बेज़ुबाँ
कथा साहित्य | कहानी डॉ. आरती स्मित1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
आधी रात को सरसराती हुई कोई जीप बँगले के पास से गुज़रती सड़क से गुज़री तो पहली बार लगा, जैसे बँगले के खिड़की-दरवाज़े हिल गए हों। एक रौंदा हुआ भय फुफकारने लगा हो। पिछली कई रातों से नींद उचट-सी गई है। ठाकुर साहब कहीं गए हैं, कहाँ, क्यों . . . बताना ज़रूरी नहीं समझा। पूछने की हमारी हिम्मत नहीं हुई, आज शादी के पच्चीस बरस बाद हिम्मत कहाँ से लाएँ? नौकर-चाकर, गहना-ज़ेवर सब सुख से तो लाद दिए हैं। तीज-त्योहार हो तो जैसे पूरी दुकान ख़रीद लाते हैं। कभी कुछ कहा नहीं, सिवाय इसके कि औरत चौखट के भीतर ही शोभती है, घर की राजरानी बनकर। बाहर के मामले मर्द के हैं, उसमें औरतों का टाँग अड़ाना ठीक नहीं। हमने भी मान ली बात और निभा लाए अबतक, मगर . . .
गला सूख रहा है। आजकल गला बहुत सूखता है हमारा, जैसे बचपन में पिताजी और भाईजी के सामने जाने पर सूखता था। ये पलंग, वह मेज़ और उस पर रखे ताँबे के नक़्क़ाशीदार जार और गिलास का सेट अब तक नया लगता है . . . पच्चीस बरस बाद भी।
एक ही साँस में पानी पीने से दम घुट-सा गया। ओह! . . . दम तो कई दिन से घुट रहा है भीतर-ही- भीतर, मगर किससे कहें, किससे पूछें कोई बात! कुछ तो बात है जो हमसे छिपाया जा रहा है। बैठक में देर रात तक घुन-सुन होती है। पुलिस और ठाकुरों का मजमा लगा रहता है। नौकर मुँह बंद किए हुकुम बजाते रहते हैं। टीवी भी उठाकर ले गए कमरे से। क्या देखें? किससे बतियाएँ? हे कान्हा! दस दिन से तो बँगले की रूटीन ही बदल गई है। भोर हो तो छोटी बहू से बात करें, कॉलेज तक पढ़ी-लिखी है, शायद कुछ बताए!
बीनू! चाय रख दो इधर! थोड़ी देर हमारे पास बैठो! . . . जाने क्यों आजकल हमारा जी बहुत घबड़ाता है। जैसे– जैसे कोई काल घर को घेरे हो। देखती हो न, पुलिस का आना-जाना बढ़ गया है। चार दिन से ठाकुर साहब कहाँ हैं, कोई ख़बर नहीं। लव-कुश भी मिलने नहीं आए इस बीच। हमारे फोन करने से नाराज़ होंगे, इसलिए फोन नहीं कर रहे। . . . क्या आ गए? कब? हमसे मिले भी नहीं! . . .और आजकल बैठक में क्या घुन-सुन चल रहा है, कुछ पता है . . .? पता है तो बता न! . . . रग्घू मना किया है! किसलिए? . . . बोलेगी तो तुम्हारी भी ज़ुबान काट देगा!! . . . तुम्हारी भी . . . मतलब?
. . . बीनू! हमारे पास ज़ुबान थी ही कब जो अब काट दी जाएगी। हम तो ब्याह से ही गूँगी, बहरी-अंधी हैं। क्या नहीं? मगर तुम . . . तुम तो इस ज़माने की हो, पर्दा भी नहीं करती, रग्घू बाहर जाती हो तो सलवार कुरता भी पहनती हो, फिर भी डरती हो! हमें लगा था, तुमसे सारी बात साफ़ हो जाएगी, मगर नहीं, तुम भी नहीं!
किरण! तुझे भी मनाही है। पढ़-लिख कर भी बोलने से इतना डरती है तो ऐसी पढ़ाई से क्या फाइदा! चाची तो बहू है घर की, उसका डर समझते हैं हम, मगर तू तो दुलारी हो इस घर की! पूरे परिवार की इकलौती दुलारी बेटी! तुझे किसका डर और किस बात का डर? . . . पढ़ाई छुड़वा देंगे? मुझे लगा था, तुम्हारे जन्म के बाद से इस घर की दीवारों में नरमी आएगी। चौखट के बाहर की दुनिया में औरतों की भी दखल होगी, मगर आज तुम दोनों की बात सुन कर लगता है वह सपना, सपना ही रह जाएगा।
. . . क्या सरकारी नियम-क़ानून से बड़ा है ठाकुरों का क़ानून कि इस ख़ानदान की बहू-बेटियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़ुबाँ खोलने से डरती ही रहें!
. . . ठीक कह रही हो तुम दोनों! हम भी जब से ब्याहकर आए हैं , पुलिस-दरोगा को ठाकुर की चौखट पर लोटते देखा है, तभी तो नियम-क़ानून ज़ेब में लेकर घूमते हैं सारे ठाकुर! ख़ुद रावण बन जाएँ मगर पत्नी सीता चाहिए।
न-न पैर मत दबा! पैर में नहीं, भीतर कुछ होल मचा हुआ है, समझ नहीं आ रहा। कई रात से भयानक सपना आ रहा! एक ही सपना बार-बार! सो नहीं पा रहे हम! जैसे ही नींद आती है, आँखों के आगे घना कोहरा छा जाता है। उस कोहरे में नज़र आते हैं बड़े-बड़े सींगों वाले राक्षस। उनकी हँसी! हे भगवान! कितनी भयानक हँसी! हँसी के बीच घुटी हुई चीख़ सुनाई देती है, जैसे कई हाथों ने किसी कमज़ोर का मुँह दबा रखा हो फिर भी दर्द का लावा चीख़ बन कर फूट पड़ता हो। . . . चीख़ घुटती जाती है, राक्षसी हँसी की आवाज़ बढ़ती जाती है। अचानक भयानक चीत्कार सुनाई देता है और कोहरा ख़ून की बारिश में बदल जाता है।
क्या मतलब हो सकता है इसका? पुरोहितजी आएँ तो उनसे पूछेंगे मगर तब तक कैसे मन को शांत करें? सपने का घना कोहरा और ख़ून मेरे भीतर उतर-सा गया है। जी उचाट है। . . . जी स्थिर करें? कैसे करें? तुझे पता है, कल आधी रात को पुलिस की गाड़ी बँगले के पास से गुज़री तो पहली बार ऐसा लगा जैसे पूरा बँगला हिलने लगा हो। बहुत कोशिश की सोने की, मगर बार-बार ऐसा लगता जैसे विषैले धुएँ से कमरा भर गया हो और हमारा दम घुटता जा रहा हो। कल तो जगे कानों से हमने सिसकियाँ सुनी हैं . . . घुटी हुई सिसकियाँ! एकदम से उठ कर बैठ गए हम। रहा न गया तो खिड़की का शीशा खोल दिया।
. . . किरण! बीनू! धुआँ सचमुच उठ रहा था! किसी की चिता लहक रही थी। वह धुआँ चिता का था। आधी रात को चिता की वह लहक और वह विषैला धुआँ सचमुच मेरे जिस्म में भर गया है। यक़ीन करो, हम जल रहे हैं, हमारा दम घुट रहा है और उस जलती चिता से निकलती घुटी हुई चीख हर पल सुनाई दे रही है हमें!
क्या तुम दोनों को सचमुच सुनाई नहीं दी कोई आवाज़? दिखाई नहीं दिया वह विषैला धुआँ और राक्षसी हँसी के बीच मज़लूम की घुटी चीख़? . . . हमें लगता है चिता उसी की थी . . . हमने संजु और राजू को दूध पिलाया है, उनकी हँसी सपने में भी पहचानते हैं हम!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
कहानी
- अँधेरी सुरंग में . . .
- गणित
- तलाश
- परित्यक्त
- पाज़ेब
- प्रायश्चित
- बापू और मैं – 001 : बापू का चश्मा
- बापू और मैं – 002 : पुण्यतिथि
- बापू और मैं – 003 : उन्माद
- बापू और मैं–004: अमृतकाल
- बापू और मैं–005: जागरण संदेश
- बापू और मैं–006: बदलते चेहरे
- बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .
- बापू और मैं–008: मकड़जाल
- बेज़ुबाँ
- मस्ती का दिन
- साँझ की रेख
व्यक्ति चित्र
स्मृति लेख
पत्र
कविता
- अधिकार
- अनाथ पत्ता
- एक दीया उनके नाम
- ओ पिता!
- कामकाजी माँ
- गुड़िया
- घर
- ज़ख़्मी कविता!
- पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ
- पिता होना
- बन गई चमकीला तारा
- माँ का औरत होना
- माँ की अलमारी
- माँ की याद
- माँ जानती है सबकुछ
- माँ
- मुझमें है माँ
- याद आ रही माँ
- ये कैसा बचपन
- लौट आओ बापू!
- वह (डॉ. आरती स्मित)
- वह और मैं
- सर्वश्रेष्ठ रचना
- ख़ामोशी की चहारदीवारी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं