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बापू और मैं – 003 : उन्माद 

“महादेव! मैं तुमसे कहता न था, वह भरी बैठी होगी कहीं। धर्म के नाम पर जो कालिख पोती जा रही है, उसको वह भला कैसे सहे जिसने मूल को समझ लिया है। देख! कैसी मुरझाई लता-सी बैठी है . . . अकेली, उदास!” 

अचानक पीछे से आती आवाज़ ने मुझे चौकन्ना कर दिया। पलटकर देखा तो बापू की आँखें चश्मे के भीतर से मुस्कुरा रही थीं। महादेव भाई भी साथ थे। मैंने आँख मली। दिन के उजाले में यह कैसा भ्रमजाल! राजघाट में आज जबकि वीरान जंगल में भटकती चुप्पी छाई है और उस चुप्पी में जो खड़खड़ाहट है, जो धारदार नश्तर-सा आवेग है, उस खड़खड़ाहट, उस आवेग के वेग को झेलते बापू वहाँ आ गए . . . मुझसे मिलने! 

“बापू! आज अचानक यहाँ . . .?” 

“जब तू मेरे समाधिस्थल, जिसे समाधिस्थल कहना ग़लत है . . . मैंने समाधि तो ली नहीं थी, न ही देश को जलती हालत में छोड़कर मुक्ति की कभी कामना की थी। इस नश्वर देह के अवशेष को शेष रखकर ख़ूबसूरत पत्थर लगा देने से क्या होगा! समाधि लेने वाले ऋषि-मुनि तो कोई और लोग होते थे जो समाधि लेने की क्षमता रखते थे। मैं ठहरा साधारण मनुष्य!” 

“बात तो सौ टके की कही बापू!” महादेव भाई हँस पड़े। 

“हाँ! इतने साधारण कि पीटरमेरित्ज़बर्ग के रेलवे स्टेशन पर अँग्रेज़ अधिकारी से अपमानित होने के बाद, भीतरी ज्वाला के बल पर हड्डी के पोर-पोर में धँसती जाती ठंड को रात भर झेल गए और अजेय हो गए।” 

“देख-देख! कैसे मुझे असाधारण सिद्ध करने के लिए व्यंग्य करती है!” 

“क्यों ग़लत बात पर आप कम व्यंग्य करते थे! मुझे तो कोर्ट का वाक़या अब तक याद है जब चोर ने सफ़ाई देते हुए कहा था, ’आखिर मुझे भी तो जीना है’ उस समय बापू का व्यंग्य . . . बापू आप भूल तो नहीं गए . . . हाहाहा . . .” 

“अब हँसोगी ही या बताओगी भी।” 

“महादेव भाई! बापू ने व्यंग्य करते हुए कहा था, “तो तुम्हें भी जीना है!” अब उस बेचारे को कितना समझ आया, पता नहीं मगर बापू परेशान थे कि सच की राह से डिगकर कोई जीना चाहता है! भला क्यों? . . . बापू! समाधि से एक बात याद आई,” मैं अब बापू से मुख़ातिब हुई। 

“???” 

“अगर कोई जानबूझकर नदी की उफनती धारा में आगे बढ़ता जाए और मन में भाव भी डूब जाने का ही हो तो फिर यह आत्महत्या होगी या जल समाधि?” 

“समाधि योग की उच्चतम अवस्था है जो सत्य से साक्षात्कार कराने में सक्षम है। जल समाधि जटिल प्रक्रिया है। जल के भीतर ध्यानावस्था से समाधि की अवस्था में जाने के पीछे कोई प्रायश्चित या जीवन नष्ट करने जैसा भाव नहीं होता। वह तो चिदानंद से मिलन का एक इतर मार्ग होता है . . . वैसे तुम ये सब क्यों पूछ रही हो?” 

“राजा राम को जब अपनी निर्दोष सीता के प्रति किए गए अपने व्यवहार के लिए प्रायश्चित की राह न सूझी तो सरयु की गोद में उतर गए . . . यह कहते हुए कि ‘माँ मुझे अपनी शरण में ले लो’। और मचलती–थिरकती धारा को चीरते आगे बढ़ते गए, जब तक कि डूब न गए। ठीक ऐसी ही घटना लॉक डाउन के दौरान घटी जब मज़दूरन माँ भूख से बिलबिलाते बच्चों सहित गंगा की गोद में शरण माँगती हुई समाने गई। भूख की आग जलधारा तो क्या बुझाती! बेचारे मासूम नदी की गोद में समा गए मगर वह माँ डूब न पाई और ज़िन्दा बचकर अपने बच्चों की हत्यारिन माँ होने का दंश भोग रही है।” 

“कहना क्या चाहती हो?” 

