तुम जैसी
अनूदित साहित्य | अनूदित कविता डॉ. आरती स्मित18 Jan 2018
छुटकी!
तू भी बड़ी हो गई!!
लील गई मुस्कान
भ्रमजाल फैलाती मर्यादाओं ने
भूल गई
तू भी थिरकना
मचलना और ज़िद करना
सभ्यता के आवरण में
संस्कार की बेड़ी से कसे स्वर
अवरुद्ध हो ही गए!
ओह!
छुटकी! तू क्यों बड़ी हो गई?
तुझमें जीती थी मैं
हाँ! जीती थी अपना बचपन
तेरे अल्हड़पन में
अपनी साँसें चुनती थी
तेरी कल्पनाओं में
अपने सपने बुनती थी
और जी उठता था
मेरा कोमल निसर्ग मन!
हाय!
खो ही गई खिलखिलाहट
और बाल सुलभ आमोद भी
अब हर घड़ी नीति उपदेश
हमारे आचार-व्यवहार पर
हमारी सोच,
हमारी आकांक्षाएँ
हमारी रुचि-अरुचि
हमारे निर्णय
हमारी अभिव्यक्ति
हमारे बढ़ते क़दम
अनायास
अनदेखी बेड़ियों की फाँस से
अब घुटने ही लगे हैं!
कहीं मुक्त हवा नहीं मयस्सर
काश!
तू कुछ और दिन जी लेती
अपना शापमुक्त जीवन
और तुझमें मैं भी!!
दीदी!
हम क्यों बड़ी होती हैं?
शालीनता, संस्कार
और पुरातन पीढ़ियों की
अवांछनीय परंपराओं को
अपने कमज़ोर कंधों पर उठा
हाँफने- काँपने के लिए;
सजीव उपादान का आकर्षक
मुखौटा पहनने के लिए;
स्वत: स्फूर्त प्रेम पर
पहरे बिठा
तन-मन नोचने-
खसोटने देने के लिए
आजीवन!
ओह दीदी!
राज़ तुम्हारी ख़ामोशी का
अब समझ पाई हूँ मैं!
तुम्हारे नीरव मौन में गुंफित
हाहाकार का पारावार
हाँ!
अब ही तो समझ पाई हूँ मैं!
पिता की इच्छा
भाई का निर्देश
माँ की विवशता और
तुम्हारे भावहीन चेहरे का राज़
अब ही तो समझ पाई हूँ मैं!
समझ पाई हूँ –
क्षत-विक्षत हृदय का
मूक क्रंदन
पराधीन सपनों की घुटन
और अवचेतन –सा
रेंगना तुम्हारा
पिता और भाई के इशारे पर।
हाँ दीदी!
अब ही तो समझ पा रही हूँ
कि मैं
तुम जैसी क्यों हो रही हूँ!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
कहानी
- अँधेरी सुरंग में . . .
- गणित
- तलाश
- परित्यक्त
- पाज़ेब
- प्रायश्चित
- बापू और मैं – 001 : बापू का चश्मा
- बापू और मैं – 002 : पुण्यतिथि
- बापू और मैं – 003 : उन्माद
- बापू और मैं–004: अमृतकाल
- बापू और मैं–005: जागरण संदेश
- बापू और मैं–006: बदलते चेहरे
- बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .
- बापू और मैं–008: मकड़जाल
- बेज़ुबाँ
- मस्ती का दिन
- साँझ की रेख
व्यक्ति चित्र
स्मृति लेख
पत्र
कविता
- अधिकार
- अनाथ पत्ता
- एक दीया उनके नाम
- ओ पिता!
- कामकाजी माँ
- गुड़िया
- घर
- ज़ख़्मी कविता!
- पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ
- पिता होना
- बन गई चमकीला तारा
- माँ का औरत होना
- माँ की अलमारी
- माँ की याद
- माँ जानती है सबकुछ
- माँ
- मुझमें है माँ
- याद आ रही माँ
- ये कैसा बचपन
- लौट आओ बापू!
- वह (डॉ. आरती स्मित)
- वह और मैं
- सर्वश्रेष्ठ रचना
- ख़ामोशी की चहारदीवारी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं