अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बापू और मैं–008: मकड़जाल


आरती स्मित 

“आँखों के आगे यह कैसा अँधेरा छा रहा है? क्या हो रहा है? देश की आबोहवा में यह कैसी दुर्गंध? कुछ लोग अपने-अपने आक़ा के कहे को ही ब्रह्म लक़ीर मानते और दिन को रात, रात को दिन मानने लगे हैं। उन्हें अपने विवेक के उपयोग से कोई सरोकार न रहा। मानवीय संवेदना अचेत पड़ी है। इतनी करुण, इतनी घृणित घटनाएँ निरंतर घट रही हैं, मगर देश की चेतना सुगबुगाती नहीं। कहीं हल्का-सा उबाल आता भी है तो वह भी राजनीति से प्रेरित होता है। उच्च वर्ग के गिने-चुने इक्के को तो ख़ुद को बैंक क्रप्ट घोषित कर, सरकारी साँठ-गाँठ से फिर कोई सरकारी सम्पत्ति कम मूल्य में ख़रीद लेने से फ़ुरसत नहीं है। अन्य को चुनाव में सहयोग के बदले अपनी उन वस्तुओं पर मूल्य बढ़ाने की खुली छूट मिली हुई है, जो आम समाज की ज़रूरत हैं। वे भी दो-दो को पाँच बनाने में लगे हैं। नौकरी करता आदमी जीएसटी और इनकम टैक्स की दोहरी मार सहता-कराहता हुआ घर से दफ़्तर, दफ़्तर से घर करते हुए बीच के फ़ासलों में चिंता की कई कड़ियों से गुँथी ज़ंजीर में कसा घसीटता रहता है। उसके लिए हर बुरी ख़बर ‘आह/ओह’ की प्रतिक्रिया तक ही प्रभाव डालती है। श्रमिक वर्ग की तो बात ही क्या! उसके लिए ख़बर कभी अचार की तरह चटकारा का तो कभी मिलकर कोसने का एक ज़रिया होती है। इन सबके बीच एक बड़ा हिस्सा बेरोज़गारों, तलवा सहलाकर अपना उल्लू सीधा करने वालों, गोरख़धंधा करके पैसा बनानेवालों और अपने लाभ के लिए किसी की ज़िंदगी तबाह करने वाले सफ़ेदपोश अपराधियों और उनकी छाँव में पलते छुटभैये से लेकर दुर्दांत अपराधियों का है। नशेड़ी-गंजेड़ी भी तो समाज के जिस्म पर एक धब्बा ही हैं और इन सबसे घिरी स्त्री का वह क़ाफ़िला है जिसमें हर उम्र की स्त्री, चाहे वह बच्ची हो या किशोरी; कुँआरी युवती हो या ब्याहता, यहाँ तक कि प्रौढ़ा भी—आज केवल कमर के नीचे और सीने पर जड़े अवयव के रूप में नज़र आती है जिसे नोच-खसोटकर समाज के हर वर्ग का विक्षिप्त कापुरुष अपने आपको दोपाया भेड़िया सिद्ध करने की होड़ में लगा है। इन पीड़िताओं की चीखें कई बार खूँखार दहाड़ों में दबकर रह जाती हैं तो कई बार प्रशासन एवं राजनीति के आश्रय में फलते-फूलते ऐसे अपराधियों के बचाव के लिए क़ानून को ताक पर रख दिया जाता है। क्या हुआ, क्या होगा संविधान में स्त्री अस्मिता की सुरक्षा के लिए बने नियमों का जब उसे तोड़ने-मरोड़ने वाले ही नियामक और रक्षक बने बैठे हों। वे सारे क़ानूनी नियम काग़ज़ों से निकलकर समाज के हर क्षेत्र—घर-बाहर—हर जगह लागू होता तो पिछले दस-बारह वर्षों में स्त्रियों के भीतर जितनी असुरक्षा पनपी है, वह न होती। हम किस पशुतर युग में आ गए हैं! बाsssपूsss! बेटियों के साथ घटती अमानवीयता से उपजी पीड़ा अब और नहीं सही जाती। बापू! कहाँ हैं आप? कहाँ ढूँढ़ूँ आपको?” 

बंद होंठों के भीतर गुहार गूँजती रही। आँखें लाल और सूजी हुईं। 

“अमानवीयता का यह कैसा नर्तन! हम किस भ्रष्ट, किस पतित कालखंड में जीने को विवश हैं! क्या इसलिए आप और आपके आह्वान पर हर समुदाय उठ खड़ा हुआ था? . . . बापू! कहाँ हैं आप? सामने क्यों नहीं आते? कुछ तो बोलिए बापू!” 

चेहरे से चिपकी आँखें सुबकती हुईं औंधे मुँह उस स्टडी टेबल पर पड़ गईं जो उसी खिड़की वाली दीवार से लगा था, जिस दीवार पर बापू की वही तस्वीर थी जिससे बापू जब-तब निकल आते और घंटों बातें किया करते थे, मगर आज तस्वीर में वह जान न थी। वह फ़्रेम में बँधी निस्तेज बेजान काग़ज़ का टुकड़ा मात्र बनी रही। नसों पर बढ़ते दबाव से चेतना सजग न रही। तंद्रा की-सी अवस्था कितनी देर बनी रही, पता नहीं। तंद्रा की अवस्था में ही चिर-परिचित आवाज़ कानों से टकराई। 

“विभाजन की घोषणा से लेकर जीवन के अंतिम साँस तक जो हताशा मेरा दम घोंटती रही, वही हताशा तुझ पर बिछी है।” 

“बापू!” स्वर गुँगुवाकर रह गया, बाहर न फूटा। 

“आँखें खोलो। आँखें खोलो बेटी!” 

स्वर क़दमों की आहट से तालमेल बिठाता मेरी तरफ़ आता हुआ पास, एकदम पास आ गया। स्वर फिर फूटा, 
“मानता हूँ, यह हताशा अधिक गहरी है। यह पीड़ा अधिक गहरी है क्योंकि पहले अस्मत पर चोट करने वाले या तो विदेशी हुए या विभाजनकाल में उठ खड़े वे दो विरोधी दल, जो अपने-अपने छुटभैये क़िस्म के आक़ाओं से लेकर किसी बड़े के हाथों सुलगाई नफ़रत और घृणा की भट्ठी में अपनी मानवीय संवेदना जलाकर वहशी बने थे। लेकिन, अब जबकि देश अमृतकाल का महोत्सव मना चुका, मना रहा है, फिर भी विषपान करने पर विवश और कमज़ोर दिख रहा है। इसकी आत्मशक्ति क्षीण हो रही है।” 

“बापू!” बंद होंठों के भीतर क़ैद स्वर फिर अकुलाया। आँखें बोझिल पलकों के भार से छटपटाती हुईं . . . पूरे चेहरे पर हाहाकार बरजता हुआ देखकर बापू ने सिर पर हाथ रखा, सहलाया, मूक सांत्वना दी मगर उनका स्नेहिल स्पर्श बोलता-बतियाता रहा और अचेत सा पड़ा मन भी सुनता रहा। 

“आँखें खोलो। यह समय शोक में डूबे रहने या सदमे में पड़े रहने का नहीं है। उठो! सोए को जागने, आँख वाले को भीतरी अंधेपन से उबरने, उनकी संवेदना पर लगाए ताले को तोड़ने, उसमें अचेत पड़े विवेक को बाहर निकलने में सहयोग देना है,” बापू सिर सहलाते हुए बोले। 
 
बमुश्किल आँखें खोलीं, बापू का स्नेह से छलछलाता चेहरा, वात्सल्य से डबडबाई आँखें मुझे देख रही थीं। अब तक चेतना सजग नहीं हुई कि बापू इतनी देर से खड़े हैं और मैं कुर्सी पर बैठी हुई। चेतना कौंधी तो झट खड़ी हुई। 

“बापू बैठिए न!” 

“आज तेरी चटाई कहाँ गई?” 

“यहाँ बैठिए।” 

“कुर्सी से तब नहीं बँधा, जब पंक इतना गहरा, इतना घातक नहीं था, तो अब क्या बँधूँगा! अब तो . . .” बापू मुस्कुराए। इस समय उनकी मुस्कान में दर्द की कई परतें जमी नज़र आईं। स्वर गीला-गीला-सा, समुद्र तट के रेत की तरह तो नहीं, नदी किनारे की मटियायी भूमि की तरह। 

“कहाँ चले गए थे?” चटाई बिछाते हुए मैंने पूछा। 

“बेटियों की चीख ने बहरा बना दिया था। उनके साथ हुए अनाचार ने . . .” बापू चुप हो गए। 

वाक्य अपने अधूरेपन को सिलता हुआ मुझ तक पूरा अर्थ पहुँचा गया। बापू को ग़ौर से देखा। आँखें भी गीली थीं मानो उसकी ज़मीन पर हो रही मूसलाधार बरसात अभी-अभी बंद हुई हो और अपने निशान छोड़ गई हो। 

“बापू! महोत्सव में काल के प्याले में अमृत नहीं विष भरा था, हाँ, दिखता अमृत था जिसने बड़ी संख्या में चेतना को मदांध कर दिया। संवेदना अचेत हो, नेत्र सच देख न सकें और झूठ की कलाबाज़ियों पर मुग्ध होने लगे, सद्बुद्धि पंगु कर दी जाए और उसे यह कहकर व्हील चेयर पर आदर के साथ बिठा दिया जाए कि अब चैन की बंशी बजाते हुए उसे आराम करना चाहिए तो शेष क्या रह जाता है? साँस लेते, चलते-फिरते पुतलों का विशाल समूह जो अपने आक़ा को भगवान माने बैठा है।” आवेग उठा और भीतर गुँगवाते स्वर बाहर बह निकले। 

“देवों की नगरी उत्तराखंड! मेरा प्यारा प्रदेश! जहाँ पहाड़ की पवित्रता अब तक मन-प्राण आनंद से भरती रही थी, वहाँ बेटियों के साथ इतने घृणित, इतने जघन्य अपराध! यों तो ये दोनों स्थल कई मैदानी बुराइयों को अपने भीतर भरते रहे थे, मगर इस रूप में!! बापू, सनातन धर्म और व्यापार का यह गढ़ अपने नैसर्गिक सौंदर्य के लिए मुझे प्रिय रहा। इसलिए भी कि उस धरती ने सबसे अधिक संन्यासी समूह को स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता देने की प्रेरणा दी। आपके एक आह्वान पर वे संन्यासीगण देश की ख़ातिर बलिदान की इच्छा लिए आंदोलनों में शिरकत करते रहे। आमजन की तो बात ही क्या! ऐसी गौरवशाली धरती पर कुकृत्य!” 
 
“कुकृत्य तो कहीं भी हो, उसकी कुरूपता लगभग वैसी ही रहेगी। मैंने हरिद्वार के कुंभ मेले में धर्म के नाम पर जो व्यापार, जो ढकोसला, जो संकुचित मानसिकता और बाहरी तौर पर जो गंदगी देखी थी, मुझे लगा था, मैंने आकर अपने पुण्य कर्म नष्ट कर दिए हैं और उसका प्रायश्चित भी किया। अपने दल के साथ सफ़ाई में जुटा रहा। लेकिन देहरादून और ऋषिकेश ने मुझे स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ मेरे बाक़ी आंदोलनों के लिए भी धन दान दिए। देहरादून की बहनों ने पहने ज़ेवर में से कुछ दिए तो ऋषिकेश के आमजन के साथ ही संन्यासी दल ने धनराशि भेंट दी। नमक सत्याग्रह में वे जेल भी गए। उन्होंने आंदोलन को मज़बूती दी। मधुर स्मृतियों की पोटली खुलकर यों बिखर जाएगी, सोचा न था। उन सब वीरों की आत्मा तड़पती होगी, बेचैन होगी। इस शर्मनाक दिन के लिए वे सत्याग्रही नहीं बने थे। उन्होंने इसलिए अँग्रेज़ों की यातनाएँ नहीं सही थीं कि कहीं बस चालक और उसके साथी दुष्कर्म करें तो कहीं सत्ता की शक्ति की छाया तले चरस-गाँजे से लेकर देह व्यापार का वर्षों से चलता धंधा फलता-फूलता रहे और देह व्यापार से इनकार करने वाली वह जुझारू बच्ची मन और देह की चोट सहती हुई जान से हाथ धो बैठे और स्थानीय पुलिस का काम करता पटवारी पुलिस थाने को ख़बर तक न होने दे।” 

“बापू! ये सब भीतरी साँठगाँठ का विद्रूप रूप नहीं तो और क्या है कि एक ग़रीब बाप की बेटी इज़्ज़त के साथ, श्रम की कमाई करके अपने असमर्थ माता-पिता की लाठी बनना और बने रहना चाहती है और उसे इसकी क़ीमत जान देकर चुकानी पड़ती है। पटवारी दोस्ती निभाता है और राजनीति की शक्ति तले सब जानते हुए भी गूँगा बन जाता है। जीती-जागती लड़की अकेली हुई नहीं कि दोपाए लोमड़ भेड़ियों में बदल जाते हैं। अगर आज़ादी के सतत्तर बरस बाद भी किसी भी उम्र की बेटियों की अस्मत की रक्षा में देश के कर्ता-धर्ता इतने असमर्थ हैं कि पिछले कुछ वर्षों में यह घिनौना अपराध अमानवीयता की सारी हदें पार करता हुआ, बार-बार हुंकार भर रहा है तो क्या इसका सीधा अर्थ नहीं कि देश के हुक्मरानों के लिए यह गहन चिंता का विषय ही नहीं है जबकि संविधान में स्त्री सुरक्षा एवं अधिकार के लिए कई क़ानून बने हुए हैं?” 

बापू स्थिर बैठे सुनते रहे। उनकी आँखों में रह-रहकर ज्वार उठता, फिर भी वे सूनी लगतीं। दृष्टि पथराई हुई। मन की हलचल उनके चेहरे पर उमगने लगी। होंठ हिले। अस्फुट स्वर सुनाई दिया। 

“संविधान ने इस देश के विकास के लिए जो सार्थक मार्ग बनाया, उसका पालन भी तो होना चाहिए। अगर व्यवहार में न उतारा जाए तो कोरा सिद्धांत शक्तिहीन होता है। सबसे बड़ी बात, जिनके लिए ये नियम बने हैं, क्या उन्हें इसकी थोड़ी भी जानकारी है? क्या न्याय विभाग और प्रशासन विभाग उस पर सख़्ती से अमल करता है? नहीं न!” 

क्षण भर को मौन हुए बापू के काँपते होंठ हिले और शब्द लहराए—“घुट रहा हूँ। लगता है, मेरे सपनों का भारत लोभ व स्वार्थ की प्रदूषित हवा और वासना के सड़न भरे वातावरण में घुटते-घुटते पूरी तरह मर जाएगा। इतनी बुरी स्थिति तो विभाजन के कारण उपजे दंगे की भी नहीं थी। तब भी स्त्रियाँ अपने समाज का सम्मान मानी जाती थीं; तब भी नफ़रत और स्वार्थ के बीच प्रेम, सौहार्द और परोपकार की भावना जीवित थी; संवेदना की नदी में हिलोरें उठती थीं; तब भी देश को सँवारने की ख़ातिर नेता और जनता ने मिलकर काम करने का संकल्प लिए थे और कई बार विरोधी दल भी जनहित के लिए एक बिंदु पर आकर मिल जाते थे। उनके बीच असहमति की खाई होती थी, मगर घृणा और नफ़रत की आग भड़का कर रोटी नहीं सेंकते थे। बावज़ूद इसके अपनी भारत माँ की देह और मन पर लगे घावों को सहता मैं चिंद-चिंद बिखर गया था। उन लुटी बच्चियों का यह बापू उन्हें हौसला देते हुए ख़ुद कई-कई मौत मर जाता था, मगर इस सदी में ऐसे-ऐसे अपराध! मैं . . .” 

बापू का कंठ रुँध गया। वे हौले से उठे और गली की ओर खुलते अधखुले दरवाज़े से निकल, बालकनी में जा खड़े हुए। उनकी दृष्टि थोड़ी देर पहले मुस्कुराते सूरज को निगलते बादलों से ढँके आसमान पर जाकर टिक गई। वे मौन खड़े रहे मानो वहाँ हों ही नहीं। मैं भी चुपचाप उनके समीप खड़ी हो गई। बापू की पीठ थरथरा रही थी। बिना ध्वनि फूटे उस आर्त्तनाद की साक्षी मैं सोच में डूबती-उतराती रही। 

‘पिछले एक दशक में अलग-अलग प्रदेशों की स्त्री के साथ जितने जघन्य अपराध हुए, उनके अपराधियों को फिर भी नपुंसक बनाने के दंड का प्रावधान क्यों नहीं किया जा रहा है? उनके लिए परिवार, समाज से सम्बन्ध विच्छेद और यदि परिवार उसके अपराध में साथ देता है या चुप्पी साधे है तो ऐसे परिवार को समाज द्वारा बहिष्कार एवं रोज़गार के सारे अवसर ख़त्म करने सहित इतने कड़े दंड की व्यवस्था क्यों नहीं की जा रही है कि नशे में भी कोई ऐसे घिनौने अपराध करने की न सोचे। उन्हें उनके कुकर्म के बाद सफ़ाई पेश करने के लिए वक़ील रखने की सुविधा देना या यौन शोषण के क्रूर अपराधी के नाबालिग़ होने के बिंदु पर विचार करना आज के समय और परिवेश में कहाँ तक उचित है? इस तरह तो धनिकों और समाज को भयभीत करने वाले अपराधियों का मनोबल ऊँचा रहेगा क्योंकि ग़रीब और सीधी राह चलनेवाला समाज ही आज कमज़ोर माना जाता है।

‘स्वतंत्र देश की आंतरिक स्थिति ऐसी होगी, हम में से किसी ने भी कहाँ सोचा था! चरित्र में इतनी गिरावट की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, चाहे वह किसी दल का समर्थक हो या न हो। भारतीय चरित्र उसकी आध्यामिकता में प्रतिबिंबित होता था। आध्यात्मिकता का अर्थ समाज से टूटकर ईश्वर-चिंतन में लीन रहना नहीं है, समाज को उसके नैतिक गुणों के साथ ही भौतिक एवं आत्मिक स्तर पर ऊँचा उठने में सहयोग देना है, फिर चाहे वह संन्यास धारण करके हो या गृहस्थ होते हुए भी संन्यासी-सा जीवन . . . वृहत्त समाज की भलाई के लिए कर्मरत व्यक्तित्व भारतीय समाज की शक्ति थे . . . और आमजन की प्रेरणा भी। 

‘बापू आप तो गोली खाकर देहमुक्त हो गए। मगर स्वतंत्र देश में भ्रष्टाचार ने जिस तरह अपने पैर फैलाए, क्या आपको नहीं लगता कि राजे-रजवाड़े के ना रहने पर भी सामंती बुद्धि का नाश नहीं हुआ बल्कि स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने की प्रवृत्ति हर वर्ग में घर करने लगी? सोचती हूँ, क्या पंत जी की उक्ति—‘योनिमात्र रह गई मानवी’ उनकी भविष्यवाणी थी? क्या भारतीय पुरुष समाज का एक बड़ा हिस्सा नीत्से के कथन का समर्थक है कि ‘औरत की हर चीज़ एक गुत्थी और पहेली है। औरत के सौ मर्ज़ों का सिर्फ़ एक इलाज है और वह है उसे गर्भवती कर डालना’। मगर नीत्से के कथन का लक्षणार्थ यह बिल्कुल नहीं लगता कि स्त्री को कमज़ोर बनाने के लिए उसका पारिवारिक/सामाजिक यौन शोषण होना जायज़ है। कितनी दुःखद स्थिति है! पीड़िता के परिवार को न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं। कई बार तो न्याय की गुहार तक दबा दी जाती है। और कई बार पीड़िता के परिवार को ही फँसा दिया जाता है। घटना देश के किसी कोने की हो, झेलता निम्न और मध्यवर्ग ही है। एक दशक से भी अधिक समय से तड़पते बंगाली दंपती की पीड़ा कम की जा सकती है क्या, जिनकी किशोरी बेटी को सीबीआई भी न तलाश सकी और बाद में किसी अन्य युवा और हट्टे-कट्टे पुरुष के कंकाल को उनकी किशोरी बेटी का कंकाल होने और डीएनए मिलने की मुहर लगाकर केस बंद कर दिया। ऐसे कितने ही मामले हैं जिन्हें ऊपरी दबाव में दफ़ना दिया जाता है। संत तुलसी साहिब के विचारों की किरणें छिटकाती वह छोटी-सी जगह ग़रीब बेटी के साथ हुई नृशंसता और परिजनों पर हुए अत्याचार की साक्षी बन गई। पीड़िता ग़रीब, अनपढ़ और चौथे वर्ण की हो तो ऐसे परिवार को डरा-धमका कर बयान बदलवाने का खेल पुराना है। पुलिस बहुत कुछ जानती है, बहुत कुछ उसकी पहुँच से बाहर कर दिया जाता है और वह दोनों तरफ़ से चोट सहती है। जनता का आक्रोश भी और ऊपर का दबाव भी। इससे बुरा और क्या होगा कि पुलिस ख़ाकी वर्दी पहनते समय जो शपथ लेती है, वह ऊपरी दबाव में चिंद-चिंद हो जाती है। रक्षा तंत्र का जो हिस्सा गुंडों, धनिकों और राजनीति के सिरमौरों से लेकर पिट्ठुओं तक का पिछलग्गू बनकर रह जाता है, उनमें से कुछ मामलों में पुलिस अधिकारी ख़ुद नीचता पर उतर आता है तो उसके मातहतों को भी अंधे कुएँ में छलाँग लगाने का अवसर मिल जाता है। जो ईमानदार और उसूलपसंद पुलिस अधिकारी हैं, उनके लिए तबादले की चिट्ठी जब-तब तैयार रहती है। वर्तमान राजनीति से जुड़े लोगों, विशेषकर जिनके हाथ में बागडोर है, उनके परिवार को मानो कुकृत्य का अधिकार मिला हो। जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है, किसलिए? इसलिए कि उनकी शह पर निरीह जनता भुक्तभोगी हो? क्या ऐसे प्रतिनिधि से तत्काल इस्तीफ़ा देने का आदेश ज़ारी नहीं होना चाहिए? ऐसे अपराध में लिप्त परिवार के किसी भी सदस्य के लिए राजनीति में प्रवेश वर्जित नहीं होना चाहिए? फाँसी तो मुक्ति है, चाहे वह जाहिल अपराधी द्वारा किया गया अपराध हो या तथाकथित शिक्षित और शक्तिशाली द्वारा, उसका दंड भी उतना ही जघन्य हो, जैसा उसने किया . . .’

“कहाँ खो गई?” 

“अंss कहीं नहीं बापू!” 

मैं उनकी आवाज़ सुनकर अपने ही भीतर की भटकन से बाहर आई। दिमाग़ अब भी सोच का सिरा थामे रहा। 

‘बीस वर्ष पहले अपने देश को छोड़कर मस्कट जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था जबकि उस समय यहाँ से दस गुना वेतन पाती। उस समय देश की भीतरी हवा में हर क़ौम के लिए आदर का भाव था। घूरने वाले लोग तब भी थे, मगर उससे अधिक की हिम्मत वे नहीं कर सकते थे। बच्चियाँ मुहल्लों में खेलती थीं, मुहल्ले के बड़े लड़के भैया होते थे। भय का ऐसा वातावरण न था। स्कूल-कॉलेज के शिक्षक, प्राचार्य से इस तरह की ग़लीज़ हरकत की उम्मीद ही न की जा सकती थी। हज़ार में से कोई एक मामला हो तो हो, एकाध मैंने भी सुना था। जो हो, उस वक़्त गर्व से प्रस्ताव ठुकराया था कि धन के लिए अपनी मिट्टी से दूर नहीं जाना है। आज! आज तो चारों ओर सियारों, लोमड़ों और भेड़ियों के घात की आशंका होती है।’

“तेरे भीतर ये कैसी आँधी चल रही है?” 

“बापू! राजेंद्र यादव यों तो हमेशा विवाद में रहे, मगर उन्हें स्त्री विमर्शकार भी माना गया। उनकी कही बातें दिमाग़ में मँडरा रही हैं।” 

“मैं भी तो सुनूँ इस स्त्री विमर्शकार की बातें . . .” 

“उनका कहना था, ‘पुरुष स्त्री को सिर्फ़ शरीर या उसके कुछ अंगों को ही उसकी पहचान के रूप में देखने की ज़िद में रहता है। लेकिन जब स्त्री स्वयं को इस रूप में मानने लगती है तो बौखला उठता है’। वे तो यहाँ तक कहते थे कि पुरुष ने स्त्री में यह भावना कूट-कूटकर भर दी है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ शरीर है . . .’। ऐसी कितनी ही बातें उन्होंने कही हैं।” 

“तुमने लॉरेन्स को भी तो पढ़ा होगा? उनके विचार याद रखो—‘स्त्री न मनोरंजन का साधन है, न ही पुरुष की वासना की शिकार। वह व्यक्ति की चाह की वस्तु नहीं, बल्कि वह तो पुरुष का दूसरा ध्रुव है। उसका अस्तित्व पुरुष का अनिवार्य सूचक है’। तुम्हारी बा मेरे लिए ऐसी ही थी—मेरे अस्तित्व का अनिवार्य हिस्सा।” 

“बापू! मन अशांत है; विह्वल है। धर्मनगरी में चरण रखते ही मन आत्मिक शान्ति की उम्मीद करता है, कई जगह शान्ति मिलती भी है। उत्तराखंड में ऐसे कई प्रिय स्थल हैं। मध्य प्रदेश में भी। ऐसी ही पवित्र धार्मिक स्थली को अपवित्र करने, सरे आम स्त्री अस्मिता की धज्जी उड़ाने वाले वाले उस रेहड़ीवाले के मन में ज़रा भी भय नहीं उपजा। संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा अब और क्या होगी! लोग देखते हैं, वीडियो बनाते हैं, मनचलों के लिए मुफ़्त का मनोरंजन है। किसी को कुछ ग़लत नहीं लगता! लड़कियों से छेड़छाड़ और अंग स्पर्श में सुख पाने वालों के होश फ़ाख्ता न हो जाएँ अगर यहाँ भी ऐसे मनचलों के साथ पुलिस सख़्ती करे। 

“और कोलकाता ने तो चेतना को ही भोथरा कर दिया। आपको नहीं लगता, अस्पताल हो या रेज़ोर्ट, गोरखधंधे किसी एक के हाथ से नियंत्रित भले हों, मगर अकेला व्यक्ति ग़लत कामों को पूरी तरह अंजाम नहीं दे सकता? कई एक चेहरे होते हैं। खाल पहने चेहरे। लड़की के साथ हुई वारदात ने उस गैंग के कई अपराध को उजागर कर दिया। कई सिले होंठ फूट पड़े और सच बह चला। एक वक़्त था जब डॉक्टर का पेशा सबसे अधिक पवित्र माना जाता था . . . ” 

“पेशा आज भी पवित्र है।” 

“आपको नहीं लगता, पेशे में आनेवाले कुछ हाथ भले ही पहले से ख़ून भरे न हों मगर दिल की गहराई में मानव सेवा की वह पवित्र भावना भी नहीं होती और उस पर ऊँची कुर्सी मिल जाए तो बुरे मंसूबों को फलने-फूलने के लिए तैयार ज़मीन मिल जाती है? एक अपराध छिपाने के लिए व्यक्ति सौ अपराध कर बैठता है। मगर स्त्री की देह को दरिंदगी के साथ शिकार बनाना . . . उनकी रूह नहीं काँपती?” 

“नहीं काँपती तभी तो ऐसे घृणित कार्य करते हैं। मरीज़ को ग्राहक समझते हैं और उससे धन की वसूली का कोई अवसर नहीं छोड़ते। मानव-अंग का व्यापार करनेवाला व्यक्ति हैवान ही हो सकता है। धन का लोभ जो न कराए! ग़लत तरीक़े से कमाया गया धन मन में कुत्सित भाव और विचार ही तो उपजाएगा। ऐसे लोगों को अपना पतन दिखाई नहीं देता है। इनकी स्थिति और नियति भस्मासुर जैसी है। वैसे, सरकारी अस्पतालों में इसकी गुंजाइश नहीं होगी, ऐसा मुझे लगता है। हालाँकि आए दिन हर ऐसे विभाग की ख़बरें चौंकाती हैं। जब पैरवी और अधिकार का दुरुपयोग तेज़ी से होने लगे तो फिर कोई भी विभाग हो, अयोग्य की बहाली भविष्य में उस संस्थान के स्तर में गिरावट लाने का ज़रिया बनती है। दूसरी तरफ़ मेहनतकश बच्चे को उचित स्थान नहीं मिल पाता है। शिक्षण संस्थानों की अभी भीतरी हालत क्या है, तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है!” 

“हाँ बापू! सो तो है। बड़े शहरों के कई सरकारी अस्पतालों में अच्छे ईमानदार डॉक्टर हैं भी तो वहाँ आधुनिक यंत्रों और रखरखाव की कमी है। छोटे शहरों में तो सरकारी डॉक्टर अपनी अलग दुकान खोले बैठे हैं। उनसे जनसेवा की उम्मीद करना व्यर्थ है। इतना ज़रूर है कि वे ऐसे अपराध के लिए सोचने की हिम्मत नहीं करते। अस्पतालों में उपकरणों/दवाओं की ख़रीद पर प्रबंधन विभाग में ऊपर से और ऊपर तक खाने वाले मंत्रालय के लोग बैठे हैं, उन्हें न मरीज़ों की चिंता होती है, न ईमानदार डॉक्टर की चिंता की परवाह। लॉक डाउन ने कई जगहों की पोल खोल दी।” 

“तुम्हारे यहाँ तो सब ठीक-ठाक है?” 

“यहाँ भी दोनों तरह की व्यवस्था देखी है। राजधानी की अलग, राज्य की अलग। इतना ज़रूर है कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर अपने पेशे के प्रति ईमानदार और एक सीमा तक समर्पित हैं। ‘न ऊधो का लेना न माधो का देना’ वाली तर्ज़ पर। यदि राजधानी के अस्पतालों में संसाधन बढ़ा दिए जाएँ, अस्पताल की भीतरी-बाहरी हालत सुधार दी जाए और कुछ नए कमरे जोड़ दिए जाएँ तो सचमुच बड़ी राहत होगी। मेडिकल छात्र/छात्राएँ शोषण से बच जाएँ, इसके लिए भी निजी अस्पतालों की बढ़त रोकना ज़रूरी है। मगर बापू यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है। आज़ादी से लेकर अब तक जो सुविधाएँ सरकारी तौर पर मुहैया करवाई गई थीं, सब एक-एक कर उन्हीं हाथों में बेची जा रही हैं, जिन हाथों में बैंक क्रप्ट का लेबल लगा कटोरा है। सागर तट से लेकर खेत, जंगल, पहाड़ . . . सब कुछ। जो बची हैं, उनकी भीतरी हालत जानबूझकर ख़स्ता रखी जा रही है। पूरे देश में आमजन के लिए हालात कितने रूपों में प्रतिकूल हुए जा रहे हैं, यह तो उन-उन जगहों पर जाने और चोट खाए लोगों की पीड़ा सुनने के बाद पता चलता है। क्या-क्या बताऊँ!” 

“आज दर्द का यह कौन-सा पिटारा खोल लिया है?” 

“इसके कितने ही रंग हैं बापू, हर एक की अपनी अलग ही टीस।” 

“एक साथ सबको भीतर उतारे बैठी हो, जियोगी कैसे?” 

