रकाशित हुआ।
21 दिसंबर, 1933 को पेराम्बूर की मज़दूर सभा को संबोधित कर रहे गाँधी ने मज़दूरों के हित और उनकी शक्ति की चर्चा करते हुए भी अपनी बात में हिंदी सीखने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था:
“यदि आप सारे भारत के सुख-दुख को बाँटना चाहते हैं, उनके साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं तो आपको हिंदी या हिंदुस्तानी सीख लेनी चाहिए। जब तक आप ऐसा नहीं करते, तब तक उत्तर और दक्षिण में कोई मेल नहीं हो सकता।”11
इसी संदर्भ में (डॉ.) हरिवंश राय बच्चन का कहा उद्धृत करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। डॉ. बच्चन ने पंडित नेहरू के नाम गाँधी के एक पत्र का ज़िक्र करते हुए यह अचंभा व्यक्त किया है:
“हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए तर्कों का पहाड़ खड़ा किया गया है, पर गाँधीजी के इस पत्र को देखने के पूर्व मैंने कहीं भी यह तर्क नहीं देखा था कि उससे ग़रीबों का भला होगा। यह तर्क गाँधीजी ही दे सकते थे, क्योंकि वह देश के ग़रीबों से एकात्म थे और अपने हर काम की कसौटी यह रखते थे कि उससे समाज के निम्नतम स्तर के लोगों का भला होगा या नहीं। मुझे गाँधीजी का यह कारण बड़ा मार्मिक लगा। गाँधीजी का यह छोटा-सा तर्क—अरथु अमित अति आखर थोरे—प्रांतीयता, सांप्रदायिकता, बौद्धिक दांभिकता आदि सभी संकीर्णताओं को भेदता हुआ एक ऐसे स्तर पर उठ जाता है, जहाँ वह अकाट्य है।”12
निस्संदेह गाँधी अग्रसोची थे। एक राष्ट्र के भावनात्मक, वैचारिक, बौद्धिक, व्यावसायिक कार्य व्यवहार और सर्वांगीण विकास के लिए एक भाषा और एक लिपि के होने और उसे हिंदी एवं देवनागरी के रूप में स्वीकारने की अनिवार्यता मानने और उसपर बल देने के पीछे जो व्यापक दृष्टिकोण था उसे प्रांतीय संकीर्णताओं से मुक्त होकर ही समझा जा सकता है। गाँधी ही थे, जिनकी दृष्टि देश के आख़िरी आदमी तक जाती और उसके लिए हित-चिंतन करती थी। छात्र हों या किसान-मज़दूर या कि रियासत के राजकुमार; नेता, विद्वान, व्यापारी हों या कर्मचारी और अनपढ़ ग्रामीण स्त्री-पुरुष, हर एक के व्यक्तित्व विस्तार और सकल देश से जुड़ाव तथा सामूहिक शक्ति की समृद्धि के लिए उन्होंने एकमात्र भाषा–देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को सर्वशक्तिमती, जीवनदायिनी गंगा सदृश रूपायित किया।
यदि हम हिंदीभाषी अब भी अपने परिवेश में शिक्षा का दृढ़ माध्यम बन आई अंग्रेज़ी के चकव्यूह को भेद सकें और गाँधी की दृष्टि से हिंदी को देखे-परखें और उसके सहज-सरल रूप को अहिंदीभाषी क्षेत्रों में प्रसारित करके उसकी सेवा करें तो कोई भी स्थिति इतनी बुरी नहीं होती कि उसे सुधारा न जा सके, आवश्यकता केवल दृढ़ संकल्प लेने और उसे कार्यान्वित करने की है। यही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
संदर्भ:
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गाँधी और हिंदी: संचयन और संपादन–राकेश पाण्डेय, एनबीटी प्रथम संस्करण, पृ. 59
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वही, पृ. 7
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वही, पृ. 3
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मेरे सपनों का भारत: महात्मा गाँधी, पाठ-राष्ट्र भाषा और लिपि, राजपाल एंड संस। 2008, नवजीवन अहमदाबाद से . . . पृ. 173
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गाँधी और हिंदी: संचयन और संपादन–राकेश पाण्डेय, एनबीटी प्रथम संस्करण पृ., 26-27
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वही, पृ. 42
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वही, पृ. 43
-
वही, पृ. 49
-
वही, पृ. 44
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गाँधी और हिंदी राष्ट्रीय जागरण: डॉ. श्रीभगवान सिंह, विनायक एंड संस, प्रथम संस्करण 2012
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वही पृ. 62-63
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गाँधी और हिंदी: संचयन और संपादन–राकेश पाण्डेय, एनबीटी प्रथम संस्करण, पृ. 113
(गाँधी और हिंदी सृजन संदर्भ: संपादक–दयानिधि मिश्र; सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली, वर्ष-2020/ लेख–गाँधी की दृष्टि में हिंदी की महत्ता: आरती स्मित, पृष्ठ संख्या-50-60)
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