“यही कि राजा राम मनुष्य थे और उनमें भी मानवोचित कमज़ोरियाँ थीं। वे आर्य साम्राज्य को विस्तार देने वाले रणनीति-निपुण राजा थे, इसमें कोई संदेह नहीं, मगर एक पति और पिता का हृदय भी तो धड़कता था, नहीं तो वे विलाप क्यों करते या प्रायश्चित के रूप में जीवनलीला समाप्त करने का निर्णय क्यों लेते! . . . यदि उन्हें महाप्रतापी आर्य राजा के रूप में ही रहने दिया जाता तो वेद में उल्लिखित ईश्वर राम का अस्तित्व सिद्ध रहता। घट-घट में, रोम-रोम में बसने वाले सर्वव्यापी राम जिनके लिए ‘नेति-नेति’ कहा गया . . . अरूप, निराकार, सर्वव्यापी राम . . . आपके-मेरे—हम सबके राम! उस रूप-अरूप-अपरूप राम का नाम आज कुछ ख़ास लोगों के द्वारा दहशत और नफ़रत फैलाने के लिए इस्तेमाल होता देखकर भला कौन ख़ून के आँसू नहीं रोएगा!” 

“तुम्हारी पीड़ा समझता हूँ। जिस ईश्वर का चित्त में ध्यान-मात्र से चित्त आनंदमय हो जाता है, जीवन-मृत्यु का भेद परत-दर-परत खुलने लगता है, जिसके नाम को हृदय में बसा लेने मात्र से मानवता की भावना बलवती हो जाती है। संसार के फैलाए सारे भेद, सारे प्रपंच से ऊपर उठकर देखने की दृष्टि मिल जाती है . . . मेरे उस राम को बदनाम किया जा रहा है! कोई भी सच्चा रामभक्त या संत यह सह नहीं सकता! . . . लेकिन अभी बात कुछ और ही है! बता, बात क्या है?” 

“बापू! क्या आप नहीं देख रहे, पहले एक विभीषण था, अब कई एक हैं। क्षुद्र निज स्वार्थ के लिए अपनी माटी की गरिमा तार-तार कर रहे और अपने ही घर के महापंडित और न्यायप्रिय सम्राट को बदनाम कर रहे हैं, जिनके कारण न सिर्फ़ मूल गौरवगाथा नष्ट हो रही, बल्कि कापुरुष महिमामंडित किए जा रहे हैं। और एक नई बात! कभी नेताजी को आपका विरोधी बनाकर-बताकर उन्हें महिमामंडित करते हुए फिर एक मूर्ति खड़ी की जा रही है तो कभी बाबा साहेब को आपका विरोधी जताकर वर्ग विशेष को गुमराह किया जा रहा है, जबकि सच तो ये है कि दोनों कुछ बातों में आपसे अलग मत रखते हुए भी आपके प्रति हमेशा नत-मस्तक रहे। नेताजी ने आपको राष्ट्रपिता घोषित किया तो बाबा साहेब ने विवाह के समय आपको याद करते हुए कहा कि ‘आज मेरे विवाह पर यदि कोई सबसे अधिक ख़ुश होता तो वे गाँधी होते’। दोनों के साथ आपकी संवेदना को नफ़रत के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। और बापू त्याज्य वर्ग के उत्थान के लिए आपने जो ज़मीनी कार्य किए, उसे कोई कैसे भूल सकता है या झुठला सकता है? यह कैसे सहन हो?” 

“सच दफ़नाया जा रहा है। यही तुम्हारे आवेश का कारण है।” 

“आवेश का नहीं, बापू चिंता का। . . . और इसकी चिंता सही दिशा में है।” 

“तो तुम्हें भी ऐसा लगता है महादेव?” 

“क्या आपको नहीं लगता?” 

