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प्रायश्चित

 

‘हराम . . .! ससुरी, फोन पर हालचाल पूछने से मना करती है। अब जो कभी हाल पूछूँ मैं . . . मर भी जाए तो भी न शोक न करूँ . . .’ 

मेरा दिमाग़ भन्नाने लगा। जी चाहा, मोबाइल उठाकर उसी रेलवे ट्रैक पर दे मारूँ, पर विवेक जाग गया और फेंकने को उठा हाथ झटके से नीचे गिर, जाँघ पर टिक गया। 

‘संयम ने अभी-अभी तो मेरे जन्मदिन पर यह फोन दिया है। क्या ही जो दिन हुआ है . . . दो महीने पहले ही तो . . . 8 मार्च को . . . हर बार की तरह हँसता हुआ कि ‘पापा आपको लड़की होना चाहिए था। लड़की होते तो पूरा विश्व आपका जन्मदिन मना रहा होता।’ संयम, जैसा नाम वैसा गुण। सीओ बन गया है, मगर अब भी माँ के लिए मुन्ना ही है।’ 

‘और तुम्हारे लिए?’ 

मैंने इधर-उधर देखा। प्रयागराज के इस छोटे-से स्टेशन पर मुझे अपने जैसे दस-बीस साठ-सत्तरसालां बुड्ढों के सिवा कोई न दिखा। शाम को टहलने के लिए यह जगह मुफ़ीद है। मुख्य स्टेशन इलाहाबाद जो कि अब प्रयागराज जंक्शन हो गया है, यह उससे अलग है। आसपास के बुड्ढे घर के पिंजरे से निकलकर यहीं आ जाते हैं। टहलना तो बहाना होता है। वास्तव में, सब अपने लिए खुली साँस चुराने आते हैं और हमउम्रों के साथ मुँह फाड़कर ज़ोर-ज़ोर से बात-बेबात हँसने के लिए। घर में यह सम्भव नहीं। बेटे-बहू, पोते-पोतियों के बीच ऊल-जलूल बातों के प्रवेश की अनुमति नहीं है और न ही कोई गुंजाइश तो भला फ़ुज़ूल की हँसी कहाँ घुसपैठ करे। और उन दोनों पीढ़ियों के पास कहाँ इतना समय होता है कि मसखरी करें या करते हुए देखें-सुनें। और पत्नी के साथ . . . बाप रे बाप रिटायरमेंट के बाद अफ़सरी रुआब का भूत हमारे सिर से उतर भी जाए, इन पत्नियों के सिर से नहीं उतरता। उतरना तो दूर, भीतर कहीं गहरी पैठ बना लेता है। इतनी कि, रिटायरमेंट के बाद पुरुषों की की दशा घर में ज़ंजीर से बँधे पालतू कुत्ते जैसी हो जाती है। हर व्यवहार पर नज़र रखी जाती है। ऐसे में पहले की तरह किसी ख़ूबसूरत की तस्वीर देखने पर भी पहरा लग जाता है। बाक़ी, फूहड़ बातें और बेतुकी हँसी तो गई तेल लेने। गरिमा बनाए रखना होता है। . . . वैसे सब मेरे जैसे हों, ज़रूरी भी नहीं। बाबूजी का व्यक्तित्व, उसके पिता का व्यक्तित्व और उनकी साक्षात् गरिमामयी उपस्थिति–एक रौशनी कौंधती थी। मैं . . . मैं वैसा नहीं। फिर भी संयम आदर तो देता है, दिखावे के लिए सही। मैं इस लायक़ भी तो नहीं। 

उसे लगा, आँखें नम हो रही हैं। बंद होंठ में स्वर गुंगवाकर रह गए। ‘जिसके लिए इतना किया, आज वही कहती है—हालचाल पूछकर क्या करेंगे? अरे, हालचाल पूछ लेने से मन को तसल्ली होती है कि सब ठीक है, और क्या? यों भी मिलने का रास्ता तो उसने बंद कर ही दिया है।’

‘ओ, तो तुम्हारी तसल्ली के लिए वह झूठ बोले कि सब ठीक है। तुम पर विश्वास करके पिछले डेढ़ दशक से अब तक वह जिस कड़ी धूप में जल रही है, राख हो रही है, मगर फिर फ़ीनिक्स की तरह उठ खड़ी होने की कोशिश करती जा रही है। कभी सोचा है उसके बारे में? याद भी है, तुमने क्या-क्या वादे किए थे?’ 

मैं हड़बड़ाया, घबराया। नज़र के घोड़ों को दूर-दूर तक दौड़ाया, मगर स्थिति ‘गोद में बच्चा नगर में ढिंढोरा’ वाली बनी रही। आवाज़ मेरे भीतर से ही आ रही थी। साफ़, एकदम साफ़, पारदर्शी जल की तरह एक चेहरा सामने आ खड़ा हुआ जो मेरा होकर भी मुझसे अलग था। बाबूजी या उसके पिता की तरह धवल! वह इधर-उधर सिर घुमाता रहा, मगर आसपास कोई न दिखा। साँझ क्षितिज की सीढ़ियाँ उतरने लगी। आसमान लोहित हो चला। क्षितिज की हर सीढ़ी पर रंगों की पट्टियाँ सजने लगीं। पंछियों की क़तार सफ़र तय करने लगी तो मैं भी काठ वाली पब्लिक कुरसी छोड़, उठ खड़ा हुआ। वापसी को मुड़ा तो पैर भारी जान पड़े। एक-एक क़दम बढ़ाना कठिन होने लगा। प्रश्नों की बेड़ियों ने पैर जकड़ लिए, लेकिन लहूलुहान तो मन हो रहा था। 

‘ये रक्त तुम्हारे नहीं, उसकी आँखों से बरसे अंगारे हैं जो तुम्हारी धमनियों में जमने लगे हैं। ख़ैर मनाओ कि तुम्हारी करतूतों पर उसने तुम्हारी लानत-मलामत नहीं की। तुम्हारे चेहरे पर थूका नहीं। समाज के सामने ज़लील नहीं किया, जबकि ‘मी टू’ का द्वार खुला था। वह चाहती तो तुम्हें ब्लैकमेल कर सकती थी; दूसरी पत्नी होने के नाते सम्पत्ति पर हक़ जता सकती थी। पूरी ज़िन्दगी मान-सम्मान के साथ, साथ निभाने की तुम्हारी खोखली क़सम को अख़बारों में उछाल सकती थी। तुम भी जानते हो मीडिया की ताक़त को, मगर नहीं, उसने ऐसा कुछ नहीं किया। करेगी भी नहीं क्योंकि उसने तुम पर नहीं, मुझ पर विश्वास किया था। तुम! निरंकुश मन के ग़ुलाम, सुंदर देह की भीख चाहने वाले भिखारी! तुम, तुम भला क्या समझोगे!’ 

‘इतनी हिक़ारत मेरे भीतर से मेरे लिए उपज रही है, लेकिन क्यों?’ वह दिमाग़ पर दबाव बनाता लड़खड़ाते क़दमों से चल पड़ा। दो किलोमीटर की दूरी आज ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मन समय की विमान पर बैठा वर्षों पीछे लौट चला . . . 

रिटायरमेंट के अंतिम चार वर्ष! आख़िरकार मैं सारे ज़ोन का हेड बन ही बैठा। फिर तो घिसे पहियों वाली यह खटारा गाड़ी और तेज़ दौड़ने लगी। पटना की गलियाँ मुझे पहचानने लगीं। पद और प्रभाव का तमाशा हर रोज़ प्रभावी होता, हर रोज़ दफ़्तर में, ख़ासकर मेरे केबिन में देर तक रौनक़ रहती। मिलने-जुलने वालों का ताँता लगा रहने लगा। चाटुकारिता और काम—दोनों करनेवालों के अपने-अपने रंग-ढंग थे। ऐसे ही किसी ख़ास क्षणों में उसे देखा था। वह अलग थी, बिलकुल अलग . . . आधिकारिक प्रभावों से बिलकुल अछूती मानो मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। 

मेरे आमंत्रण पर सभी कर्मचारियों के साथ वह आ तो गई, मगर देखकर लगा कि अवसर पाते ही उठकर भाग जाना चाहती हो। तब मैंने ही उस पर निगाह टिकाकर बीच की दूरी को नापने का प्रयास किया था और वह सकुचाकर अपने में सिमट गई थी। वह बच्ची नहीं थी, किशोरी या नवयौवना भी नहीं, मगर सरलता और बौद्धिकता का संतुलन उसके व्यक्तित्व को आकर्षक बना रहा था। तीखे नैन-नक़्श, गेहुँआ रंग, गठीला बदन साड़ी के कत्थई रंग से मिलकर सुनहरा हो उठा था। मेरी निगाह उस पर टिकी तो सबकी निगाह मुझ पर टिक गई। वह दरवाज़े के नज़दीक, अपनी बग़ल वाली कुर्सी पर बैठी सहकर्मी योगिता को उठ चलने के लिए इशारा दे रही थी, मगर योगिता उसकी हथेली थपकाकर शांत बैठे रहने का संकेत करती रही। मेरी निगाहों ने सब देखकर भी अनदेखा रहने दिया और सीधे-सीधे सवाल उछाला—“आपकी नई जॉइनिंग है?” 

“जी नहीं, आपसे पहले से हूँ। फ़ुल टाइम जॉब के लिए मेरे पास समय नहीं, इसलिए पार्ट टाइम करती हूँ। समय क्यों नहीं है, इसके मेरे निजी कारण हैं।” कहते हुए उसने एक सवाल उछाला—“. . . यदि इस मीटिंग का कोई ख़ास प्रयोजन न हो तो क्या मैं जा सकती हूँ?” 

‘अजीब सम्मिश्रण है यह भी।’ मैं मन ही मन मुस्कुराया। 

“चाय पीकर जाएँ।” 

“जी, शुक्रिया! घर पर सब मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।” 

वह अदब से उठी और योगिता को बिना देखे आहिस्ते-आहिस्ते दरवाज़े से निकल गई। आँखें न चाहते हुए भी उस ओर टँग गईं। मन भी पीछे-पीछे जाता-सा लगा। केबिन में कानाफूसी शुरू हुई, “अन्विति को इस तरह नहीं जाना चाहिए . . . पार्ट टाइम जॉब है . . . उसे तो साहब को ख़ुश . . .”

“ये मोहतरमा . . .?” 

“अन्विति सिंह। पिछले बारह सालों से हमारे साथ अलग-अलग कार्यक्रमों से जुड़ी रही है।” 

“बारह सालों से? क्या बाल कलाकार के रूप में आती थीं?” मैं बेतुका सवाल पूछ बैठा। 

“नहीं सर, युववाणी में उद्घोषिका के रूप में। हालाँकि ‘बाल मंजूषा’ में भी हिस्सा लेती रहती हैं। अच्छी स्टोरी टेलर हैं। पिछले दो वर्षों से प्ले स्कूल की प्रिंसिपल हो गई हैं तो उनकी व्यस्तता बढ़ गई है।” 

“ओ, मैं तो . . .” 

“पच्चीस-छब्बीस का समझ रहे थे . . .” योगिता ने चुटकी ली। “सर! दस-बारह साल छोटी दिखती है। मगर राज़ पूछो तो कहेगी, “मैं तो खुली किताब हूँ और खुली किताब का राज़ क्या!” 

“सर, यदि अन्विति का चैप्टर पूरा हो गया हो तो हम मीटिंग के उद्देश्य पर बात करें?” मि. सिन्हा खिसियाते हुए बोले। 

“कुछ ख़ास नहीं। सोचा, आज शाम की चाय आपलोगों के साथ पी जाए . . . लीजिए चाय आ गई।” 

“और गरमागरम ब्रेड पकौड़ा भी,” मिश्रा जी ने मेरी बात आगे बढ़ाई। 

“कल अन्विति को बताऊँगी।” 

“फिर अन्विति?” 

“योगिता जी, आप अपनी चाय का आनंद लीजिए। दूसरों की चिंता क्यों करती हैं?” सिन्हा जी ने टोका। 

“वैसे आप अन्विति से इतना चिढ़ते क्यों है?” 

मेरे सवाल से सिन्हा जी हड़बड़ा गए। चाय गिरते-गिरते बची। 

“जी, ऐसी कोई बात नहीं,” उन्होंने मेरी तरफ़ चोर नज़रों से देखते हुए खीसें निपोरी। 

मेरी निगाह मिश्रा जी पर जा टिकी। चालीस वर्ष के लंबे, दबंग मिश्रा जी दूध को दूध, पानी को पानी कहने वालों में से थे। एकदम निर्भीक। मेरे अनकहे प्रश्न उन्होंने भी आँखों से चुन लिए मगर ध्यान चाय-समोसे पर टिकाए रखा। धीरे-धीरे सबके जाने के बाद मिश्रा जी ने सफ़ाई कर्मचारी को बुलाकर केबिन साफ़ करने का निर्देश दिया, फिर मेरे सामने वाली कुरसी पर आकर बैठे। मेरी उत्सुक आँखें मिश्रा जी पर टिक गईं। वे मुस्कुराए और बिना लाग-लपेट के बोलना शुरू किया, “अन्विति उन कामकाजी महिलाओं में से नहीं है जो त्रिया चरित्र साधे। वह अपने काम और अपने परिवार के बीच संतुलन बनाकर चलना पसंद करती है . . . और चलती भी है। उसे बाहरी दुनिया की भागती रफ़्तार से कोई मतलब नहीं है और उसके जीवन में कोई घुसपैठ करे, यह उसे बिलकुल पसंद नहीं है। अच्छी बात यह है कि पिछले बारह सालों में कोई भी उसके काम में एक नुक़्स नहीं निकाल सका है . . . सिन्हा जी भी नहीं। अब उसे गॉसिप में टाइम पास करना या आगे बढ़ने के लिए शॉर्टकट लेना पसंद नहीं है तो इसमें बुराई क्या है! भई, किसी की बहू है, पत्नी है और माँ भी तो . . .” 

मिश्रा जी की बेबाकी अच्छी लगी। यह संकेत मेरे लिए था। शायद बनारस की धूल उड़ती हुई उनके कानों में कुछ कह गई थी। मैं मुस्कुराकर रह गया। 

“आप बहुत कुछ जानते हैं मिश्रा जी!” 

“जी सर! हमारी जॉइनिंग लगभग एक समय की ही है। मुझे स्थायी होने के लिए मशक़्क़त करनी थी, उसे स्थायी होना नहीं था, तो समय से आती-जाती रही। कुछ कार्यक्रम हमने साथ-साथ भी किए हैं। मैंने आगे बढ़कर कभी कुछ जानने की कोशिश नहीं की, शायद इसलिए इतना अधिक जानता हूँ।” 

वे मुस्कुराते हुए उठ खड़े हुए और अनुमति लेकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गए। 

♦♦♦

“आप चाहें तो चलें, ऑफ़िस की गाड़ी रहेगी ही। आपको वापसी में दिक़्क़त नहीं होगी,” केबिन में उसे बुलाकर कहा। फिर नज़र मिश्रा जी की तरफ़ मोड़ दी, “इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्घोषक मिश्रा जी हैं। आप दोनों की जुगलबंदी से कार्यक्रम और आकर्षक हो जाएगा।” 

“जी मैं . . .” वह झिझकी। 

“आपके पति चाहें तो वे भी आ जाएँ। कार्यक्रम का आनंद लें। ये मेरा नहीं, आयोजकों का आग्रह है। श्रोता आपको सामने देखना-सुनना चाहते हैं।” 

वह कुछ बोल न पाई। एक बार नज़र उठाकर मिश्रा जी की तरफ़, फिर मेरी तरफ़ देखा, “बताती हूँ सर!” कहकर अदब के साथ बाहर निकल गई। दूसरे दिन मिश्रा जी ने बताया, उसने हामी भर दी है। यह पहली दस्तक थी जिसने अन्विति के जीवन में मेरे लिए प्रवेश द्वार खुलवाया और फिर यों ही उसे और उसके परिवार को शामिल करता हुआ दो वर्ष बाद आख़िर उस जगह पहुँच ही गया जहाँ एक स्त्री किसी को सेंध लगाने नहीं देती, स्वेच्छया अधिकार देती हुई बिठाती है और बड़े जतन से विश्वास की डोर का एक सिरा अपने भीतरी गुफा में सुरक्षित रखती है तो दूसरा सिरा आगंतुक को थमाती है जो उस गुफा में रहने लगता है। पूरे दो वर्ष बाद उसके दिल में जगह बना पाया। अफ़सर बनकर नहीं, साथी और शुभचिंतक बनकर। 

‘यह माँग भी तो तुम्हारी ही थी,’ भीतर से आवाज़ आई। 

‘हाँ, तो मुझे कब इनकार है! मैं मानता हूँ कि व्यास और बच्चों का दिल जीतने के बाद ही उसके दिल तक पहुँच सका,’ मैं झल्लाया। ‘लेकिन अभी इतने वर्षों बाद गड़े मुर्दे उखाड़ने का क्या मतलब?’ 

‘गड़े मुर्दे? उसकी ज़िन्दगी नर्क करके भी तुम चाहते हो कि वह तुम्हें पहले की तरह अपना मानती रहे और तुम्हारी थोथी बातें झेलती रहे?’ 

‘हाँ, हाँ! मैं ही बुरा हूँ। मैंने तो उसके लिए कुछ किया ही नहीं!’ 

‘हाँ, नहीं किया। जो किया, वह ख़ुद के लिए रास्ता बनाने और उसको पाने का बेहूदा तरीक़ा था, जिसमें व्यास फँस गया और व्यास की वजह से वह। और यह तुमने कोई पहली बार तो किया नहीं— सुगंधा के साथ भी तो यही किया था।’ 

‘उसको मेरी ज़रूरत थी।‘ 

‘ज़रूरत! किस ज़रूरत की बात कर रहे हो? क्या उसने आगे बढ़कर तुमसे कुछ कहा था?’ 

‘वह एक आवेग था जो दोनों को ले डूबा। और उसके बाद सुगंधा अपना त्रिया चरित्र . . .’ 

ज़ुबां अचानक तालु से जा चिपकी। बीस-बाइस वर्ष का अंतराल साँझ के धुँधलके में छिप गया। नज़र आई सुगंधा। सुगंधा—भरी-पूरी, मांसल देह वाली गोरी-चिट्टी महिला कर्मचारी—स्थायी नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारती, लुभावनी मुस्कान की मालिकिन। पहली बार उसको देखा तो उसके आकर्षक भाव-भंगिमाएँ देखता ही रह गया। धीरे-धीरे अतीत मुँह चिढ़ाता सामने आ खड़ा हुआ। 

♦♦♦

“सर! दीप्ति मैडम फ़ाइल भेजी हैं, बोली हैं कि हो सके तो अभिये कर दीजिए,” अनुमति लेकर केबिन में टेबल के क़रीब आकर रुकती हुई वह बोली। सामने खुली फ़ाइल में घुसे सिर को ऊपर उठाते हुए उसको देखा तो निगाह दमकते गोरे चेहरे को चूमते काले बालों के लट पर टिक गई। उसके होंठों पर शरारती मुस्कान तैरने लगी। कुछ क्षण बाद उसने टोका, “सर! फ़ाइल! छोड़ दें कि आप अभिये देख लीजिएगा?” 

“आप?” 

“सुगंधा!” 

“बैठिए, देखता हूँ।” 

सामने पड़ी कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए मैंने कहा। इच्छा हुई, सामने बैठी मूरत को निहार लूँ, मगर ख़ुद को नियंत्रित किया। फ़ाइल पलटी, साइन करके उसकी ओर बढ़ा दिया। वह बलखाती हुई उठी हालाँकि काया छरहरी न थी, लेकिन कुछ तो था जो बरबस मन को खींचने लगा। गोरी गरदन से नीचे झूलते, खुली पीठ को चूमते और कमर को छेड़ते उसके लंबे बाल आमंत्रण देते हुए-से लगे। साड़ी का पल्ला पतली पट्टी बना अपनी उपस्थिति का एहसास कराए बिना उसके गदराए बदन पर निखार ला रहा था। वह दरवाज़े तक जाकर रुकी, गरदन घुमाई और अभिवादन करती हुई नज़र से टकराई मगर उसकी नज़र झुकी नहीं, इतराई। इस इतराहट ने भीतर खलबली मचा दी। 

‘वह आमंत्रण था या कुछ और?’ कसमसाते मन को लगाम लगाता हुआ मैं फिर फ़ाइलों में उलझ गया। 

♦♦♦ 

“साब! आप अभी रुकेंगे?” 

“कितना टाइम हो गया?” बुदबुदाते हुए मैंने घड़ी पर दृष्टि डाली। “ओह! सात बज गए.” मैंने फ़ाइल मोड़ी। हाथ उठाकर अकड़े बदन को सीधा किया। मोबाइल उठाया और केबिन से बाहर निकल गया। 

“आप अब तक गईं नहीं?” 

मुख्य द्वार पर उसे किसी का इंतज़ार करते देखकर टोक दिया। 

“आप रोज़ इतनी देर काम करते हैं?” 

 मेरे सवाल को हवा में झुलाकर उसने अपना सवाल दागा। 

“नहीं! मगर आज का काम कल पर नहीं छोड़ता,” कहते हुए मैंने क़दम बाहर निकाला तो उसने भी क़दम बढ़ा दिए। 

“किसी का इंतज़ार कर रही हैं?” 

“हाँ, लेकिन अब जा रही हूँ।” 

संग-संग क़दम बढ़ाती हुई वह अफ़सर क्वार्टर के मुख्य द्वार तक चली आई। 

“कितने दिनों से आपसे बात करना चाह रहे थे। आज जाके अवसर मिला, अच्छा लगा।” 

“कोई ख़ास बात?” 

“नहीं, ख़ास ती नहीं। आप अकेले रहते हैं?” 

“हाँ, परिवार इलाहाबाद में रहता है।” 

“ओह! फिर तो आपको बड़ी दिक़्क़त होती होगी।” 

दरवाज़े तक आकर संवाद बनाए रखने की इच्छा देखकर औपचारिकतावश टोका, “देर न हो रही हो तो चाय पीकर जाइए।” 

“फिर तो मैं चाय बनाऊँगी।” 

कहती हुई वह और क़रीब खड़ी हो गई। इतनी कि दरवाज़े का ताला खोलते हुए अब मैं उसकी तेज़ साँसों को सुन ही नहीं, पारदर्शी गुलाबी साड़ी के भीतर से गुज़रते देख भी रहा था। मेरे हाथ सुन्न होने लगे। भीतर रसोई जाकर सारी चीज़ें दिखाकर बैठक में आ गया। रसोई में कुछ गिरने की आवाज़ सुनकर आगे बढ़ा और अचानक बिजली का झटका लगा। वह मेरे आग़ोश में थी। चाय के उबलते पानी के साथ ही दोनों के भीतर का उबाल छलकने लगा। 

“सुगंधा! मैं . . .” चेतना जगी, तब तक देर हो चुकी थी। मैं घबराया। सुगंधा लेटी रही। उसकी मुँदी पलकों के भीतर तृप्ति का एहसास पाकर ज़रा सामान्य हुआ। उसकी धड़कन अब सामान्य चल रही थी। कुछ देर यों पड़े रहने के बाद वह उठी। ख़ुद को व्यवस्थित किया। मेरी तरफ़ देखा और झट दरवाज़े से बाहर हो गई। मैं उसका चेहरा पढ़ पाने में नाकाम रहा। उसका चेहरा शांत था मानो कुछ हुआ ही न हो। शुचि के सिवा किसी स्त्री के देह की सुगंध ने पहली बार बाँधा था और इस बँधन ने सारे बाँध तोड़ दिए। 

‘शुचि जानेगी तब क्या होगा? ऑफ़िस स्टाफ़ जानेंगे तब क्या होगा?’ मैं पसीने-पसीने होने लगा। ‘मगर मैंने उससे कोई ज़बरदस्ती नहीं की, वही आ टकराई और फिर दोनों ही बह गए। आनंद के वे क्षण दोनों ने साथ-साथ जिए, क्या फिर भी सुगंधा बाद में कोई एक्शन लेगी? ले सकती है? फिर क्या होगा?’ 

ऐसा लगा मानो सोच और आशंका ने देह में बची-खुची जान निकाल ली हो। रात के साढ़े आठ बजने को आए। मैं यों ही पड़ा रहा। निरर्थक। 

♦♦♦

ट्रिन-ट्रिन की घंटी ने चौंकाया। ‘परिवार वाले या मित्र तो इस खिलौना मोबाइल पर ही फ़ोन करते हैं, फिर लैंड लाइन पर आज छुट्टी के दिन सुबह-सुबह . . .’ सोच के साथ मिचमिचाती आँखें बैठक के टेबल पर रखा फ़ोन उठाते ही झटके से खुल गई। 

“परनाम सर, आज दोपहर के भोजन न्योता देने फ़ोन किए हैं,” एक मर्दानी आवाज़ गूँजी। 

“आप?” 

“जी हम सुगंधा का पति बोल रहे हैं। बचवा का बारहवीं का रिज़ल्ट आया है। इसी ख़ुशी में . . . कोनो पाटी-उटी नय है। आप आइएगा तो उहे पाटी हो जाएगा। बचवा को आशीरबादो मिल जाएगा।” 

“मैं . . .” 

“कोई बहाना नहीं, आपको आना पड़ेगा।” सुगंधा की आवाज़ गूँजी। उसके स्वर में अधिकार भाव घुला नज़र आया। हामी भरकर समय तय करके मैंने फ़ोन रखा और साँस खींचकर कलेजे तक भरा। ‘इसका मतलब सुगंधा ने पति से कुछ नहीं कहा।’ 

“तो अंकुर, आगे क्या करने का इरादा है?” लंच के बाद कॉफ़ी का घूँट भरते हुए मैंने यों ही पूछ लिया। 

“जी, इंजीनियरिंग की कोचिंग करना चाहते हैं, लेकिन पापा . . .” 

“अब साहेब! आप भी तो बाल-बच्चेदार आदमी हैं, बुझबे करते होंगे, बिना ढंग का नौकरी के घरे चलाना मुश्किल है, लाख टका देकर कहाँ से भेजें, फिर हॉस्टल और बाक़ी फूटफाट ख़र्चा भी तो हर महीना होइबे करेगा। एक फोर्थ ग्रेड का आदमी कहाँ से एतना बड़ा सपना पूरा करेगा!” 

“अरे लेकिन . . . बेटे एडमिशन में कितना लगेगा और मन्थली कितना लगेगा, बताना।” 

अंकुर उसी समय सारा हिसाब-किताब लेकर बैठ गया। सुगंधा आशा भरी निगाह टिकाए रही। 

“ठीक है। हो जाएगा। तुम अप्लाई कर दो।” 

“अंकल गार्डियन में आपका ही नाम डाल दें। उ लोग बीच-बीच में गार्डियन से बात करता है।” 

“ठीक है। . . . अच्छा, अब अनुमति दीजिए।” 

मैंने हाथ जोड़े और बाहर निकल आया। वे सब हाथ जोड़े रहे। 

‘कुछ मदद कर दूँगा तो शायद ग्लानि कुछ कम हो।’ मैंने तसल्ली महसूस की। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। गड्ढों में गाड़ी के झटके के साथ ही मन भी भटकाव से बाहर आ जाता। 

♦♦♦

“अंकुर कह रहा था, पैंट घिस गया है,” ब्लाउज़ का हुक लगाती हुई वह बोली। “साल भर से बेसी हो भी तो गया।” 

“कितना चाहिए? 

“कम से दो हज़ार . . . ” 

“अभी एक तारीख़ को ही तो पाँच हज़ार भेजा था।” 

“अरे तो कौनो चबा थोड़े ही न रहा है। निकालिए, कोई बहाना नहीं चलेगा। आप क्या निकालिएगा, हम खुदही ले लेंगे,” कहती हुई पास रखे पैंट की ज़ेब से पर्स निकालकर वह खिखियाकर हँसने लगी। “दोसर बीबी तो हमीं हैं न!” 

सुगंधा की बोली का टोन बदल गया। ऐसे अवसर पर अक्सर उसकी बोली गँवारू हो जाती और अंदाज़ बाज़ारू-सा। उसने पर्स में ऑटो से क्वार्टर जाने लायक़ रुपये छोड़ दिए, बाक़ी निकालकर ब्लाउज़ में घुसा लिया और उठ खड़ी हुई। मैं हारा प्यादा-सा ख़ुद को छला हुआ महसूस करता कुछ देर पड़े रहना चाहता था, मगर उसकी घंटी बजने लगी। 

“बड़े साहब! अब जाइए। शंकर आता ही होगा। अब ई बखत आपको यहाँ देखेगा त अच्छा थोरियो न लगेगा।” 

बेशर्मी से अंगड़ाई लेती वह बोली और जवाब का इंतज़ार किए बिना रसोईघर की तरफ़ बढ़ गई। मैं ख़ुद को दिनोंदिन उलझता महसूस करता हुआ दरवाज़े से बाहर निकला। 

‘जेठ की दुपहरी में क्या उसने पैसे ऐंठने के लिए बुलाए थे? ज़रा भी न सोचा कि . . . अब क्यों सोचने लगी, अब तो परमानेंट हो ही गई। मुझे अपने मकड़जाल में फाँसकर हिटलर बन रही है ससुरी। न जाओ, न टोक-टाक करो तो कुछ न कुछ बहाना करके अपने घर बुलाती है। न जाऊँ तो बिना अनुमति के क्वार्टर धमक जाती है। मुझे बदनाम करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगी। उसका यह नया रूप मुझे पहले से अधिक डराने लगा है। दफ़्तर में भी किसी बात के लिए मना करने पर उसके स्वर में तल्ख़ी उतर आती है। समझ नहीं पा रहा हूँ, क्या करूँ? किससे सलाह लूँ?’ 

अभी चौक पर आकर खड़ा ही हुआ कि पास किसी की आवाज़ सुनाई दी, “तबादला ले लो।” कोई मोबाइल पर किसी से कह रहा था। इस झुटपुटे पहर में बिजली कौंधी। ‘तबादला। हाँ, यह एक रास्ता है। यही एक रास्ता है।’ ऑटो रोककर चढ़ा और दिमाग़ तबादले की वजह और जगह पर टिका दिया। आवेदन पत्र में यही दो बिंदु महत्त्वपूर्ण होते हैं। 

♦♦♦

दूरदर्शन, पटना। नई जगह होकर भी नई जैसी नहीं। मातहत अफ़सर, कर्मचारी सभी सम्मान देनेवाले, कहीं कोई ख़लिश नहीं। ऐसा लगा, जिस्म में जान लौट आई हो। अभी छह महीने भी तो नहीं बीते कि चपरासी ने एक पर्चा लाकर थमाया। ‘सुगंधा, यहाँ!’ माथा ठनका। 

 “भेज दो। दो कप चाय भी भेज देना। मेरे लिए फ़ीकी। उनकी उनसे पूछ लेना।” 

चपरासी के जाने के दो मिनट बाद वह सामने थी। 

“पूछियेगा नहीं, यहाँ कैसे?” 

“इसमें पूछना क्या है, तुम्हारा उद्देश्य स्पष्ट है।” 

“कहाँ ठहरी हो?” 

“सामान बाहर है। क्वार्टर की चाबी दीजिये और चपरासी भेजिये। वहीं बात करेंगे।” 

“तुम्हारा दिमाग़ ठीक है?” 

“अभी तक तो ज़्यादा ख़राब नहीं हुआ है। हो जाएगा तो मुश्किले हो जाएगा न!” उसके स्वर में कुटिलता ठसाठस भरी हुई लगी तो चुप रहने के सिवा कोई उपाय न सूझा। घंटी बजाई। चपरासी हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। 

“गेस्ट हाउस का एक कमरा मैडम के लिए चेक करके आओ, फिर इनको लेते जाना।” 

चपरासी अदब से सलाम ठोंककर चला गया। वह कुछ बोले, उसके पहले मैं अपने पद के रुआब में आया। 

“आप पूर्णिया की स्टाफ़ हैं। यदि दफ़्तर के काम से आई हैं आपको वहाँ से पत्र लेकर आना चाहिए था और नीचे जमा देना चाहिए था। अगर निजी तौर पर घूमने आई हैं तो आकाशवाणी उसके लिए उत्तरदायी नहीं है। फिर भी मैंने आपके लिए व्यवस्था कर दी है। आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए। बिना सूचना और अनुमति के तो बिल्कुल नहीं। अभी चपरासी आता होगा, आप जाइए। मैं वहीं मिल लूँगा।” 

वह तमतमाती हुई उठ खड़ी हुई। 

“कल सुबह-सुबह मुझे स्टाफ़ के साथ दौरे पर जाना है। तो आज काम निपटाकर ही दफ़्तर से निकलूँगा। आप क्या करेंगी, देख लीजिए। गेस्ट हाउस भी दो दिन से अधिक अलाव नहीं होगा।” 

“गिरगिट हैं कि मगरमच्छ?” वह भद्दे और ओछे ढंग से हाथ नचाती हुई बुदबुदाई। फिर लगभग पैर पटकती हुई बाहर निकल गई। 

♦♦♦

‘सुगंधा मेरे नैतिक पतन का कारण बनी।’ 

‘तुम्हें क्या लगा, उससे मिलने से पहले तुम चरित्रवान थे, वह नहीं?’ मेरा आत्म मुझे लगातार अपराधी घोषित करता रहा और मैं अपने आप से थका-हारा उसे जवाब देते-देते बिखरने लगा – 

‘कह नहीं सकता। मगर उसने मेरा उपयोग किया, भरपूर किया। तब भी चैन न मिला तो दो-दो बार पटना तक पहुँच गई। यह कैसा प्यार?’

‘स्त्री जब मन सौंपती है तो मन के साथ प्राणतत्व जुड़ा होता है, समर्पण होता है, पवित्र प्रेम होता है मगर जब तन सौंपती है तो धीरे-धीरे वासना की कलुषित छाया उसे भ्रमित करती है। उसके भीतर यह भाव जागता है कि उसका प्रेमी उसकी बाहरी सुंदरता और देह के मोह में टिका है। तुम दोनों के बीच प्रेम उत्पन्न हुआ ही कब? परस्त्री को भोगसामग्री बनाकर तुम यह समझते हो कि उसके बाद भी वह अपने पति के साथ सामान्य जीवन जी सकेगी, जैसे कि तुम शुचि के साथ—तो तुमने स्त्री को समझा ही नहीं। हमारी परंपराओं और मान्यताओं ने स्त्री की शुचिता को उसकी देह से मापा, तो भला वह स्त्री क्या करे जो बहकावे में आकर भूल कर बैठे।’ 

‘सुगंधा ने कोई भूल नहीं की। यह शॉर्ट कट तरक़्क़ी पाने का उसका रास्ता था। भूल मुझसे हुई। मुझसे . . .’ 

अजीब-सी घृणा की बेल मन के चारों ओर फैलने लगी। सुगंधा की छवि ओझल होने लगी। दूसरे दृश्य हवा में तैरने लगे। पेड़ों से टकराकर बहती हवा में थोड़ी नरमी थी, बावजूद इसके मैं पसीने से लथपथ डगमगाता चलता रहा। इससे पहले भीतरी गुफा से ऐसा शोर कभी नहीं उपजा था, तब भी नहीं जब सुगंधा को बिना बताए तबादला ले लिया था और फिर मिलने का वादा कर पूर्णिया से इलाहाबाद चला आया था। इस बार मैं अकेला नहीं लौटा, मेरे साथ भय भी घर लौटा था। मेरे भीतर जमकर बैठ गया था। मैं शुचि से आँख मिलाने से कतराने लगा था। शुचि कम पढ़ी-लिखी ज़रूर है, मगर मेरी आती-जाती साँसों पर भी उसकी नज़र रहती है। उसकी शक की बीमारी आख़िर उसकी परख बन ही गई कि उसका यह अफ़सर पति अब बँट चुका है। शुचि ने संयम से कहकर बैंक के सारे खाते में अपना नाम जुड़वाने की सलाह ली, दबाव बनाया और एकाउंट के सारे हिसाब-किताब पर नियंत्रण रखने लगी। अब मैं कुछ भी निकालकर ख़र्च कर दूँ, इसकी सम्भावना ख़त्म होने लगी। घर में झगड़े शुरू हो जाते। मैं थकने लगा। उन दोनों से दूर कहीं भाग जाना चाहता था। समझने लगा था, मुझे खोया जानकर शुचि चल पूँजी पर मालिकाना हक़ सुरक्षित कर रही है। और पूँजी के बिना सुगंधा ख़ुद को ठगा हुआ। उसके बेटे को कोचिंग आधे में रोकनी पड़ी। मेरे तबादले ने सुगंधा को आती आमद का रास्ता बंद होता दिखा दिया तभी तो मुझे ढूँढ़ती हुई पटना आ गई। 

‘सचमुच? अरे तुमने तो सुगंधा की ग़रीबी का मज़ाक बना दिया। उसे गुनाहगार बना दिया। क्यों नहीं मान लेते, पद और मीठी बोली के हुनर ने सीधे लोगों के घर के दरवाज़े तुम्हारे लिए खुलवा दिए।’ 

‘ऐसा नहीं है। मैं स्त्रियों का सम्मान करता हूँ।’ 

‘अच्छा! अन्विति के जीवन को जलती भट्ठी में धकेलने के बाद भी ऐसा कहते हुए तुम्हें ग्लानि नहीं होती? क्या वह एक क़दम भी तुम्हारी तरफ़ बढ़ी थी? क्या उसने कभी त्रिया चरित्र का जाल फैलाया था?’ 

‘नहीं! लेकिन मैंने भी तो दिल से उसका सहयोग किया। उसका क्या, पूरे परिवार के साथ खड़ा रहा।’ 

‘और जब तुम्हारी वजह से परिवार और समाज ने उसे ताने दिए तब तुमने क्या किया? घर जाने से पहले मंदिर में दर्शन के बहाने गए और उसकी माँग भर दी। कह दो कि वह भी अन्विति की चाल थी।’ 

‘नहीं . . . वह . . . वह . . .’ 

मैं हकलाने लगा। गोधूलि में क्षितिज निहारने की हिम्मत न बची। मन आत्मग्लानि में धँसा जाता। अन्विति के फूट-फूटकर रोने की आवाज़ कान में गूँजने लगी। मुझे धिक्कारता मेरा आत्म आसमान में तनी रात की झीनी चादर के सुरमई रंग में विलीन हो गया। रह गया मैं अपने को कोसता हुआ! 

‘हाँ, मैंने उससे वादा किया था जीवन भर साथ निभाऊँगा; निभाना चाहता था मगर उसके स्वाभिमान ने ऐसा होने नहीं दिया। कैसे समझाऊँ उसे कि तुम आज भी मेरे हृदय में हो। अन्विति! काश! तुमने मेरी बात मान ली होती तो इतने कष्ट न भोगती!’

शरीर हवा में झूलता तो कभी मन भर का बोझ उठाए मालूम होता। अन्विति की आँखें मेरे आगे-आगे चल रही थीं। उससे अपनी भूल की माफ़ी माँगता मैं लड़खड़ाता हुआ एक-एक क़दम बढ़ता रहा। 

‘कैसे झुठला दूँ कि तुम्हारे घर-परिवार और ख़ासकर तुम्हारे जीवन में प्रवेश पाकर मेरी दुनिया बदलने लगी थी। तुम्हारी घुटन कभी समझ नहीं पाया। तुम व्यास को किए गए सहयोग के कारण दबती रही। मेरे साथ कहीं आने-जाने, उठने-बैठने से इनकार करने की तुम्हारी दृढ़ता घटती गई और मैं समझता रहा कि तुम्हें पा लिया। कितना मूर्ख था मैं। तुम्हें सुगंधा समझने की भूल तो नहीं की लेकिन तुम पर एहसान कर तुम्हें पाना चाहा। ओह, अन्विति, तुमने समय रहते सचेत क्यों न किया, क्यों अकेली झेलती रही? घर भी और बाहर भी . . . ’

मेरी आँखों के सामने अँधेरा सघन होने लगा। एक धुँधली तस्वीर उभरी और चिंद-चिंद होकर बिखर गई। मैं कुछ न कर सका। उसे मुकम्मल होने तक सँभाल न सका। सोचा था, सब ठीक कर दूँगा। मगर सोच कहाँ टिकती है! वह दिनों-दिन टूटती-बिखरती चली गई और रिटायरमेंट के बाद मैं अपने दामन को छींटों से बचाता उससे मुँह चुराए घर लौट आया। 

एक गहरा सन्नाटा भीतर पसरता अनुभव हुआ। मैं अपने आप से नज़रें चुराने लगा। अपनी ही भीतरी आवाज़ की सच्चाई से भाग जाना चाहा, मगर हिल न सका। यही सच था। उसके कठिन दिनों में मैं जिसे साथ देना समझकर अहंकारी और ग़ुस्सैल होता जा रहा था, वह साथ देना तो दूर, उसके एहसास से भी अलग ही कुछ रूप ले चुका था जिससे उसका दम घुटने लगा था। मैं भूल गया था कि मैं अपने व्यवहार से न केवल उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा रहा हूँ बल्कि उसकी नज़र में अपने आप को गिराता जा रहा हूँ। 

अपने परिवार को बिखरने से बचाने की चिंता में मैं अपनी पुरानी देहरी में सिमटकर रह गया। पद पर रहते हुए, उसके परिवार के लिए की गई छोटी-बड़ी मेरी हर मदद उस पर एहसान की कील ठोकती जाएगी और बाद में उसके गले का फँदा बन जाएगी, मेरी कल्पना से भी बाहर था। शायद उसे आभास होने लगा था, तभी तो . . . 

‘ओह! ये क्या किया मैंने!’ 

मैंने अपना सिर पकड़ लिया। मेरी आँखें खुल गईं। मन पश्चाताप करने लगा। जिसे मैं ‘करना’ मानता रहा . . . क्या सचमुच मैंने उसके लिए कुछ किया? कुछ ऐसा कि उसकी तपती ज़िन्दगी में थोड़ी शीतलता आ सके? नहीं, एक भी वादा पूरा नहीं कर सका, उल्टा उस पर ही अविवेकी और बद्दिमाग़ी होने का आरोप लगाया। ग़ुस्से में क्या कुछ नहीं बोल गया। ठीक ही तो कहती है, क्या होगा हाल बताकर? मैंने कब उसके लिए चँदोवा ताना? मैं शुतुरमुर्ग! अपने को सुरक्षित रखकर हर बार फोन पर यह सुनना चाहता हूँ कि वह मज़े में है और खोखले आश्वासन परोसना चाहता हूँ कि वह बड़ी हिम्मतवाली है जो अपने बलबूते फिर से अपनी नई जगह बना रही है। मगर, क्यों सुने वह? जबकि उसे झुलसाने वाले हाथ सिर्फ़ व्यास के नहीं, मेरे भी रहे हैं। मैं ही उसके बिखराव का कारण बना। उसने ठीक ही किया जो आज खुलकर लताड़ दिया। 

मैं अपनी भूल को मथता मन के उस कोने को टटोलने लगा जहाँ उसके प्रति आकर्षण ने प्रेम का रूप ले लिया था। आकर्षण में करुणा के लिए कोई जगह नहीं होती जबकि प्रेम तो अपने उजास में सारे मैल धो देता है। प्रेम क्या होता है, उसकी सात्विकता, उसकी व्याप्ति भी तो उससे, उसी से तो जानी-समझी थी। उसके विश्वास और समर्पण ने जो दृष्टि और जो साहस दिया दिया था, वह बूँद-बूँद कर रिसता गया तभी तो शुचि से कभी कह नहीं पाया कि मैं उससे बेहद प्यार करता हूँ और उस डोर के पूरी तरह टूट जाने से डरता हूँ।

क्या उसने सचमुच निश्चय कर लिया है कि सम्बन्ध और संवेदना के खोखलेपन को उखाड़ फेंकेगी? रेशे कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं। क्या पता, कब वह एक झटका दे और . . . 

मैंने आसमान देखा। नीलेपन पर धूसर की परत अच्छी नहीं लगी तो नज़र हटा ली। दिल-दिमाग़ में मचे घमासान युद्ध को बेअसर करना मेरे हाथ में न रहा। ‘घर के भीतर शुचि का राज है। वहाँ मैं होकर भी नहीं हूँ। मैं कहाँ हूँ? क्या वक़्त ने मुझसे मेरे होने को ही छीन लिया है? . . .’ सोच नहीं रुकी, मगर पैर ठिठके रह गए। भीतरी तहख़ाने में पसरे घुप्प अँधेरे के बीच एक रोशनी कौंधी—’आवाज़ की दुनिया का वह छोटा-सा हिस्सा . . . जहाँ वह मिली थी। इस कड़ी को बचाए रखूँ तो सम्बन्ध का एक धागा, हाँ एक धागा तो सुरक्षित रह ही सकता है—बिना उस पर कोई अधिकार जताए . . .’ मन ने मन ही मन कुछ निर्णय लिया। प्रायश्चित का एक द्वार खुलता नज़र आया। 

क्षण भर को लगा, मैं अब मन के बाहरी चौखट पर नहीं, भीतर प्रवेश कर अपने आप से मिल रहा हूँ। कालिमा छँट रही है। मैं उजास से भर रहा हूँ। होंठ पर मुस्कान थिरकी। पॉश कालोनी में अवस्थित अपने तीनमंज़िले मकान के भीतर घुसने से पहले अन्विति से जुड़े सारे पलों को भीतरी गुफा की रोशनी में सुरक्षित रख, मैं बड़े पत्थर से उसका मुँह बंद करने लगा। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2025/09/29 02:31 PM

औरत को अबला बनाने में भी यदि किसी पुरुष का हाथ होता है तो उसी पुरुष को उसे सबला बनाने का परोक्ष रूप में श्रेय देती बहुत ही रोचक कहानी।

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