“जैसे आप जीते रहे। और देह छोड़कर भी अपनी धरती की पीड़ा से चैन नहीं पा रहे हैं।” 

“सच है। कैसे कहूँ कि भारतमाता की यह दशा मुझे बेचैन नहीं करती है! उनकी अस्मिता ख़तरे में दिखाई नहीं देती! जिस स्वतंत्र धरती पर स्त्री अपनी देह के प्रति अपने ही आसपास के पुरुषों से भयभीत होकर पल-पल जिए; जिस धरती पर वह अपने घर, गली-मुहल्ले, सड़क, स्कूल-कॉलेज, कार्यक्षेत्रों में अपने वरिष्ठ और सहपाठियों/सहकर्मियों की अमानवीय क्रूरता सहे; जहाँ अपनी धरती की परिधि के भीतर स्त्री जाति को अकेली देखते ही अजनबी चेहरों पर भेड़ियों की आँखें, लोमड़ का मन और चीते का नाख़ून उग आएँ, वह धरती स्वतंत्र नहीं मानी जा सकती। यह तो भारतमाता का दैहिक शोषण, मानसिक उत्पीड़न और हत्या करना हुआ।” 

“बापू! पिछले बारह वर्षों में ऐसी कितनी ही दर्दनाक चीखें गूँजीं। पिछले आठ-नौ वर्षों में उन दुर्घटनाओं की संख्या पूरे देश में तेज़ी से बढ़ी। वासना के वशीभूत होकर या अपने अन्य अपराध छिपाने के लिए स्त्री देह पर सामूहिक आक्रमण, उसके तन पर अपनी क्रूरता के निशान छोड़ना और अंत में जीवनलीला ही समाप्त कर देना देश के माथे पर लगा ऐसा कलंक है जो इतिहास के पन्नों पर भले ही दर्ज़ न होने दिया जाए, मगर फिर भी यह काला कालखंड चीखेगा। चीखता रहेगा। आप देखें, बिहार में कहीं किशोरी के साथ रोम-रोम सिहरा देनेवाली क्रूरता बरती गई, उत्तर प्रदेश मार्ग में कहीं मनचलों की छेड़खानी के कारण गाड़ी पलटी और देश ने प्रतिभाशाली बेटी खो दी, तो कहीं मनचलों ने परिवार वाले को ही गोली मार दी। केरल की घटना ने तो चौंका ही दिया। केरल का स्थानीय पुरुष समाज आज भी स्त्रियों का सम्मान करता है। दक्षिण भारत के किसी भी हिस्से में ऐसे घृणित अपराध कम होते हैं। दक्षिण भारत और आदिवासी बहुल इलाक़ों में दूसरे राज्यों से आकर रोज़गार करनेवालों द्वारा कुकृत्य करने की संख्या भी बढ़ती जा रही है। एक निर्भया से जो ख़ून भरी तारीख़ की शुरूआत हुई, उसके बाद कई निर्भया उस आग में झुलसती रहीं। न्याय के समय अपराधी की उम्र देखते हैं, ये नहीं देखते कि वह कितना दुर्दांत है। बापू, कहीं से कोई ज़वाब नहीं मिलता कि और कितनी निर्भयाएँ इस धरा को ख़ून के आँसू सौपेंगी! आज कुछ लोगों के लिए जघन्य अपराध करना बच्चों का खेल हो गया है। मणिपुर की हालत बद से बदतर होती जा रही है। झारखंड की स्थिति भी गहरी सोच में डालती है। सीमोन कहती थीं, ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं’। मुझे भी ऐसा लगने लगा है। यहाँ मुझे मैत्रेयी पुष्पा के विचार भी सार्थक लगते हैं कि ‘अपनी ज़िंदगी के बारे में अपने फ़ैसले का हक़ पाकर स्त्री एक विवेकी और स्वाधीन जीव हो सकती है’। और पुरुष समाज—विशेषकर हमारी मातृभूमि का उत्तर और मध्य हिस्सा तो ऐसी संकीर्ण मानसिकता का पोषक है जो चाहता है जन्म से मृत्यु तक स्त्री उनकी पसंद को ही ओढ़े-बिछाए। हालाँकि अपवाद हर युग में, हर स्थान पर रहा है।” 

“जैसे कि?” 

“जैसे कि कोलकाता की वीभत्स घटना के मूल में वासना नहीं, छात्रा द्वारा सफ़ेदपोश अपराधियों के अन्य अपराध को उजागर किए जाने की धमकी के एवज़ में अपराधी सरगना द्वारा बुनी गई सज़ा है जो हैवानियत का जीता-जागता उदाहरण बन गया। नहीं तो पश्चिम बंगाल, विशेषकर भारतीय बंगाली समाज के पुरुष के स्वभाव में स्त्री के प्रति आदर और सम्मान का भाव निहित होता है। वे प्रेम करते हैं, किन्तु वासना का गंदा खेल नहीं खेलते। बलात् तो बिलकुल नहीं। स्त्री आज भी उनके लिए देवी का रूप है। वे देश के किसी कोने में रहें, उनके स्वभाव की कोमलता और स्त्री के लिए आदरभाव समान रहता है। बांग्लादेशी बंगाली का स्वभाव अलग होता है। कोलकाता में दशकों पूर्व आकर बसे उन शरणार्थी ढाका बंगालियों की संख्या बहुत अधिक है जिनके स्वभाव में अलग तरह की कठोरता दिखती है और शायद इसलिए स्थानीय बंगाली भी एक दूरी बनाकर रखने में अपनी भलाई समझते हैं।” 

“इस ओर मैंने गहराई से विचार नहीं किया था, लेकिन तुम्हारी दृष्टि से उस समाज को देखने पर नई-पुरानी कई परतें खुलती जाती हैं। यह भी सच है कि मेरे लिए कलकत्ता क्रांतिवीरों की धरती रहा जहाँ कुछ आपराधिक तत्त्व स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी दंगा भड़काने की साज़िश रचते रहे। धरती ख़ून से रँगी भी, मगर किसी बहू-बेटी की अस्मत पर किसी ने हाथ नहीं डाला था। यह था उस माटी का संस्कार। इसलिए इस बच्ची के साथ हुए अपराध ने मुझे . . .” बापू का गला फिर रुँध गया। 

“बापू! क़ानून बना देने भर से क्या होगा? मैंने भी लॉ की पढ़ाई की, आपने प्रैक्टिस भी की। आपको तो याद होगा कि भारतीय दंड संहिता 292 से 294 में स्त्री कि विरुद्ध अश्लील व्यवहार करने पर दंड का प्रावधान है। यौन अपराध के लिए धारा 375-376 में दंड के कड़े प्रावधान हैं। धारा 497 के अनुसार, कोई महिला व्याभिचार की दोषी नहीं हो सकती मगर व्यवहार में क्या है? पुरुष की ओर से तलाक़ की अर्ज़ी के मामले में महिला से ओछे सवाल पूछे जाते हैं, उस पर व्याभिचारी होने का दोष मढ़ने में वक़ील मंदिर में पूजा करने जैसा सुख पाते हैं। झूठ बोलते और स्त्री का अपमान करते उनकी जीभ कटकर नहीं गिरती। यौन शोषण के बाद पीड़िता से क्या कम वाहियात सवाल पूछे जाते हैं! ख़ासकर पीड़िता ग़रीब और अपराधी दबंग हो तो वक़ील काले कोट में छिपे लोमड़ नज़र आते हैं। हमारे संविधान में तो इस बात तक का भी ध्यान रखा गया कि महिला से छेड़छाड़ करने वाले के लिए भी धारा 354 के तहत दंड का प्रावधान है और धारा 509 के तहत पुलिस में इसकी रिपोर्ट लिखाने की सुविधा दी गई है। मगर आप देख रहे हैं न, छेड़छाड़ की घटना से किसी के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। कई बार थाने जाकर रिपोर्ट लिखाने में सौ-सौ मौत मरने जैसी स्थिति से स्त्रियों को गुज़रना पड़ता है। सच तो यह है नेताओं और शक्तिशाली अपराधियों के हाथ कठपुतली बनी पुलिस की ख़ाकी वर्दी आमजनता को बल नहीं देती, बल्कि डराती है। ऐसा नहीं है कि हर जगह पूरा विभाग ही चौपट है, मगर ज़्यादातर तो ऐसे ही सच उजागर होते हैं। कुछ भयावह सच भी। 

“जब प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था इतनी लचर हो कि शक्तिशाली अपराधी के अपराधों के पुख़्ता सबूत मिटाए जा सकने तक मामला किसी न किसी कारण से लंबित हो, चाहे वह मेडिकल जाँच की बात हो या अन्य वजह; जब जज पर राजनीतिक दबाव हो, जब पुलिस या तो लाचार या बिकी हो, जब शिक्षण संस्थान राजनीति का अखाड़ा बन जाए, जब देश की यथार्थ अस्मिता और गरिमा की जगह क़ौम की रक्षा का मिथ्या अहंकार विवेक मिटा दे, जब कुछ शिक्षक ही छात्राओं के प्रति बुरी भावना रखने लगें, जब पुलिस और चिकित्सा विभाग में कर्मरत स्त्री भी सुरक्षित न हो, जब पत्रकारिता की दुनिया में लोभ, भय, अज्ञान, प्रमुख सरोकारों से जनता को गुमराह करने की रणनीति और तलवा चाटने की प्रवृत्ति घर बना ले तब वहाँ यह मान लेना ग़लत न होगा कि अब भारत माता नहीं रही, उसके स्त्रीत्व को कुछ विशेष पुरुष समाज ने डँस लिया है। अब यह देश केवल भारत है। एक पुरुष! एक जर्जर तन वाला पुरुष जिसके उत्तराधिकारी स्त्री शोषण और हिंसा को अपनी परंपरा के विकास-पथ की एक ईंट मानते हैं।

“बापू! आज सम्बन्ध कितना छिछला होता जा रहा है! दबाव में बँधे सम्बन्ध यों भी भयावह परिणाम ही देते हैं। यह जीवन-मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं के लोप का चरम नहीं तो और क्या है कि कहीं माँ अपने प्रेम प्रसंग छिपाने के लिए नन्ही बच्ची की हत्या कर रही है, कहीं आवेश में आकर पति पत्नी का गला रेत रहा है। कहीं पिता बेटी के प्रेम प्रसंग के विरोध में उसके टुकड़े कर डालता है, तो कहीं पत्नी पति की हत्या कर रही है। ये तो मानसिक विकृति से पोषित ऐसे अपराध हैं, जिनके बारे में कोई पहले से अनुमान भी नहीं लगा सकता। जानना तो दूर की बात है।”

“समझ में नहीं आता कि इसे पाप की किस श्रेणी में रखें? पश्चिम में ऐसे अपराध सुनने को नहीं मिलते, तब भी नहीं देखा-सुना, जब वर्षों उनके बीच रहा। मैं बाहर से जाकर बसे प्रवासियों की बात नहीं कहता, उसी मिट्टी से जिनकी सात पुश्तें जुड़ी रही हैं, उनकी बात कहता हूँ। मैं पश्चिम का अंधानुकरण कभी पसंद नहीं करूँगा, लेकिन जो अच्छा है, इसकी प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए और सीखने में भी कोई बुराई नहीं है। वहाँ सम्बन्ध बोझ की तरह ढोए नहीं जाते। एक उम्र के बाद हर कोई अपना वर्तमान और भविष्य अपनी इच्छा के अनुरूप सँवार सकता है। स्त्री का सम्मान पुरुषों के लिए पहला सबक़ है। इसलिए केवल माँ ही नहीं, पत्नी, बेटी, मित्र, सहकर्मी, प्रेमिका—सबके प्रति आदर भाव उनके मन में होता है। वे जब तक साथ होते हैं, एक-दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित होते हैं। विश्वास की मज़बूत डोर में बँधे हुए। जब भावना या विचार में अलगाव होता है तो वे देह से भी अलग हो जाते हैं। इस तरह, शक-शुबहा की उस घुटन, उस मानसिक विक्षिप्तता से बच जाते हैं, जिनके कारण ऐसे अपराध घटित होते हैं।” 

 बापू बोलते-बोलते अचानक चुप हो गए, मगर उनके चेहरे से लग रहा था, वे किसी बिंदु पर मनन कर रहे हैं। मैं उन्हें देखती हुई इंतज़ार करने लगी, शायद वे आगे और कुछ कहें। दिन का तीसरा पहर भी आधी यात्रा कर चुका तो आसमान ने भी रंग बदला। बादलों की खरगोशदौड़ शुरू हुई तो छिपा सूरज बाहर निकल आया। मगर आज धरती को तपाने का उसका विचार नहीं था तो धूप नरमी लिए रही। 

मेरी बालकनी मेरे हिस्से का आसमान दिखाने में असमर्थ होती हुई अक्सर अपनी दृष्टि मुझे सौंपती है और मैं सामने क़तार में खड़े चार मंज़िले-पाँच मंज़िले भवनों के बीच एक प्यारे मकान की मुस्कुराती छत के ऊपर टँगे आसमान का वह नन्हा टुकड़ा देखती हुई उसकी आँखों में सँजो देती हूँ। आज मेरे साथ बापू भी उस नीले शून्य में विचरते रहे और अपनी धरती की अस्मिता पर लगातार हो रहे चोट को, उसकी टीस को भोगते हुए मौन रहे। 

“क्या सोच रहे हैं बापू?” समय के एक बड़े हिस्से को मौन के गर्भ में चुपचाप समाते देखकर आख़िरकार मैंने टोका। 

“जिसे मैंने हमेशा किशोर और युवा मन की कमज़ोरी माना और आत्मसंयम की सलाह दी, जबकि बढ़ते बच्चों में परस्पर आकर्षण जिन्हें वे प्रेम समझ बैठते हैं, बदलते हार्मोन के कारण बदलते मनोभाव की एक प्रक्रिया है और ऐसे आकर्षण स्वाभाविक हैं, मगर कई बार वे आत्मसंयम खोने लगते हैं। आत्मसंयम विद्यार्थी जीवन के लिए अनिवार्य है और . . .” उन्होंने लंबी साँस ली। “और इसलिए मेरे आश्रम में जब ऐसी एक बात हुई और मुझे पता चला तो उन दोनों को दंड देने के बदले मैंने स्वयं को दंड दिया। उपवास रखा। वे बच्चे मेरे दंड भुगतने से पछताए और आत्मसंयम का व्रत लिया। इससे बाक़ियों को भी सबक़ मिल गया। फिर कभी किसी ने मर्यादा की रेखा नहीं लाँघी। पश्चिम में दैहिक सम्बन्ध तब तक अपराध नहीं माना जाता जब तक ज़बरदस्ती न की गई हो। चूँकि स्वतंत्रता है तो दोनों की सहमति का सम्मान होता है। अब तो यहाँ भी ‘लिव इन रिलेशन’ को मान्यता मिल गई। 

“तुम ध्यान दो तो पाओगी कि भारतीय परम्परा में जीवन को चार भागों में बाँटकर जो नियम बनाए गए, वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी उचित हैं, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विकास उन्नति के लिए भी आवश्यक, किन्तु हम भारतीयों में से कुछ ख़ास स्थान के पुरुषों ने सारी मर्यादाएँ स्त्रियों के नाम कर दीं। अपने आपको मुक्त रखा। परिणाम दोनों रूपों में बुरा रहा। आज किशोरियों/युवतियों या स्त्रियों की मनोदशा में जो बदलाव आए हैं, उसमें भी कहीं न कहीं पुरुष का एक वर्ग ही अपनी रोटी सेंक रहा है। स्त्री किसी भी आयु-वर्ण या वर्ग की हो, उसकी अस्मिता, उसकी निजी पहचान, उसकी गरिमा उतनी ही मूल्यवान है जितनी पुरुष की, बल्कि उससे कहीं अधिक। स्त्री को देह मात्र मानना, सृष्टि का अपमान है। यह बात दोनों को याद रखनी चाहिए। स्त्री आत्मशक्ति के विकास पर ध्यान दें। याद रखें कि वह समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।” 

“बापू! क्या आत्मशक्ति से भरी लड़कियों के साथ ग़लत नहीं होता? जितने वीभत्स कांड हुए, सबने यही साबित किया कि उन निर्भयाओं ने संघर्ष किया और इसलिए अधिक क्रूरता की शिकार हुईं। सवाल की सूई घूम-फिर कर वहीं आ रुकती है कि ऐसे विक्षिप्त अपराधियों की बढ़ती संख्या को रोकने की शक्ति जब क़ानून के पास है, तो वह अपनी शक्ति क्यों नहीं बढ़ा रहा है? हुक्मरान संविधान में ऐसे-ऐसे नियम जोड़-घटा रहे हैं, जिनसे आम समाज को कोई लाभ नहीं, मगर जो घातक स्थिति है, उसके लिए अपराधी की रूह कँपा देने वाले नियम क्यों नहीं बन रहे हैं? क्यों ग़रीब बेटियों पर हुई वहशियत की ख़बर जल्दी बाहर नहीं आती और उन्हें समय से न्याय नहीं मिलता? स्त्री अस्मिता, उसके आत्म सम्मान की रक्षा के लिए हमारी न्यायिक व्यवस्था कब सुदृढ़ होगी? कब तक राजनीतिक पार्टियाँ अपनी ही धरती, अपनी भारतमाता की नोंची जा रही देह पर वितंडा खड़ा कर जनसमूह को भरमाती और अपना स्वार्थ साधती रहेंगी?

“मेरे सपनों का भारत है कहाँ जो मैं ज़वाब दे पाऊँ। उस भारत में सरकार का अस्तित्व एक समय के बाद ख़त्म करके उसे सेवक होना था। शक्ति आमजन के हाथ होती—स्त्री के हाथ होती, किसान मज़दूर भाई-बहनों के हाथ होती। श्रम की पूजा होती और पूँजीवाद को बढ़ावा न मिलता तो वर्ग-वर्ग का फ़ासला न बढ़ता। अब क्या कहूँ, जब उन्हीं लोगों के हाथों अपने आपको, अपने नाम को उनके निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होते देख रहा हूँ जो मेरे सारे जीवन-दर्शन को नष्ट कर रहे हैं, जो झूठ, फ़रेब का ताना-बाना बुनते हुए जनमानस को हिंसा का पक्षधर बना रहे हैं। जब मैं उनके इरादे जानकर भी इतिहास से सच मिटाए जाने पर कुछ नहीं कर पा रहा हूँ तो तुम्हारे इतने सवालों का क्या जवाब दूँ! जानता हूँ, अब भी भरी हुई हो; अब भी हज़ारों सवाल तुम्हें डँस रहे हैं; अब भी निदान ढूँढ़ने के लिए बेचैन हो। मगर बेटी! एक बात मान लो। सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं। जो तुम्हारे हाथ में नहीं, उसे समय पर छोड़ दो और प्रार्थना करो कि पाताल तक गहरा होता दलदल धीरे-धीरे सूख जाए। अपने हिस्से का कर्म करती चलो। निःस्वार्थ बने रहना और मन को प्रेम, करुणा से भरे रखना। . . . चलता हूँ।” 

“बापू, रुकिए! रुकिए ना!” 

बापू क़दम बढ़ाते-बढ़ाते ठिठक गए। मुझे ग़ौर से देखा। मेरे सपाट चेहरे पर कुछ झाड़ियाँ उग आई थीं जिनकी जड़ें गहरे धँसी थीं, मन के परतों को चीरती हुईं . . . वह पीड़ा मेरी आँखों में उतर आई थी शायद। शायद इसलिए कि आँखों में खारा बूँदों की जगह अब रक्त का थक्का जमने लगा था और रेत से मिलकर किचकिचा रहा था। बापू बिना कुछ बोले ठिठके देखते रहे, फिर बोले, “चलो कमरे में बैठकर बात करते हैं।” 

“बापू! मुझे पश्चिम प्रिय लगने लगा है। वहाँ स्त्रियों का वास्तविक सम्मान अधिक है। वहाँ उन्हें व्यक्ति समझा जाता है। हम क्या करते हैं, साल में चार बार दुर्गा पूजा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती पूजा लोकपर्व के रूप में मनाते हैं, मगर उनकी शक्ति को तभी स्वीकारते हैं जब उनकी काया पत्थर और मिट्टी की बनी होती है, जीवंत रूप में नहीं। इसका तो यही अर्थ हुआ कि स्त्री पत्थर-सी सख़्त हो या माटी का सुघड़ लोंदा हो, तभी अकेले सुरक्षित रह सकती है। आज़ाद भारत ने पुरुष देह में कुछ पिशाचों को जन्म देना क्यों शुरू कर दिया? पहले तो ऐसा नहीं था। पहले अँग्रेज़ के प्यादे ज़ोर-ज़बरदस्ती करते थे, फिर विभाजन की कुबेला ने कुछ भारतीयों की मति फेर दी। उसका ख़ामियाज़ा भी स्त्री ही भोगती रही। वह मुझसे दो पीढ़ी पहले की बात थी। हमने अपना बचपन इस डर में नहीं गुज़ारा। मगर आज के हालात क्या हैं? आज जो छोटी बच्ची है, जिसे अकेले पड़ोसी के घर खेलने नहीं भेजते, जिसके ‘क्यों’ का उत्तर समझा नहीं पाते, कह नहीं पाते कि उसका अकेले कहीं भी होना भेड़ियों को दावत देना है। सवाल तो मुँह बाए खड़ा है, क्या इक्कीसवीं सदी के भारत की बेटियों का वर्तमान और भविष्य क्या इसी असुरक्षा के घेरे में क़ैद रहेगा? क्या हो गया है? क्या हो रहा है? यह कैसा पतन?” 

“लोभ वह अंधा कुआँ है जिसका कोई अंतिम तल नहीं है। यह वासना ही तो है। एक ऐसी तृष्णा जो कभी तृप्ति का स्वाद नहीं चखती और इससे लिपटा दोपाया प्राणी केवल पतन का मार्ग ही चुनता है, फिर बड़े उद्योगपति/व्यापारी हों या सत्ता और प्रशासन की नाक तले आपराधिक कर्म करने वाले जो आम समाज को भीतर से खोखला करने के लिए पर्याप्त है या वहशी बस-ट्रक के ड्राइवर-खलासी जैसे लोग या कि मरीज़ों का मसीहा कहलाने वाले डॉक्टर-समूह जो अंग बेचने का काम करते हैं। जंगल और पहाड़ बेचे जा रहे हैं। डाइनामाइट सिर्फ़ पहाड़ों के चीथड़े नहीं उड़ाता, सदियों से बसे आदिवासी समुदायों का जीवन संकट में डालता है। वहाँ की स्त्रियों की दैहिक सुरक्षा ख़तरे में डालता है। और जंगल की कटाई प्रकृति-पूजक, प्रकृति-सेवी आदिवासियों की संस्कृति को जड़ से मिटाने का काम करती है। मुखिया जब अदूरदर्शी और मानवीय मूल्यों की अवमानना करने वाला हो तो समझ जाना चाहिए कि वह भी अंधे कुएँ में कूद पड़ा है और उसके हाथों देश की दुर्दशा निश्चित है। इतिहास साक्षी है, समय कोई भी हो, शासक की अदूरदर्शिता, अविवेकी निर्णय और आत्मप्रेरणा से शून्यता की स्थिति में आम जनता ही त्रासद जीवन झेलती है और सबसे अधिक स्त्री ही वेदना भोगती है। संस्थान हो या परिवार, मुखिया का चरित्रवान, नीतिवान, विवेकी, दूरदर्शी होना अनिवार्य है। उसे अपने प्रत्येक सदस्य की दैहिक/मानसिक/आर्थिक सुरक्षा के प्रति सजग रहते हुए संवेदनशील होना चाहिए। यदि कोई सदस्य अनैतिक आचरण करता है तो इसके लिए मुखिया को अपना दोष मानना चाहिए।” 

“बापू! यदि मुखिया के जीवन का ही कोई उसूल न हो, जो खरा को खोटा और खोटे को खरा घोषित करता हो तो?” 

“तो क्या, स्पष्ट है मुखिया किसी स्वार्थ-सिद्धि की वासना से अभिभूत है। वासना किसी स्त्री देह के प्रति ही नहीं जगती, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की किसी भी विषय-वस्तु को किसी भी तरह पाने की इच्छा वासना है। तुम तो छात्रों के बीच रही हो, इसे छात्रों के उदाहरण से ही समझो। सामान्यतः छात्र कुछ बनना चाहते हैं और इसके लिए श्रम करते हैं, मगर जब कोई बिना श्रम किए, बिना नियत शर्तों को पूरा किए किसी ओहदे को हासिल करना चाहता है तो वह वासना है। और इसकी प्राप्ति के लिए वह रिश्वत या अन्य रूपों में ग़लत संसाधनों का सहारा लेता है। यदि शिक्षक और प्राचार्य ही घूसखोर होते हैं तो ऐसे छात्रों की चाह पूरी हो जाती है, बदले में एक योग्य और ईमानदार छात्र का करियर सूली पर चढ़ जाता है। रिश्वत की शक्ल जो भी हो। शक्ति यदि ग़लत हाथों में हो तो उसका दुरुपयोग सुनिश्चित है। तुमने लोककथा सुनी है न, नंगे राजा को नंगा कहनेवाला सरल हृदयी बालक सच कहने के परिणाम के भय से मुक्त था, इसलिए सहजता से कह दिया था। इसी तरह, राजा के सिर पर सींग का राज़ नाई ने प्रकृति के सामने खोला और प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि सब जान गए।” 

“आप कहना क्या चाहते हैं? इन बातों का स्त्री की सुरक्षा से क्या सम्बन्ध है?” 

“बहुत गहरा सम्बन्ध है। तुम इतनी मूढ़ तो नहीं कि सारी रामायण पढ़कर पूछो, सीता किसकी पत्नी थी और राम-रावण युद्ध क्यों हुआ।” 

“बापू! आए दिन कुछ न कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जो चीख-चीखकर सच बयान करता है, मगर आज भी घुड़पट्टी पहने समाज के बड़े हिस्से को सच नहीं दिखता। बड़े अपराधों को छिपाने के लिए छोटे अपराधों को उछालने में मीडिया लग जाता है और अपने ध्येय में सफल भी हो जाता है। एक बेटी की अस्मत लुटना यहाँ महज़ ख़बर है। अब इस ख़बर को कितनी हवा देनी है, यह उसके क्षेत्र पर निर्भर करता है। कोलकाता, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। प्रश्नों का गुच्छा हवा में त्रिशंकु की तरह झूल रहा है, मुखिया कब नींद से जागेगा? कब इतने कड़े क़ानून बनेंगे कि एक पीड़िता को, उसके परिवार को शीघ्र न्याय मिले? ओह! कोई रोशनी दिखाई नहीं देती। एक ज़ख़्म भरता नहीं कि स्त्री समाज की देह पर चार और ज़ख़्म लग जाते हैं। पिछले पाँच वर्षों की दर्ज़ रिपोर्ट की संख्या ने विचलित कर दिया है, जबकि कई एक दर्ज़ ही नहीं किए गए। कई बार ऐसा भी हुआ कि निजी चैनलवालों ने ख़बर लीक कर दी तो ही जान पाते हैं, नहीं तो ख़बरें किसके इशारे पर और किस तरह दबाई जाती हैं, यह हर सजग नागरिक को पता है। पीड़ा तब अधिक बढ़ती है जब शासक वर्ग का सदस्य अपने क्षेत्र की घटना को दर्ज़ होने से रोकता और विपक्षी क्षेत्र की घटना को मिर्च-मसाले के साथ ख़बर बनवाता है, उस पर ख़रीदे मीडिया से हमला करवाता है।” 

“मैंने हमेशा माना है, स्त्री समाज का अभिन्न अंग है। वह समाज को रचती है, दिशा देती है, सँजोती है, स्त्री है तो परिवार और समाज की कल्पना की सार्थकता है।” 

“आप मानते हैं, ऐसा आपके व्यवहार से भी दुनिया ने देखा। आप बा को सदैव बराबर ही नहीं, अपने से आगे रखने की कोशिश करते रहे। आपने उनके एवं अन्य जागरूक स्त्रियों के नेतृत्व में घरों में बंद स्त्रियों में भी आत्मसम्मान की ज्योति जला दी।” 

“मैंने आंदोलनों की सफलता के लिए स्त्रियों की भागीदारी अनिवार्य मानी। उनका आगे आना ही सफलता का सूचक था। दक्षिण अफ़्रीका का सत्याग्रह आंदोलन हो या इस देश का, स्त्री-शक्ति ने अपनी महत्ता सिद्ध की है।” 

“बावज़ूद इसके वह क्या खाए, क्या पहने, कहाँ जाए, न जाए, रात को अकेले न निकले, यह तय करने का ठेका किसने पुरुष समाज को दिया? स्त्री तन ढँका है या उघड़ा, इससे पुरुष की आँखों में वासना उपजती है तो पुरुष को अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा मिलनी चाहिए न कि स्त्रियों पर पाबंदी लगानी चाहिए? इससे तो बेहतर जंगल और पहाड़ों/पहाड़ी गाँवों में बसे वे तथाकथित असभ्य, निरक्षर ग़रीब आदिवासी पुरुष हैं जिनकी दृष्टि में स्त्री प्रकृति का पवित्र उपहार है, जो हर हाल में सम्मान के योग्य है। हाँ, जहाँ-जहाँ इधर के, मैदानी क्षेत्रों के लोगों ने घुसपैठ की, स्त्री जीवन पर ख़तरे मँडराने लगे हैं। उनके साथ हुए हादसे अमूमन ख़बर बन ही नहीं पाते या फिर दुष्कर्म में किसी भोले-भाले आदिवासी को डरा-धमका कर अपराध क़ुबूल करने पर विवश कर दिया जाता है। एक दूसरा पहलू भी है, जिस आदिवासी परिवार को शहरी हवा लग गई, जिसे स्वार्थ सिद्धि की राजनीति आ गई, उनकी मानसिकता भी ग़ैर आदिवासी जैसी हो जाती है। वे अपने ही समुदाय का दोहरा शोषण करने से नहीं झिझकते। झारखंड या अन्य कुछ जगहों में आदिवासी लड़कियों की तस्करी में उसके समुदाय के पुरुष का भी हाथ होता है जो धन के लोभ में तस्कर और भोले-भले परिवार के बीच बिचौलिया बनता और अपने फ़रेब के मकड़जाल में ग़रीब माता-पिता को फाँस लेता है। ये रिपोर्ट और आँकड़े भी चौंकाते है, डराते हैं, जबकि घटनाएँ दर्ज़ आँकड़ों से कहीं अधिक होती हैं।” 

“जानता हूँ। घुटता हूँ। टूटता हूँ। अपने राम से पूछता हूँ, वे बालक बने अपने नए राजमहल में सोते ही रहेंगे या आँखें भी खोलेंगे? पूछता हूँ, क्या यही है उनका रामराज्य? कोई उत्तर नहीं मिलता।” 

बापू की दृष्टि फिर कमरे से दिखते आसमान के नन्हे टुकड़े पर जा टिकी। बादल उनकी आँखों में उतर आए। झड़ी लग गई। बूँदें चश्मे के भीतर से उमगती-बहती हुई धारा में बदलती रहीं। मैंने टोकना चाहा, मगर ठिठक गई। सोच कौंधी, ‘इनका बरस जाना ही अच्छा। बापू की दृष्टि में स्त्री महाशक्ति का प्रतीक थी। स्त्री आत्मशक्ति को उन्होंने देह की शक्ति से अधिक महत्त्व दिया। इसलिए हर आंदोलन में स्त्री को नेतृत्व का दायित्व सौंपा। बा को प्रेरणा और अंतर्शक्ति का स्रोत मानते रहे। बा के जाने के बाद ख़ुद को अधूरा मानने वाले बापू दिनोंदिन बिगड़ती स्त्री-दशा पर कैसे न रोए! हर कार्य में स्त्री की भागीदारी की अनिवार्यता मानते हुए स्त्री-पुरुष की सहभागिता से हर आंदोलन को सफल बनाने वाले बापू कैसे सहें कि स्त्री परपुरुष के लिए देह मात्र है, जिसके प्रति आकर्षण होना पुरुष चरित्र का दोष नहीं, स्वाभाविक गुण माना जाने लगा है। कैसे सहें, स्त्री के तन-मन पर क्रूर आघात!” 

वे सचमुच टूट रहे हैं, टूट-टूटकर बह रहे हैं—टुकड़े-टुकड़े . . . वर्तमान में टूटते जीवन-मूल्यों की तरह। मैं उनकी पीड़ा में अपनी पीड़ा मिलाती हुई उनके साथ खड़ी हूँ . . . दृष्टि आसमान पर टिकी है . . . कान भी . . . अच्छे दिन की सूचना की उम्मीद में . . .

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कहानी

व्यक्ति चित्र

स्मृति लेख

पत्र

कविता

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कहानी

किशोर साहित्य नाटक

गीत-नवगीत

पुस्तक समीक्षा

अनूदित कविता

शोध निबन्ध

लघुकथा

यात्रा-संस्मरण

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं