तुलसी साहिब का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी कोहरे में
आलेख | शोध निबन्ध डॉ. आरती स्मित25 Jan 2017
भारतीय मनीषियों, महाकवियों, संतों और दार्शनिकों की प्रवृत्ति ज्ञान की अभिवृद्धि और स्पष्टीकरण की ओर रही है तथा आत्मश्लाघा से प्रेरित व्यक्तित्व के प्रकटीकरण से कोसों दूर भी। संभवत: यही कारण है कि अन्य निर्गुण संत कवियों की तरह ही अठारहवीं सदी के निर्गुण संत तुलसी साहिब (हाथरस) जीवन-वृत्त विवादास्पद है और नई पीढ़ी के लिए जिज्ञासा और आकर्षण का केंद्र भी, क्योंकि किंवदंतियों, चमत्कारपूर्ण घटनाओं, अलौकिक प्रसंगों, अंधविश्वासपूर्ण कथाओं के झाड़-झंखाड़ से सच ढूँढ निकालना जिज्ञासु मन को तृप्त करता है। ख़ासकर ऐसे व्यक्तित्व के बारे में जो रीतिकाल में जन्मा, किंतु काल एवं परिस्थिति के प्रभाव से पूर्णत: अछूता रहा- भोग-विलास, यश से दूर ईश्वर-चिंतन में तल्लीन।
निर्गुण संत तुलसी साहिब के जीवन-चरित्र को लेकर विवाद अब तक बना हुआ हुआ है क्योंकि उनके द्वारा लिखित पुस्तक “रत्नसागर” की भूमिका के अनुसार तुलसी साहिब ब्राह्मण जाति के थे और बाल्यावस्था में ही वैराग्य प्राप्त कर गृहत्यागी हो गए। आगे चलकर हाथरस को इन्होंने ईश्वर-स्तुति एवं चिंतन-मनन के लिए उपयुक्त पाया और वहीं बस गए। इनका देहावसान हाथरस में ही हुआ। उस समय इनकी आयु लगभग 60 वर्ष मानी जाती है, इस प्रकार इनकी जन्मतिथि संवत् 1845 (1788 ई). और मृत्यु तिथि संवत् 1905 (1848 ई.) मानी जा सकती है। किंतु तुलसी साहिब की दो अन्य पुस्तकों, “घटरामायण” एवं “शब्दावली” की भूमिका में दी गई जानकारी के अनुसार, तुलसी साहिब का वास्तविक नाम श्यामराव था और ये पूना के युवराज थे। इनकी इच्छा के विरुद्ध पिता ने इनका विवाह लक्ष्मीबाई नामक कन्या से कर दिया किंतु तुलसी साहिब गृहस्थी में रम ना सके और वैरागी हो गए। इस पुस्तक के अनुसार इनकी मृत्यु लगभग अस्सी वर्ष की आयु में में जेठ सुदी 2, विक्रमी संवत् 1899 या 1900 में हुई। इस आधार पर इनका जन्म संवत् 1820 (1763 ई.) माना जाता है। भारतीय विद्वानों में इनकी जन्मतिथि को लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई है। इनमें आचार्य क्षितिमोहन सेन, प. परशुराम चतुर्वेदी और रामकुमार वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार इनके जन्म-स्थान को लेकर विद्वान एकमत नहीं। मसलन, डॉ. रामकुमार कुमार वर्मा के अनुसार इनका जन्म-स्थान हाथरस है, डॉ. हरस्वरूप माथुर के अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश या पूर्वी राजस्थान का कोई स्थल तो प. परशुराम चतुर्वेदी बाबा नंदन साहब की पुस्तक “देवी साहब का चरित्र” का हवाला देते हुए इन्हें सुदूर दक्षिण देश से आया स्वीकारते हैं। नाम एवं जाति को लेकर भ्रम पूर्ववत है फिर भी अंतर् एवं बहिर्साक्ष्य के आधार पर इन्हें ब्राह्मण स्वीकारा गया है। शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कोई जानकारी नहीं किंतु इतना निश्चित है कि वे ना केवल साक्षर, बल्कि विद्वान भी थे। आज भी उनकी हस्तलिखित कृति घटरामायण हाथरस स्थित उनके समाधि-स्थल “किला दरवाजा” में शीशे के पारदर्शी बक्से में सुरक्षित रखी हुई है। 2001 ई. में मैंने स्वयं देखा। हाँ, छूने की मनाही है। तुलसी साहिब के अनुयायियों द्वारा उनकी हर एक निशानी सँभालकर सुरक्षित रखी गई है, जिनमें उनकी पोशाक, जिन्हें वे “गुदड़ी” कहते और वर्ष में दो बार - उनकी जन्म-तिथि एवं पुण्य-तिथि के पावन अवसर पर भक्तों एवं श्रद्धालुओं के दर्शन हेतु निकालते हैं। हाथरस में तुलसी साहिब “साहेब जी” और “निरंकारी” के नाम से प्रसिद्ध हैं। विडंबना यही रही कि क़बीर की ही तरह उन्होंने आजीवन पंथ का विरोध किया, बाह्य पूजा और आडंबर का विरोध किया और उनकी समाधि को ही अनुयायियों ने मंदिर के आडंबरों से पूर्ण कर दिया। वे आजीवन प्रचार-प्रसार से बचते रहे, बाह्य शोर और उन्माद से दूर रहे और संभवत: एकांतवास कर ईश्वर-चिंतन के लिए उन्होंने उस समय वीरान स्थल हाथरस को अपना डेरा बनाया, किंतु आज देश के चारों कोने में अनुयायियों ने उनके नाम पर पंथ का विस्तार कर दिया। ऐसा नहीं था कि वे लोगों के बीच जाते नहीं थे, भ्रमण उन्हें विशेष प्रिय था। एक कंबल ओढ़े, हाथ में एक डंडा लिए वे दूर नगरों में चले जाया करते थे। वर्षों तक वे जंगलों, पहाड़ों और दूर-दूर के शहरों में भ्रमण कर लोगों को उपदेश द्वारा सन्मार्ग पर चलना सिखाते रहे और कई वर्ष भ्रमण के उपरांत अलीगढ़ के हाथरस नामक स्थान पर स्थायी रूप से निवास करने लगे और वहीं सत्संग प्रारम्भ किया। वे यात्राओं से अर्जित अनुभवों और विचारों के प्रसार से लोकहित-कार्य सम्पन्न करते रहे। संत तुलसी साहिब ने अचल की अपेक्षा चल को बेहतर मानते हुए स्वयं को “देश-देशांतर का वासी” कहा है:
“गदला पानी बंधन सोई। बहता सदा निर्मल होई॥”
“देस देसंतर के हम बासी। दीपक दृग नैनन पर चासी॥”
तुलसी साहिब का आगरा जाते रहना प्रसिद्ध है। राधा-स्वामी संप्रदाय के स्वामीजी महाराज के माता-पिता के ये धर्मगुरु थे। पन्नी गली, आगरा में इनके ठहरने का स्थान 2001 ई. तक विद्यमान था, संभवत: अब नहीं हो।
यश और ख्याति से सदा बचे रहने वाले इस परम संत का मानना था कि नाम एवं ख्याति साधक को परमेश्वर से दूर करती है। वे पंथ के विरोधी रहे किंतु भक्तों एवं अनुयायियों की बढ़ती संख्या के फलस्वरूप पंथ आरंभ हो गया। इसका आरंभ संभवत: सूरस्वामी नामक शिष्य ने किया था। वर्तमान में तुलसी संत तुलसी साहिब के मतावलंबी पूरे भारत में फैले हैं। हाथरस और उसके निकटवर्ती स्थानों में वे अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्ध हो गए थे। निकटवर्ती जोगियाग्राम में भी संत तुलसी साहिब की समाधि प्रतीक रूप में है, जहाँ ग्रामीणों द्वारा पूजा अर्चना की जाती है। तुलसी साहिब द्वारा हस्तलिखित एक अप्रकाशित पाण्डुलिपि “अनुरागसागर” आज भी मंदिर की देख-रेख करने वाले ग्रामीण के पास सुरक्षित है, उस पाण्डुलिपि को ग्रामीण साथ लाने तो नहीं देते, किंतु दर्शन करने देते हैं, उनके लिए वही धर्मग्रंथ है। हालाँकि प्रामाणिकता के अभाव में यह कहना कठिन भी है कि वह कृति तुलसी साहिब की ही है। उस पुस्तक की भाषा हाथरस की क्षेत्रीय बोली युक्त ब्रजभाषा है। ग्रामीणों ने उसका निष्ठापूर्वक वाचन भी किया। सर्वप्रथम गुरु-चरण की वंदना की गई है:
“श्री सगुरसा हेवकी दया सकालसंतानकीह
पा ञ्प्रथग्रन्थ ञ्प्रनुरागसागर लिष्पते॥छंद॥”
तुलसी साहिब की हस्तलिखित एक अन्य पांडुलिपि भी दर्शन हेतु मिली जिसे ग्रामीण रत्नसागर की मूलप्रति बता रहे थे। तुलसी साहिब की कृतित्व पर बात करने से पहले उनकी समाधि और समाधिस्थल की कुछ बातें: तुलसी साहिब ने हाथरस में ही देह त्यागा, जहाँ उनकी समाधि निर्मित है, समाधि पर उत्कीर्ण निम्नांकित पंक्ति उनका महाप्रस्थानकाल संवत् 1900 ही प्रमाणित करती है- “तुलसी साहिब ने सम्वत् 1900 मिती जेठ सुदी ब्रिसपत वार के दिन सम्माद ली जिसके ऊपर छत्री बनी है।” किंतु “देवी साहब का जीवन चरित्र” पुस्तक में उल्लिखित कुछ पंक्तियाँ उनका संवत् 1920 तक जीवित रहना प्रमाणित करती है। समाधि स्थल को मंदिर का स्वरूप उनके परम शिष्य श्री फूलचंद बागला ने प्रदान किया। मंदिर में रहते अनुयायियों- सेवकों के कथनानुसार, बागला जी तुलसी साहिब के पहले शिष्य थे और समाधि में जाने से पहले साहिबजी ने स्वयं अपनी समाधि के बाह्य स्वरूप का नक्शा प्रिय शिष्य फूलचंद जी को दिया था। “अष्टकंवल दस द्वार” के आध्यात्मिक अर्थ के प्रतीक स्वरूप तुलसी साहिब की समाधि पाषाण निर्मित आठ स्तंभों पर मंदिर की शक्ल में है। तुलसी साहिब की आज्ञानुसार ही समाधि-कक्ष में दस दरवाज़े हैं। नौ बड़े, एक झरोखानुमा छोटा दरवाज़ा। कक्ष में सोलह ताखें हैं जो आध्यात्मिक महत्व को दर्शाते हैं। निश्चय ही यह समाधि-स्थल अपने आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है। विडंबना यह है कि यहाँ पूजा-अर्चना की शैली भी बाहयाशृंचरण से युक्त मंदिर की ही तरह है। जबकि इस परम संत ने आत्मज्ञान पाकर और ईश्वर का साक्षात्कार कर अमृत-तत्व पा लिया और आजीवन जन-जन को जगाने का प्रयास करते रहे।
