ख़ामोशी की चहारदीवारी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 Jun 2020 (अंक: 158, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
तुम्हारी ख़ामोशी की चहारदीवारी
अक़्सर बरजा करती है
उसके भीतर से लहकती
ज्वाला की लपटें
बेतरह झुलसा जाती हैं
हरियाली मन की!
तुम खोल क्यों नहीं देते
कोई एक सिरा?
यों आपस में जुड़े रहने की
विवशता तो न होगी
उन अभेद्य दीवारों को
जिन्हें तुमने ही खड़ा किया है
...
क्या तुम्हें भय था
चुप्पी के बिखरने का
जो उसे क़ैद कर दिया?
क्या तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रही
बरजने की कठोर ध्वनि
मानो ढहाकर ही मानेगी
सबकुछ तितर-बितर होने से
बचाने की तुम्हारी कोशिश
क्या कहूँ, कितनी नाकाम रही है!
काश!
तुमने क़ैद न किया होता उसे
बह जाने दिया होता
तो बच जाती हरियाली
बच जाते तुम
अपनी ही ज्वाला की झुलसन से!
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