“हम्म! दरअसल, चिंता की परिधि इतनी छोटी भी नहीं। . . . आओ, उधर चलें। खुली हवा में साँस लें। नहीं तो यह मेरे सामने मेरे ही नाम पर रखे इस पत्थर के आगे सिर पटकती रहेगी और लहू इसके भीतर टपकता रहेगा।” 

“बापू!” चलते-चलते मैं ठिठक गई। 

“क्या आपको नहीं लगता कि नफ़रत के ये गोले सोची-समझी साज़िश के तहत बरसाए जा रहे हैं। जाति-धर्म की बिसात पर वे मोहरे शिकार हो रहे जो समझ ही नहीं पा रहे कि उनकी हालत प्यादे से भी बदतर है। वे चल नहीं रहे, उन्हें शातिर हाथों द्वारा चलाया जा रहा है। वे तो बस मरनेवालों की अगली क़तार में खड़े किए गए नुमाइंदे हैं। . . . और अब कोई दूसरा गाँधी भी तो नहीं, जो आजीवन सत्य-अहिंसा पर अडिग रहने के कारण स्वयं क्षत-विक्षत हो, फिर भी आग बुझाने में लगा हो; जो भाषण पर नहीं कर्म पर विश्वास रखे और दलितों-शोषितों के उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर दे। महादेव भाई चक्रैया वाली घटना भूले न होंगे!” 

“सही कहा।” पास की नरम-नरम घास पर बैठने का इशारा करते हुए महादेव भाई बोले। 

“बापू जानते हैं कि मैं उनकी हर बात को गंभीरता से लेता हूँ। उस दिन काम की अधिकता थी। जाने कैसे मैं एकदम भूल गया कि मुझे दक्षिण भारत के दलित किशोर चक्रैया को साथ लिवाने स्टेशन जाना है। बापू ने हिदायत भी दी थी कि उसके लिए यह क्षेत्र नया है और यहाँ की स्थानीय भाषा भी, तो मैं समय से चला जाऊँ या किसी ज़िम्मेदार आदमी को भेज दूँ। अब भूल गया तो क्या सफ़ाई देता! बापू का सवाल यह नहीं था कि कैसे भूल गए? सवाल था कि क्यों भूल गए . . . इसलिए कि वह नामी हस्ती नहीं! मेरे मन में कहीं ऐसा भाव न था, मगर बापू की पीड़ा मैं समझ सकता था और अपराध बोध से भरा, उनके सामने खड़े रहने का साहस मुझमें नहीं रहा था।” 

महादेव भाई की बात सुनते हुए बापू के होंठों पर प्यारी मुस्कान खेलने लगी। उनके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, “महादेव जानता है कि ये मुझे कितना प्रिय है! और मैं भी जानता हूँ कि कस्तूरी और महादेव मुझसे रुष्ट हो सकते हैं, मेरा साथ नहीं छोड़ सकते। इसलिए कभी-कभी ज़्यादा कड़ाई कर गया। . . . प्रकृति भी जानती थी, तभी मौत का बुलावा भेजकर मुझेऔर इन्हें लाचार कर दिया। कस्तूरी की ममता ऐसी कि अपने इस बेटे के पास ही लेटी और हमेशा–हमेशा ममता लुटाती रही। ख़ैर! अब तू यहाँ ऐसे ही बैठी रहेगी या कुछ कर्म करने का भी विचार है?” 

“कोरे विचार से क्या होगा बापू? आर्थिक सामर्थ्य भी होनी चाहिए। अब मेरे पास कालेनबाक जैसा सहृदय साथी तो नहीं और न ही जमनालाल बजाज जैसा सहृदय अनुगामी जिनका मूक सहयोग वंचित समाज के प्रति मेरे सपने को रूप दे सके . . . । और मैं भी कहाँ मुक्तमना हो पा रही हूँ। आपकी तरह वैरागी समाजसेवी हो जाऊँ तो फिर किसी योग-साधना की भी ज़रूरत न हो। क्यों महादेव भाई, ठीक कह रही हूँ? आप भी तो ऐसे ही समर्पित रहे बापू और उनके सपनों के भारत को रंग-रूप देने में . . . शोषित वर्ण-वर्ग के उत्थान के लिए आपलोगों ने जो कार्य किए अफ़सोस है, वे सब विषैले धुएँ के हवाले हो गए।” 

“काफ़ी अच्छा बोल लेती हो। राजघाट के इस परिसर में बैठे-बैठे तुममें राजनेताओं के गुण आने लगे हैं। कोई पार्टी ज्वाइन कर लो, सारी तकलीफ़ दूर हो जाएगी।” 

“महादेव! इससे ऐसा मज़ाक मत करना। अभी बिगड़ जाएगी तो . . .” बापू ने हँसते हुए महादेव को टोका। 

“महादेव भाई! अगर मैं किसी पार्टी का ध्वज थाम लूँ तो क्या बापू मुझसे मिलने आएँगे? अगर आत्मसम्मान भूलकर लाल कारपेट पर साष्टांग नमन करने लगूँ तो क्या उनका मेरे प्रति स्नेह बना रहेगा? और अगर थोथी सुविधा की ख़ातिर मानवता की राह भुला दूँ तो वे मुझे माफ़ करेंगे? उनकी छोड़िए, आप जिस स्नेह से मिलने आए, क्या आप आएँगे? बापू के कहने पर आ भी जाएँगे तो क्या यों ही खुले दिल से मिलेंगे?” 

“अब जवाब दो महादेव! ये मारा तड़ाक!” बापू खिलखिलाकर हँस पड़े। इतनी मासूम हँसी कि उसकी शीतलता से आस-पास की तपिश कम हो गई।” 

“ओहो, बड़ी भूल हुई। मैं अपना कथन वापस लेता हूँ।” महादेव भाई जिस तरह तौबा करते हुए बोले कि मेरी हँसी फूट पड़ी। 

धूप पंख समेटने लगी तो हवा में भी नरमी आ गई। और वह दूब का बदन छू-छूकर खिलवाड़ करने लगी। बापू का इशारा पाकर, नरम घास की चादर छोड़ महादेव भाई के साथ-साथ मैं भी उठ खड़ी हुई और आदतन समाधि की दिशा में झुककर प्रणाम करने लगी।” देख-देख! महादेव!” बापू ठठाकर हँस पड़े . . . “मूल को छोड़कर प्रतीक की पूजा! सारी लड़ाई तो प्रतीक की ही है। तुम तो मूल पा चुकी। अब इस आदत से भी उबर जाओ और उबरने में मदद दो इस माटी को। देखो, कैसे कराह रही है! सारे रास्ते उसी मूल तक जाते हैं। ईश्वर किसी डिब्बे में बंद नहीं। जहाँ एक ही सूराख़ से जाया जा सके। क्यों? . . .” 

“हाँ, बापू! यह सहज बात जाने कब इन विकासपंथियों को समझ आएगी!” 

“केवल विकासपंथियों को ही नहीं महादेव भाई, बहुदेवपंथियों को भी। और तो और जो ख़ुद को एकेश्वरवादी कहते हैं, वे भी मैं और तुम का भेद रखते हैं। पूरे विश्व में द्वैत का जाल बिछा है।” 

“बोलो महादेव! क्या कहते हो? हैं कोई काट?” लाठी ज़मीन पर टिकाते हुए बापू बोले। दृष्टि नीले वितान के नीचे विचरते, ख़रगोश की तरह उछलते-कूदते नन्हे सफ़ेद बादलों पर जा टिकीं। थोड़ी देर निहारते रहे। फिर हमारी तरफ़ देखते हुए बोल पड़े, “चलो, चलें कुछ देर इन जीवनदायी वृक्षों के बीच रहें, उनका शुक्रिया अदा करें! जाने कब इनका भी ज़मीन से नाता टूट जाए और विकास के नाम पर बोनजाई बना दिए जाएँ! बरगद का रूप बदल गया . . . पीपल की अब बारी है। उजड़े जीव-जंतु, खग सभी . . .” 
“बापू! इंसान भी . . . मूलनिवासी इस देश के . . . विस्थापन की पीड़ा सहते, संघर्ष करते आ रहे युगों से। ज़मीन से उखड़ते हैं . . . उखाड़े जाते हैं और धीरे-धीरे खो देते हैं पहचान अपनी . . .” पहाड़ी कोल/भील और बैगाओं की दुर्दयनीय स्थिति याद आते ही मेरी आँखें डबडबा गईं। बापू ने सिर पर हाथ फेरा और कोई अदृश्य ऊर्जा भीतर संकल्प बो गई। उन्होंने आगे बढ़ने को क़दम बढ़ाया। उनकी दोनों तरफ़ महादेव भाई और मैं, साया बन चल पड़े . . . 

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टिप्पणियाँ

धर्मपाल सिंह 2022/06/07 04:50 PM

यथार्थ चित्रण किया गया है । गाँधी जी के माध्यम से वर्तमान स्थिति पर करारा व्यंग्य किया गया है। अब राम का नाम एक जरिया बन गया है अपने स्वार्थ को सिद्ध करने का।

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