तुलसी साहिब के साहित्य और साहित्यिक वैशिष्ट्य को कुछ एक पंक्तियों में रेखांकित कर पाना पैदल चलकर सागर पार करने जैसा ही है। इनकी कृतियों पर कई एक दृष्टिकोण से विमर्श किए जाने की आवश्यकता है। अफ़सोस है कि विद्वानों ने निर्गुण संत कवियों के अवदानों पर विपुल परिमाण मे शोधकार्य किए, आलोचनात्मक ग्रंथ भी प्रस्तुत किए। किंतु उत्तर मध्यकालीन कवियों में श्रेष्ठ निर्गुण संत कवि तुलसी साहिब की कृतियों पर विद्वज्जनों का ध्यान बहुत कम गया है। 1962 ई. में डॉ. हरस्वरूप माथुर द्वारा इस परम संत के जीवन को लेकर शोधकार्य किए गए जो निश्चय ही सराहनीय है। 2005 ई. में मैंने तुलसी साहिब के साहित्य से संदर्भित एक विषय उठाकर जिज्ञासु शोधार्थियों का ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा की। विषय था, “तुलसी साहिब (हाथरसवाले) के साहित्य की आगत शब्दावली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन”। उनके समूचे साहित्य पर इस तरह का पहला काम। नया और जोख़िम भरा। किंतु बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज भी विद्वज्जनों, विशेषकर विश्वविद्यालयी विद्वानों की उपेक्षा के कारण तुलसी साहिब आज भी कोहरे में हैं और इन पर लिखे गए शोधग्रंथ भी अँधेरे के शिकार हैं। हाल के दिनों में, इनपर कुछ छात्रों एम. फिल. करने की सूचना है।
बहरहाल, सागर में से एक बूँद निकालने का प्रयास करती हूँ। तुलसी साहिब की समस्त कृतियों - “रत्नसागर”, “घटरामायण”(दो भागों में) एवं शब्दावली (दो भागों में), पद्मसागर (अधूरी कृति) के अनुशीलन से संत तुलसी साहिब की विराट प्रतिभा के साथ-साथ हिंदी भाषा की प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति और उसकी शक्ति का परिचय प्राप्त होता है। इन कृतियों में प्रयुक्त शब्दावली भारतवर्ष के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन के कई अनुद्घाटित तथ्यों को भी अभिव्यंजित करती है। इन कृतियों में भौतिक एवं सांप्रदायिक विषयों पर संतों की विचारधारा के समस्त तत्व अत्यंत पांडित्यपूर्ण शैली में विद्यमान हैं। इनमें आत्मा एवं परमात्मा के विरह-संबंधी, अध्यात्म और अनुभूति-संबंधी, अगणित अनूठे भावों में कवि की कुशलता पूर्णतया निहित है बेशुमार सुंदर भावों के मोतियों से पूर्ण इनकी भाषा में अनुस्यूत शब्दों की संघटना का सौंदर्य द्रष्टव्य है। ऐसा प्रतीत होता है मानो कवि ने मर्म का अंत: साक्षात्कार किया है। किस पद का प्रयोग किस स्थान पर, किस रूप में उपयुक्त होगा, इसका कवि को अद्भुत ज्ञान है। यही वजह है कि अपने काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रमाणस्वरूप (उसके उतार-चढ़ाव, विभिन्न प्रकार के शासकों के शासन में बदलाव) को उद्घाटित करने एवं भविष्य में उन तमाम भाषिक धरोहर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से भी, यथावसर, भावों के अनुकूल आगत शब्दों को भी अपनी शब्दावली में नि:संकोच प्रयोग किया है। शब्द-प्रयोग के प्रसंग में कवि ने कहीं भी अपने-पराए के बोध से किसी प्रकार की प्रेरणा ग्रहण नहीं की। इन कृतियों के अध्ययन से कवि की मानवीय अंत: प्रकृति एवं सहज उदार दृष्टिकोण का भी ज्ञान होता है। इसमें ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संकेत भी अंतर्निहित होते हैं। शासन-तंत्र, शिक्षा, व्यवसाय, संस्कृति, धर्म आदि के प्रभाव सामाजिक प्राणी होने के नाते कवि के मन-मस्तिष्क पर अंकित होते हैं। तुलसी साहिब की रचनाओं में भी राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की स्पष्ट छाप विद्यमान है। तदनुरूप, इनकी भाषा में अरबी, फ़ारसी, तुर्की यहाँ तक कि अंग्रेज़ी शब्दावली की झलक भी मिलती है। भारतीय भाषाओं में पश्चिमी अवधी, क्षेत्रीय ब्रज, संस्कृत, राजस्थानी, पंजाबी के शब्द भी अपनी गरिमा के साथ उपस्थित हैं। ग़ौर करनेवाली बात यह है कि ऐसे प्रयोग सायास नहीं अनायास हुए हैं। भाषिक प्रवाह में ऐसी शब्दावली स्वत: प्रयुक्त हो गई है।
तुलसी साहिब के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पाश्चात्य विद्वानों ने संकेत-मात्र किया है। कुछ भारतीय विद्वानों में, हिंदी के लेखक-आलोचक, अंग्रेज़ी के लेखक एवं उनके शिष्य/ अनुयायियों से की गई चर्चा से अध्ययन में मदद मिलती है। अंग्रेज़ी-लेखक आचार्य क्षितिमोहन सेन ने लिखा है,
"His Principal works are the “ghataramayan” and the “ratnasaagar”. His vanis which contain many beautiful stories are very much appreciated.”
वाणियों से उनका अभिप्राय शब्दावली से है। हिंदी के विद्वानों में डॉ. पीतांबर बड़थ्वाल, डॉ. रामकुमार वर्मा एवं प. परशुराम चतुर्वेदी ने तुलसी साहिब की रचनाओं पर संक्षिप्त विचार किया है। इनके अतिरिक्त तुलसी साहिब के पंथ के संत महर्षि मेंहीं दास एवं महंत संत प्रकाशदास ने उनपर लेखनी चलाई है।
तुलसी साहिब की रचनाओं के वर्ण्य-विषय पर दृष्टि डालें तो रत्नसागर के भावपक्ष में मार्मिक प्रसंगों का सर्वथा अभाव है क्योंकि इस ग्रंथ में दार्शनिक विचारों एवं वैराग्य प्रेरक विषयों की प्रधानता है जिनके वर्णन में शांत रस का परिपाक हुआ है। भाव-सौंदर्य की अपेक्षा विचार-सौंदर्य की प्रस्थापना में कवि की सफलता तर्क-वितर्क से परे है, साथ ही ब्रह्म, जीव, सृष्टि-क्रम आदि जटिल विषयों का सरलतापूर्वक स्पष्ट विवेचन उक्त ग्रंथ की विशेषता है। एक दृष्टांत:
“अंदर आतम ज्ञान ध्यान करन सूरत कही।
गई किरण रबि भानु आप आपनपौ परखियाँ॥”
वस्तुत: तुलसी साहब के आध्यात्मिक विचार जिस स्पष्टता एवं विशदतापूर्वक इस ग्रंथ में प्रकट हुए, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
घटरामायण के अंतर्गत पिंड में ब्रह्मांड की अवस्थिति के सिद्धांत के आधार पर संत तुलसी साहिब ने समस्त रामायण को घट में समाविष्ट माना है, किंतु इस ग्रंथ में पिंड और ब्रह्मांड के सिद्धांत के अतिरिक्त अन्य विषय भी वर्णित हैं। अतएव समस्त ग्रंथ को “घटरामायण” कहना युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता। संभवत: ग्रंथ के प्रारंभ में पिंड-ब्रह्मांड की सुविस्तृत व्याख्या के कारण इसका नाम घटरामायण रखा होगा। घटरामायण का प्रतिपाद्य विषय दर्शन है। इसमें कवि ने योग, वैराग्य, सत्संग आदि का वर्णन किया है। भाव-सौंदर्य के लौकिक अर्थ से परे दुरूह दार्शनिक विचारों को लोक-प्रचलित भाषा में सशक्त और सरल ढंग से व्यक्त करने की कला विद्यमान है। अनेक स्थलों पर आत्मा-परमात्मा के रहस्योद्घाटन में मार्मिकता का परिचय प्राप्त होता है।एक दृष्टांत:
“अजब अली एक गगन गली री। सुरति चमक चढ़ि चटक चली री॥
विधि विधि पहुप बाग बन देखा। कहा कहौ अली अगन अलेखा॥”
इस ग्रंथ में माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि काव्य-गुणों का सर्वथा अभाव सर्वत्र दृष्टिगत होता है। योग के दुरूह विषय-वर्णन में प्रसाद गुण विलुप्त हो गया है। इसमें अलंकारों का सीमित प्रयोग हुआ है। इसमें अनुप्रास, रूपक, उदाहरण अलंकारों का प्रयोग विशेष रूप में दृष्टिगोचर होता है। साथ ही इसमें दोहा, चौपाई, सोरठा, सवैया आदि छंदों का प्रयोग भी परिलक्षित है। तुलसी साहब के शब्दों में घटरामायण का महत्व निम्नांकित है:
“घट रामायन अन्त, समझि सूर सन्तहि लखै।
झकै भेष और पन्थ, थकै जगत भौ मिल रहा॥
पंडित ज्ञानी भेष जों, नहि पावै कोई अन्त।
ये अनन्त रस आगम है, लखै सूर कोई सन्त॥“
घटरामायण का महत्व आगम ब्रह्म के प्रतिपादन में जान पड़ता है।
शब्दावली दो भागों में विभक्त तथा 140 एवं 130 पृष्ठों में आबद्ध तुलसी साहिब की विविध रचनाओं का संकलन है और घटरामायण की भाँति वृहदाकार है। शीर्षक के अनुरूप इसमें केवल शब्द या पद नहीं हैं, वरन् इस ग्रंथ में शब्द, साखी, कुंडलिया, सवैया इत्यादि में लिखी गई रचनाएँ संग्रहीत हैं। वस्तुत: यह कृति तुलसी साहिब की विविध बानियों का संग्रह है। इस दृष्टि से इस कृति का शीर्षक “तुलसी साहिब की वाणी” अपेक्षाकृत अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है।
भाव-सौंदर्य की दृष्टि से शब्दावली को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में दार्शनिक विचारों के साथ आध्यात्मिक अनुभूति की उत्कट व्यंजना का समायोजन है। आत्मा-परमात्मा के मिलन-विरह की उक्तियों में प्रेम की मर्मस्पर्शी व्यंजना है। दर्शन के मर्म को सरस रूप प्रदान करने की कला में तुलसी साहिब को अत्यधिक सफलता मिली है।
अन्य ग्रंथों की तुलना में “शब्दावली” के कलापक्ष में विविधता एवं पुष्टता है। शृंगारिक स्थलों में माधुर्य गुण पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित है। विषय की दुरूहतावश प्रसादगुण प्रस्फुटित नहीं हो पाया है। शृंगार रस से प्रतिपादित इस कृति में विरह शृंगार का सफल वर्णन हुआ है। अन्य कृतियों की भाँति यहाँ भी विविध अलंकारों एवं छंदों का सुष्ठु प्रयोग परिलक्षित है। महान संत कवि तुलसी साहिब की रचनाओं में शब्दावली का विशिष्ट स्थान है। इस रचना में तुलसी साहिब की आध्यात्मिक वाणी का काव्योचित वैदग्ध्य दर्शनीय है। यह ग्रंथ लोक-मानस को प्रभावित करने में पूर्ण सक्षम है।
पद्मसागर तुलसी साहिब की अपूर्ण रचना है। अतएव इस कृति के शीर्षक की सार्थकता-निरर्थकता पर बहुत बात करना युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता। संभवत: पद्म या कमल में स्थित ब्रह्म की अवस्थिति की मान्यता के कारण इस पुस्तक का नाम पद्मसागर पड़ा। आरंभ में गुरु वंदना एवं गुरु महिमा का वर्णन है, उसके उपरांत असीम तत्व ब्रह्म, संत की कृपा से ब्रह्म-प्राप्ति का वर्णन है। योग की चर्चा, जड़-चेतन की ग्रंथि छूटे बगैर परमार्थ-प्राप्ति असंभव; नाम महिमा, निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन, जीवनमुक्ति, ब्रह्म का स्थान कमल में है, आदि का विवेचन है। इस कृति में अनुभूति की अपेक्षा विचार- प्रतिपादन मुख्य है। इस कृति में दार्शनिक विचारों को रत्नसागर की पद्धति पर प्रकट करने का प्रयास परिलक्षित होता है। इसमें माधुर्य और ओज गुण अनुपलब्ध हैं, शांत रस की प्रधानता है। अनुप्रास की छटा और दोहा, चौपाई एवं सोरठा छंद की उपस्थिति परिलक्षित है।
पद्मसागर का महत्व प्रतिपादित करनेवाली पंक्तियाँ अंत: साक्ष्य से प्राप्त हैं:
“पदमसार सागर सुनो, बेहद बचन बयान
ज्ञान उदै हिये में उठे, सुन हिरदे निज कान”
संत कवि तुलसी साहिब ने अपनी रचनाओं में धर्म के पाखंड, कर्मकांड एवं निरर्थक बाहयाचार का खंडन करके ज्ञान-भक्तियुक्त एक सरल, संतोषमय धार्मिक जीवन का प्रचार किया। उन्होंने धार्मिक जीवन के परिष्कार एवं परिमार्जन के निमित्त उसकी विकृतियों को अनावृत करके दिखाया। उनके ग्रंथों का धार्मिक महत्व यही है कि वे पाखंड पर आघात करके सहज प्रकाश-पथ प्रशस्त करते हैं। अपनी रचनाओं को माध्यम बनाकर तुलसी साहिब ने जाति- भेद, छुआछूत आदि कुरीतियों की आलोचना की है। सामाजिक विषमता एवं भेदभाव का प्रत्याख्यान उनका प्रिय प्रतिपाद्य है। इस प्रकार सामाजिक दृष्टिकोण से भी तुलसी साहिब की रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि तुलसी साहिब के ग्रंथों में काव्यकला के आदर्शों का पूर्ण प्रतिपादन नहीं है, तथापि इन ग्रंथों में, विशेषकर शब्दावली में अनेक ऐसे स्थल हैं, जो काव्यात्मकता से परिपूर्ण हैं। तुलसी साहिब ने आत्मा एवं परमात्मा के मिलन का वर्णन बहुत ही मर्मस्पर्शी शैली में किया है। उनकी विरहोक्तियाँ आंतरिक अनुभूति से सिक्त हैं। इसी प्रकार, उनकी वैराग्यजनित शांत रस की रचनाएँ भी अवलोकनीय एवं उल्लेखनीय हैं। यह कहा जा सकता है की इन रचनाओं का साहित्यिक महत्व उपेक्षणीय नहीं है।
तुलसी साहिब की रचना-भाषा पर विचार करने से पूर्व यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भाषा के माध्यम से मानव-भावनाएँ आकार ग्रहण करती हैं। श्रेष्ठ काव्य में भाव एवं भाषा के समरूप पुष्ट होने पर बल दिया जाता है, किंतु निर्गुण काव्य के संबंध में ऐसे नियम का निर्धारण उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि परमार्थ के प्रसंग में अज्ञेय की साधना मुख्य थी, उस अनुभूति-तत्व को व्यंजित करने की कला नगण्य। लेकिन, जब काव्य-शैली पर तत्व-चिंतन पर बल दिया जाता है, तब उसमें गुण-दोष प्रतिफलित होने लगते हैं, जिनकी मीमांसा साहित्य-शास्त्र का विषय है। इनमें भाषा भी एक है।
तुलसी साहिब की रचना-भाषा का अवलोकन करने से पूर्व संत कवियों की भाषागत विशेषताओं, उनकी दुर्बलताओं को देखना अपेक्षित होगा। संतकाव्य की भाषा प्राय: अव्यवस्थित है। न्यूनपदत्व एवं अधिकपदत्व के दोषों की उपस्थिति के साथ ही भाव व विचारों के साथ पुनरुक्ति की भी अधिकता है। कबीर की कई साखियाँ न्यूनपदत्व के कारण अर्थबोध में बाधक होती हैं। तुलसी साहिब की रचनाओं में अधिकपदत्व एवं पुनरुक्तियों के आधिक्य त्रुटिस्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं। व्याकरणिक त्रुटियों से संत काव्य-भाषा परिपूर्ण है। जिन साधकों ने स्पष्ट ही मसि-कागद ना छूने का मंतव्य प्रकट किया है, उनकी भाषा में ये त्रुटियाँ आश्चर्यजनक नहीं। किंतु, इन त्रुटियों का कारण केवल निर्गुण साधकों की उदासीनता या असामर्थ्य नहीं है। वस्तुत: भाषा की त्रुटियों के संबंध में कवि-विशेष उत्तरदायी नहीं हैं, क्योंकि विचारों की भाँति भाषा का स्वरूप भी बहुत कुछ गुरु परंपरा से प्राप्त भाषा द्वारा निर्धारित होता है।
तुलसी साहिब भी परंपरागत प्रभावों से जड़ित हैं। उनमें वे समस्त गुण दोष परिलक्षित होते हैं, जो पूर्ववर्ती संत-साधकों की भाषा में दृष्टिगत होते हैं। विवेच्य कवि की भाषागत विशिष्टताएँ समेकित रूप में कुछ इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती हैं:
संस्कृत शब्दावली:
“अली आत्मरूपं अकासं सरूपं। रबी भास भूपं अनन्तं अनूपं॥”
“निराकार कारं भई जोति जारं। लई बिस्व भारं सम्हारं॥”
राजस्थानी शब्दावली:
“अगम लखासी सूरत थारी दासी, पासी अबिनासी पूरा पद बासी।
लख लखासी काटी जम फाँसी, मिटत सरन भरम जाली॥“
पंजाबी शब्दावली:
“जो फकीर फाजिल खुदी खोवै, खाविंद खोज करंदे।
जो साहिब के पार पियारे, हरदम हाल कहन्दे॥”
अरबी-फ़ारसी शब्दावली:
“तुलसी ख़लक़ कुल ख्याल है, आसिक मुहब्बत कर राही।
खोजो मुहब्बत दिल रहम जिस इस्म से आलम हुआ॥”
खड़ी बोली एवं (मिश्रित) शब्दावली:
“कोइ ज्ञान से ब्रह्म बखान कहै, नहि ब्रह्म के भेद को जानता है।
कागदों की साख से भाख कहै, लख ब्रह्म का भेद न पावता है।”
“अकल बुजरुग सिखाते हैं, कोइ दिल में न लाते हैं।”
क्रियापद में अनेकरूपता:
भाषा की सुनिश्चितता का आधार शब्दों से अधिक क्रियापद होता है। किंतु पूर्ववर्ती संतकाव्य की भाषा के समान ही तुलसी साहिब की भाषा में क्रियापद विभिन्न हैं, उनमें एकरूपता नहीं है। रत्नसागर की भाषा तुलसी साहिब की अन्य रचनाओं की भाषा से प्रौढ़ है, किंतु इसमें भी पूर्वी और पश्चिमी क्रियापदों का मनमाना प्रयोग है। दृष्टांत:
“सब आदि अंत हवाल तुलसी, बरन हिरदे को कहै।”
“भय भव भार अचार अनीता। कर्मकाल संग पाल्यौ प्रीता॥”
एक ओर क्रियापदों की यह अनुरूपता भाषा का स्वरूप शुद्ध होने नहीं देती, वहीं दूसरी ओर क्रियापदों का विकृत रूप भाषा को विकृत कर देता है। यथा- हुक्म का हुकम, फ़रमा का फरमाई, शुबह का शुभा आदि।
अनुभूति से सशक्त भाषा: यद्यपि उपर्युक्त कारणों से भाषा के प्रसाद गुण कमी आई है, किंतु अनुभूति की तीव्रता के कारण उसकी प्रभावोत्पादकता बनी रहती है। कतिपय स्थलों पर अनुभूति की उत्कटता इतनी तीव्र है कि शब्दों की कमी उसे व्यक्त होने से रोक नहीं पाती। भाषा का अपेक्षित सहारा न पाकर भी उसकी प्रेषणीयता कम नहीं होती है। वस्तुत: अनुभूति के आवेग में संत-साधकों ने अपनी इच्छानुसार भाषा को तोड़-मरोड़कर अपने भाव व्यंजित किए हैं और साधकों के समीप इस प्रकार परास्त होकर उसमें एक ऐसी प्रभाव-शक्ति सम्पन्न हुई है, जो अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती। उदाहरणत:
“घट भीतर जो देखिया, सो भाखा विस्तार।
भेदी भेद जनाइया, तुलसी देखि निहार॥”
मुहावरे, कहावतें और शब्द-चित्र:
भाषा की यह अनुभूतिजन्य प्रभावात्मकता किंचित अन्य विशिष्टताओं के सहयोग से परिपुष्ट हुई है। ये विशिष्टताएँ प्राय: मुहावरों और कहावतों के प्रयोग के द्वारा एवं शब्द-चित्र आदि की सामर्थ्य के द्वारा प्रकट होती हैं। संत तुलसी साहिब कि भाषा में मुहावरों एवं कहावतों का सुष्ठु प्रयोग है। उनमें विविधता भी है और उनके मंतव्य को प्रकाशित करने की अद्वितीय क्षमता भी। “रत्नसागर” की भाषा में इनका विदग्ध प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। जैसे-
“उनका बार अंक नहिं होवे, वे नित पाँव पसारे सोवें।”
“धीव न पास न पैसा होई। नोन मिरच चटनी संग सोई।”
मुहावरों और कहावतों के प्रयोग में भी तुकादि की आवश्यकतानुसार स्वतंत्रता से काम लिया गया है। जैसे, “अँगूठा दिखाना” के लिए “अंगूठ बतायो”, “चिकना” के लिए “चिकनिया जैसा” आदि। इसके अतिरिक्त तुलसी साहिब की भाषा में मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग परंपरागत अर्थ एवं पद्धति पर हुआ है, जिससे भाषा में स्वाभाविकता एवं प्रभावोत्पादकता प्रतिष्ठित हुई है। “रत्नसागर” में मुहावरों एवं कहावतों का अत्यधिक प्रयोग स्वाभाविक है, क्योंकि इसमें गतिशील भाषा में तुलसी साहिब ने अनेक आध्यात्मिक प्रसंगों की विस्तृत व्याख्या की है।
तुलसी साहिब ने कुछ विचारों एवं भावों को स्वभाषा में अतीव प्रभावात्मक शैली में व्यक्त किया है, जिसमें अर्थ की गहराई भी है और मार्मिकता भी। “रत्नसागर” में एक स्थल पर आवागमन के चक्र में घूमते हुए जीव की दयनीय दशा को व्यक्त करने हेतु उन्होंने उसे नग्न पग भ्रमण करते हुए अंकित किया है:
“जन्म मरन दुखिया में दौड़ा। नांगे फिर पाँव नांहि जोड़ा॥”
चित्रांकन में जिस मार्मिकता और जीवंतता का समावेश है, वह अनुभूति की सुंदर अभिव्यक्ति ही है। जीव की अभिव्यंजना की यह उत्तम पद्धति जहाँ भी संचालित है, वहाँ प्रभावशाली है। एक स्थल पर अज्ञानी व्यक्ति के अज्ञान की अतिशयता का वर्णन करने के लिए उन्होंने कहा है:
“बुधि बल मत का कूर, चूर अंग अज्ञान में”
यहाँ “चूर अंग अज्ञान में” अज्ञान में डूबे उसके अंगों के द्वारा कवि ने उस व्यक्ति की अज्ञानावस्था को प्रकट किया है।
इसी प्रकार, तुलसी साहिब ने एक स्थान पर एक परिवार या कुटुंब को “संशय का कोट” कहा है:
“सुत मात पिता नर पुरुष जगत का नाता।
यह सब संशय का कोट कुटुंब दुख दाता॥”
यहाँ परिवार को “कोट” अर्थात् किला बताना बहुत युक्तिसंगत है। “कोट” की भाँति ही परिवार का गठन भी संरक्षण की भावना से होता है और यह एक समूह-सूचक है। इस प्रकार की समता को दृष्टि में रखकर प्रयोग करना कवि की अंतर्दृष्टि का परिचायक है।
तुलसी साहिब की भाषा में कतिपय शब्द-चित्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसे शब्द-चित्रों की गुणवत्ता उनकी सजीवता एवं स्वाभाविकता है। साँप और मनुष्य के बीच समझौता एवं शपथ-प्रक्रिया का शब्द-चित्र देखें:
“किरिया कसम भई सब भॉँते। दीन इमान बचन की बातें॥
हम तुम माहि बीच भगवानै। अब दूसर कोइ बात न जानै॥”
मनुष्य की क्रुद्धावस्था का चित्रण:
“नैन सुरख और मूछै मोड़ी। भुजा चढ़ी पुनि भौंहै टेढ़ी॥”
यहाँ यह ध्यान दिलाना अनिवार्य है कि संत कवियों का उद्देश्य साधना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना है, उनके माध्यम की पुष्टि के लिए वे सजग नहीं हैं। अतएव काव्यादर्श के शास्त्रीय नियमों की कसौटी पर तुलसी साहिब के साहित्य को निर्ममतापूर्वक कसना उचित नहीं है।
इस संत शिरोमणि ने मुख्यत: “शब्द” का प्रयोग किया है। यह “शब्द” वास्तव में पद का वाचक प्रतीत होता है। इनके शब्द अधिकांशत: राग-रागिनियों तथा पदों के रूप में हैं। संतकाव्य में “शब्द” के अतिरिक्त “साखी” का भी प्रयोग किया गया है। यह दोहे से साम्य रखनेवाला छंद है। ऐसे छंद “सधुक्कड़ी छंद” कहलाते हैं। साधकों ने गेयत्व की दृष्टि से अपने नियमानुसार इसकी रचना की है। तुलसी साहिब ने भी इसी परंपरा का पालन किया है। “शब्द” और “साखी” के अतिरिक्त संत तुलसी कृत “रत्नसागर”, “घटरामायण” एवं “पदमसागर” में दोहे, चौपाई, सोरठा, कवित्त, कुण्डलिया छंद का प्रयोग दिखाई पड़ता है। “शब्दावली” में ग़ज़ल और रेख़ता का प्रयोग भी प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, कहेरा, हिंडोला, वसंत, चाचरी, मलार आदि छंदों भी इनकी रचनाओं में उपलब्ध हैं। इन छंदों का प्रयोग अधिकांशत: ग्रामीण-काव्य में किया जाता है। अनुमान है कि तुलसी साहिब ने रमते साधुओं के संसर्ग से इन छंदों को प्राप्त किया होगा। विविधता की दृष्टि से इस संत कवि ने अनेक छंदों का प्रयोग किया, किंतु इनकी प्रयुक्ति में अव्यवस्था की व्यापकता है। ये पिंगल के नियमानुसार प्रयुक्त नहीं हुए हैं, इन छंदों के प्रयोग में कवि ने गेयत्व और लयत्व को ही ध्यान में रखा है।
संत कवि तुलसी साहिब के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को चंद शब्दों, वाक्यों या पृष्ठों में आबद्ध कर पाना दुष्कर है। सार रूप में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि रीतिकाल में निर्गुण भक्ति की अलख जगाए रखने वाले, समाज की कुरीतियों से मर्माहत होने वाले, ईश्वर का साक्षात्कार कर जनमानस को लोक-कल्याण का पाठ पढ़ाने वाले संत कवि तुलसी साहिब महान संत, कवि, समाज सुधारक, दार्शनिक और महान चिंतक थे। विद्वत्समाज से यही अपेक्षा है कि वे तुलसी साहिब के जीवन और साहित्य पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करे और उन्हें कोहरे से प्रकाश में लाएँ।
संदर्भ ग्रंथ:
*तुलसी साहिब का समग्र साहित्य
*आचार्य क्षितिमोहन कृत “मेडिवल मिस्टीसिज़्म” (अंग्रेज़ी)
*डॉ. पीतांबर बड़थ्वाल कृत “हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय”
*डॉ. रामकुमार वर्मा कृत “हिंदी का आलोचनात्मक इतिहास”
*प. परशुराम चतुर्वेदी कृत “उत्तरी भारत की संत परंपरा
*डॉ. हरस्वरूप माथुर कृत शोधप्रबंध “भारतीय साधना और संत तुलसी”
डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित कृत “हिंदी संत साहित्य“
डॉ. आरती स्मित /8376836119
डी 136, तृतीय तल, गली न. 5,
गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स,
दिल्ली 110092
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