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अपराजेय

 

समाज सदियों से चली आती परंपरा के नाम पर कई बार मानवीय मूल्यों का हनन कर जाता है और उसे इसका आभास तक नहीं होता। इसी क्रम में, भारतीय परंपराओं से जोड़कर मानव समाज के एक अंग को मानव होने का पूरा अधिकार न देने का अपराध भी सदियों से होता रहा और इसे ही नियति मान लेने की प्रवृत्ति भी मन पर राख की तरह जमती गई। ऐसा नहीं था कि किसी पीड़ित के भीतर विरोध की चिनगारी नहीं सुलगती थी—सुलगती तो थी, मगर लपट नहीं बन पाती थी और जब-जब लपट बनी, इतिहास के पन्नों ने रंग बदल लिया। बीसवीं सदी के अंतिम दशक ने भारत को उन अपराजेय योद्धाओं या कहें कि जीवन-साधकों से मिलवाना और उन पीड़ितों के सकल समाज को स्वाभिमान से जीने की प्रेरणा के रूप में एक के बाद एक से परिचित करवाना शुरू किया। उन अजेयों की चर्चा से पूर्व यह बता देना अपेक्षित है कि यहाँ तात्पर्य बायोलॉजिकल कारणों से शिशु के शरीर में उभरी लैंगिक अक्षमता या उससे संबद्ध विकृति को शिशु का दोष मानकर समाज के भय से परिवार द्वारा तिरस्कृत किए गए मानवों से है। समय के साथ-साथ हमारे तथाकथित सभ्य समाज और उनसे भयभीत माता-पिताओं/रिश्तेदारों, मित्रों द्वारा द्वारा लिंगविहीन/अविकसित /अस्पष्ट लिंग्युक्त मानवों को अपने से परे धकेलते हुए उनका समाज ही अलग बना दिया और कालांतर में उसमें केवल लिंग/योनिविहीन ही नहीं, उभयलिंगी, तन एवं मन में विपरीत सम्बन्ध वाले, समलैंगिक सम्बन्ध के पोषक, दोनों लिंगों के प्रति आकर्षण रखनेवाले, लोग जुड़ते चले। विज्ञान के बढ़ते क़दम ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में क्रांतिकारी उपाय ढूँढ़ निकाला। अब महँगे इलाज के साथ विपरीतलिंगी एवं लिंगविहीन तो अपने आपको खोजने में सक्षम होने लगे हैं, किन्तु अफ़सोस कि समाज का एक हिस्सा अब भी आँख पर पुरानी पट्टी बाँधे उन्हें हिक़ारत परोस रहा है। समय और क्षेत्र के अनुसार उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा गया, मगर पहचान-नाम की तरह नहीं, अपशब्द की तरह। संस्कृत में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग के साथ ही उभयलिंग और नपुंसकलिंग भी है, जबकि हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं। इसका अर्थ यह हुआ, वैदिककाल में भी उभयलिंगी और नपुंसक मनुष्य होते थे और उनके लिए भी भाषा के अंतर्गत तत्कालीन समाज ने वैसी व्यवस्था दी थी, जैसी कि स्त्रीलिंग-पुल्लिंग को। वे भी समान सम्मान के अधिकारी थे। त्रेता और द्वापर युग में न जाते हुए बीती हुई सदी के अंत में आकर रुकें तो परिवर्तन की छोटी-छोटी लहरें दिखेंगी। ये लहरें मानव समाज से बहिष्कृत, उपेक्षित, तिरस्कृत, विवश, दलित उन मानवों को संघटन की हैं जहाँ हिजड़ा की श्रेणी में महज़ वे नहीं रहे जो लिंग/योनिविहीन पैदा हुए, उनमें अन्य कई श्रेणियाँ आ मिलीं। वे जो अपने को उन मनुष्यों से अलग पाते थे जो शरीर और मन से एकरूप थे, एकजुट हो गए। कुछ ऐसी भी श्रेणियाँ जो जानबूझकर कृत्रिम रूप से बनाई गईं या स्वेच्छया बनीं। 

हिजड़े, जिन्हें ट्रांसजेंडर, किन्नर आदि-आदि नामों से पुकारा जाने लगा है, वास्तव में उनके अर्थों में झीना भेद है। प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्तमान में तृतीय लिंग/थर्ड जेंडर में शामिल लोगों को पाँच श्रेणियों में बाँटा गया है:

बचुरा: 

मूल लिंगविहीन मनुष्य। जिनकी लैंगिक पहचान अस्पष्ट हो/अविकसित लिंग/योनिधारी पुरुष/स्त्री। 

उभयलिंगी का पता अमूमन किशोरावस्था में चल पाता है, आरंभ में नहीं। मूलतः वे, जिनके हाव-भाव, बुद्धि-संवेदना आदि तो स्त्रीजनित होते हैं किन्तु अस्पष्ट जननांग के साथ ही उनमें ओवरी एवं गर्भाशय नहीं होते या पूर्ण अविकसित रूप में होते हैं, बचुरा कहे जाते हैं। इसी प्रकार, वे जिनमें पुरुषोचित गुण होते हैं किन्तु अंतर्बाह्य अवयव नहीं या पूर्णतः अविकसित तो उन्हें बचुरा कहा जाता है। किन्तु यहाँ यह भी गौर करने योग्य है कि कई बार जन्म के समय अविकसित बाह्य अवयव देखकर यह पता लगाना कठिन होता है कि किशोरावस्था में उसका रूप क्या होगा। 

केवल जननांग/गुप्तांग के विकास न होने मात्र से जन्म के समय तो लिंग निर्णय करना कठिन होता है, किन्तु बढ़ती उम्र के साथ यदि स्त्री-पुरुषजनित हार्मोन्स का प्रवाह सही रूप में होने लगता है तो विज्ञान के इस युग में बाह्य अंग निर्मित करना असम्भव नहीं रह गया है। 

मनसा: 

वे, जिनका शरीर के स्थान पर मन विपरीतलिंगी भाव से भरा हो। जैसे कि शरीर पुरुष का, भाव स्त्री के या शरीर स्त्री का, भाव /गुण पुरुष जैसे। 

अपने संघर्ष भरे जीवन में सफलता प्राप्त करने में इस श्रेणी के लोग अधिक आते हैं। इस श्रेणी के लोगों की पहचान जन्म के समय में स्त्री/पुरुष के रूप में ही होती है। यदि ये अपने मन और शरीर के विपरीतगामी होने के संघर्ष को ज़ाहिर न करें तो सामान्य मानवजीवन जी सकते हैं। जब इस दिशा में विज्ञान ने इतनी तरक़्क़ी नहीं की थी या मानव अपने शरीर और मन की उलझन को महसूस करके भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता था तो घुट-घुटकर जीता हुआ भी वह समाज में उसी रूप में रहता था, जिस रूप में शरीर होता था। इक्कीसवीं सदी ने इस क्षेत्र में क्रांति की है। इसका प्रमाण हैं वे ट्रांसजेंडर जिन्होंने मन की सुनी और काया का स्वरूप बदला। 

वे जो सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह बड़े हुए, जिन्होंने काया नहीं बदली, किन्तु मन का रुझान विपरीतलिंगी शरीर के प्रति न होकर विपरीतलिंगी गुण वाले मन के प्रति हुआ यानी शारीरिक रूप से समलिंगी के प्रति। . . . तो ऐसे लोग गे/लेस्बियन की श्रेणी में नज़र आने लगे। 

हंसा: 

शारीरिक अक्षमता/नपुंसकता वाले पुरुष। इस श्रेणी के लोग सामान्यतः समाज की दृष्टि में नहीं आते। जब तक वे स्वयं को विवाह एवं वंशवृद्धि के लिए अक्षम मानकर इसे अभिव्यक्त न करें। 

नीलिमार: 

किसी कारणवश स्वयं किन्नर बनने के लिए समर्पित। इनमें ऊपर दिए गए बाद के दो कारणों में से कोई या अन्य कारण भी हो सकता है। 

अबुआ: 

नक़ली हिजड़े (वस्तुत: पुरुष)। हिजड़े का स्वाँग रचने वाले। हिजड़े की तरह ताली बजाकर भीख माँगने के पेशे में ऐसे लोग नज़र आते हैं। दिल्ली के आईटीओ सहित अन्य कई जगहों पर ऐसे हिजड़े नज़र आते हैं जिन्हें पहचान पाना कई बार कठिन होता है। 

छिबरा: 

वे पुरुष/बालक, जिन्हें जबरन हिजड़ा बनाया जाता है। हिजड़ों के सरदार अपना समूह बढ़ाने और हिजड़े के रूप में भीख मँगवाने से लेकर अन्य गोरखधंधों में लगाने के लिए कई बार ऐसे अपराध करते हैं। अधिकतर अनाथ बच्चे इनके शिकार होते हैं। 

गौर करें तो इनमें से प्रथम दो प्रकार के लोग ही इस श्रेणी में रखे जाने योग्य हैं। अंतिम तीन श्रेणियाँ तो बस हिजड़ों की संख्या बढ़ानेवाली हैं और उनमें से अंतिम दो श्रेणियाँ अनैतिक और आपराधिक कर्मों को बढ़ावा देती हैं, जिन्हें रोकने के लिए प्रशासन द्वारा और अधिक कड़े क़दम उठाने होंगे। 

संघर्षों को सीढ़ी बनाकर बिना आत्मबल खोए जो आगे बढ़ते रहे और नया इतिहास रच दिया, वे बचुरा और मनसा श्रेणी के लोग ही हैं। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में, किन्नर जीवन को सम्मानजनक बनाने के क्षेत्र में यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वह है—शबनम (मौसी) बानू का नाम। याद दिला दें कि इस देश की पहली किन्नर विधायक शबनम बानो मध्यप्रदेश के शहडोल-अनूपपुर ज़िले के सोहागपुर निर्वाचन क्षेत्र से खड़ी हुईं और 1998 से 2003 तक एक ईमानदार न्यायप्रिय समाजसेवी विधायक के रूप में बनी रहीं। 1994 में किन्नर को मतदान का अधिकार मिला था। 

शबनम के जीवन में दुश्वारियाँ बचपन से ही आरंभ हो गईं। पिता पुलिस अधीक्षक थे, बावजूद इसके बदनामी के डर से बेटी से नाता तोड़ लिया। स्कूल में सभी चिढ़ाते। मात्र कक्षा दो तक पढ़ी शबनम ने घर से निकाले जाने के बाद भटकाव और यात्रा के दौरान 12 भाषाओं के ज्ञान से स्वयं को समृद्ध किया। बतौर विधायक ग़रीबी, बेरोज़गारी के उन्मूलन सहित भ्रष्टाचार की समाप्ति को उद्देश्य बनाया। ‘असेम्बली का दौरा करो’ नारा के तहत किन्नरों के प्रति किए जा रहे पारिवारिक एवं सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की। एड्स के प्रति किन्नरों की जागरूकता बढ़ाई, साथ ही ‘बधाई रस्म’ में ताली बजाकर और नाचकर पैसे माँगने/भीख माँगने, वेश्यावृत्ति के बजाय सम्मान से जीने की राह दिखाई और कई एक को राजनीति में प्रवेश के लिए प्रेरित किया। 

वर्ष 2003 में, मध्यप्रदेश में किन्नरों को साथ लेकर उनके लिए निर्णय का वर्ष रहा, जब जेजेपी (जीती-जिताई पार्टी) राजनीतिक पार्टी का गठन कर, उन्होंने यह उद्घोषणा की कि उनकी पार्टी अन्य राजनीतिक पार्टियों से किन-किन रूपों में भिन्न है। शबनम बानो विधायक पद से मुक्त होने के बाद अपने कार्यकर्ताओं सहित अन्य संगठनों के साथ जुड़कर भी एड्स के सम्बन्ध में जागरूकता फैलाने में लगी हुई हैं। उनके अनुसार, “हमारे भाई-बहनों को अक्सर हमारे यौन अभिविन्यास के कारण कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एड्स के बारे में खुले तौर पर बात करने से हमें एक-दूसरे को समझने में मदद मिलती है।” 

शबनम बानो ने घोर संघर्ष के बीच उम्मीद और हौसले के साथ सम्मान के साथ जीने और मानवता को पोषित करते हुए जनजागरण का जो दीया जलाए रखा, वह उन पर बनी फ़िल्म ‘शबनम मौसी’ के माध्यम से किन्नर समाज को उजास देने में सफल हुआ। यह फ़िल्म योगेश भारद्वाज के निर्देशन में 2005 में बनी जिसमें मुख्य किरदार आशुतोष राणा ने निभाया था। 

किन्नर मॉडल गौरी सावंत को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम से लेकर विक्स के विज्ञापन तक में अपनी छाप छोड़ने के लिए दुनिया पहचानती है। पुणे के सहायक पुलिस आयुक्त का किशोर पुत्र गणेश नंदन जब अपनी मानसिक दुविधा पिता को समझा न सका तो घर छोड़ दिया। उसके घर छोड़ने पर पिता ने उसका अंतिम संस्कार कर अपने आपसे हमेशा के लिए दूर कर दिया। गणेश ने पहले वेजिनोप्लास्टी सर्जरी करवाकर ख़ुद को ‘गौरी’ रूप दिया और जीवन को किन्नर समाज की बेहतरी में लगा दिया। 

गौरी सावंत ने 2000 में ‘सखी चार चौघी’ आश्रयस्थल की स्थापना की। यहाँ घर से भागे किन्नर तथा बच्चे शरण पाते हैं। साथ ही, वे एड्स की जानकारी देकर जागरूक करने का काम भी कर रही हैं। 2008 में गौरी ने गायत्री नामक अनाथ बच्ची को ग़लत हाथों से बचाया और अपनी सुरक्षा में रखा, बाद के दिनों में, 2009 में किन्नरों को मान्यता दिलाने, उनके द्वारा बच्चे को क़ानूनी गोद लेने के अधिकार के लिए उन्होंने हलफ़नामा दाख़िल किया जिसे नाज़ फ़ॉउंडेशन ने आगे बढ़ाया। अंतत: प्रयास रंग लाया और 2014 में उच्चतम न्यायालय ने किन्नर समुदाय को क़ानूनी पहचान दी और अनाथ बच्चे को गोद लेने का अधिकार भी। गायत्री अब गौरी सावंत की दत्तक पुत्री है। गौरी सावंत को महाराष्ट्र चुनाव आयोग का ‘सद्भावना दूत’ बनाया गया है। उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को लेकर फ़िल्म ‘ताली’ बनी किन्तु सीरीज़ में गौरी के जीवन-संघर्ष को विस्तार से दिखा पाना अधिक सम्भव हुआ। गौरी सेक्सवर्कर के बच्चों के समुचित व्यक्तित्व विकास के लिए ‘पालनाघर’ को रूप देती हुई सामाजिक कार्यों में जुटी हैं। 

2001में गोरखपुर की मेयर रह चुकी किन्नर आशा देवी ने भी अपने निर्णय से समाज को दिशा दी और संदेश दिया कि दृढ़ संकल्प और श्रम से कुछ भी सम्भव है। गोरखपुर के नरसिंहपुर के छोटे-से इलाक़े में रहनेवाली किन्नर आशा देवी (पूर्व नाम अमरनाथ यादव) किन्नरों के पारंपरिक पेशे बधाई देने/नाचने-गाने जाती और मिले पैसों से गुज़ारा करती थीं। 2001 के चुनाव में अपने क्षेत्र की आरक्षित महिला सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े होने की आशा देवी की माँग स्वीकृत हुई। मध्यप्रदेश की तत्कालीन विधायक शबनम बानो सहित कई इलाक़ों से किन्नर चुनाव प्रचार को आए। स्वाधीन भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब निर्दलीय उम्मीदवार एक किन्नर ने सपा और भाजपा—दोनों को बहुत पीछे छोड़ते हुए साठ हज़ार से भी अधिक वोटों से जीत हासिल की और देश की पहली किन्नर मेयर बनीं। मेयर बनने के बाद उन्होंने दफ़्तर रिक्शे से जाने का निर्णय लिया और रिक्शे पर लाल बत्ती लगवा ली। आशा देवी के जीवन का यह निर्णयात्मक मोड़ समकालीन और परवर्ती शिक्षित/अल्पशिक्षित /ख़ुद को कमतर माननेवाले किन्नरों के लिए मिसाल है। 

पश्चिम बंगाल की जोइता मंडल को कौन नहीं जानता! तन और मन में भेद कैसी उलझन पैदा करते हैं, उस पीड़ा सहित और सामाजिक उपहास के काँटों की चुभन को प्रायः बचुरा/मनसा श्रेणी के किन्नर भोगते हैं, किन्तु हर एक वह धैर्य, साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं रख पाता जो जयंत मंडल उर्फ़ जोइता ने रखा और देश की पहली ट्रांसजेंडर न्यायाधीश बनी। पुरुषजनित लक्षण बढ़ती उम्र के साथ स्त्रीजनित लक्षण में बदलने लगे तो परिवार परेशान होने लगा जो कि स्वाभाविक था। 18 वर्षीय जयंत अपने भीतर की स्त्री को दबा न सका और दुर्गा पूजा के उत्सव में शामिल होने ब्यूटी पार्लर से स्त्री की तरह सज-सँवरकर आया। क्रोध में घरवालों ने इतना पीटा कि चार दिनों तक बिस्तर से हिलना-डुलना कठिन हो गया। जयंत के लड़कियों से हाव-भाव देखकर कॉलेज में भी आए दिन मज़ाक़ उड़ता। हारकर जयंत ने नौकरी का बहाना बनाकर घर छोड़ने का फ़ैसला लिया और बंगाल बॉर्डर पर अवस्थित शहर दीनारपुर को अपना ठिकाना बनाया। सभ्य समाज ने आसरा न दिया तो अंतत: किन्नर डेरे की शरण ली। इससे पूर्व उनकी कई रातें रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर गुज़रीं। स्त्री रूप में किन्नरों के संग बधाई के लिए निकलना, नाचना-गाना करते हुए भी जयंत ने पढ़ाई जारी रखी। इसके साथ ही, 2010 में दो लोगों के साथ मिलकर सामाजिक संस्था बनाई। बार-बार अपमान का घूँट पीता लगातार श्रम करता हुआ जयंत ‘पहचान’ संस्था से एक प्रोजेक्ट लेने में सफल रहा जो किन्नरों के हित के लिए, उन्हें पहचान दिलाने के लिए काम करती है। राज्य सरकार ने भी याचना सुनी। 2014 में उच्चतम न्यायालय ने किन्नर को तृतीय श्रेणी का दर्ज़ा दिया। मतदान का अधिकार तो 1994 में ही मिल चुका था। यह राज्य में बनने वाला पहला पहचान पत्र था, जिसमें जयंत अपनी नई पहचान जोइता मंडल के रूप में सामने आया। अपनी संस्था के माध्यम से जोइता ने वृद्धाश्रम की स्थापना की, रेडलाइट इलाक़े की स्त्रियों, उनके बच्चों के आधार कार्ड बनवाने, राशन कार्ड बनवाने के साथ ही उन्हें शिक्षा के प्रति जागरूक करती रहीं। 8 जुलाई 2017 को लोक अदालत में वह न्यायाधीश नियुक्त होने वाली पहली भारतीय किन्नर थीं। न्यायाधीश जोइता कहती हैं—“जहाँ लोग मेरा मज़ाक़ उड़ाते थे, आज उस इलाक़े में जब सफ़ेद गाड़ी से निकलती हूँ तो गर्व होता है।” जोइता न्यायिक, सामाजिक कार्यों में मसरूफ़ रहने के बाद भी, आज भी किन्नर समूह के साथ बधाई गाने जाती हैं। जोइता मंडल का जीवन किन्नर समाज ही नहीं, आम समाज के लिए भी प्रेरक है। 

देश की पहली किन्नर तमिल न्यूज़ एंकर, टीवी सीरियल की अभिनेत्री पद्मिनी प्रकाश भरतनाट्यम नर्तकी भी हैं। उन्होंने कई स्टेज शो किए और नृत्य का प्रशिक्षण भी देती हैं। तमिल परिवार में जनमी पद्मिनी को स्कूल नहीं भेजा गया। घर से पढ़ाई करनी पड़ी। घरवाले उसे बेटे की तरह रखना चाहते, मगर पद्मिनी स्वयं को स्त्रियोचित भावों से भरा अनुभव करती। पद्मिनी ने टीवी सीरियल से अपने करियर की शुरूआत की। मिस ट्रांसजेंडर ऑफ़ इंडिया का ख़िताब जीतनेवाली पद्मिनी की राह भी आसान न रही। 13 वर्ष की किशोरावस्था में विपरीत मनःस्थिति से घिरना, परिवार और साथी-संगी के बरताव में आत्मीयता का अभाव, कहीं-कहीं तिरस्कार अन्य किन्नरों से कम न सहा। दो वर्ष मुंबई जाकर भी रही, फिर अकेले रहने के निर्णय के साथ वापस कोयम्बतूर लौटी जब उपेक्षा और सहना कठिन हुआ तो 16 वर्ष की उम्र में आत्महत्या का मन बनाकर घर से निकली, मगर मित्र/प्रेमी नागपाल प्रकाश ने साथ दिया। उसकी शिक्षा पूरी करवाई। 18 वर्ष की उम्र में सर्जरी के बाद वह स्त्री का रूप पा सकी। विवाह के बाद उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया है। वह किन्नर के अधिकारों के लिए बतौर कार्यकर्ता सक्रिय हैं। 

2007 में मिस ट्रांसजेंडर तमिलनाडु और 2009 में मिस ट्रांसजेंडर इंडिया बनी पद्मिनी कहती हैं, “आज परिवार, इज़्ज़त, सम्मान और शोहरत है मेरे पास लेकिन पिता और परिवार से न मिल पाने का दुख हमेशा रहेगा।”

पद्मिनी का जीवन और नागपाल जैसा जीवनसाथी समाज को अपनी संकीर्ण सोच बदलने की दिशा में ध्यान खींचता है। 

कल्कि सुब्रमन्यम तमिलनाडु में ऐसा प्रसिद्ध किन्नर नाम है जो बहुमुखी प्रतिभा और कर्मठता का पर्याय नज़र आता है। कल्कि तमिलनाडु की किन्नर-अधिकार कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार, अभिनेत्री, लेखिका, प्रेरक वक्ता और उद्यमी हैं। वे दक्षिण भारतीय किन्नर राष्ट्रीय परिषद् की सदस्य भी हैं। तमिलनाडु के पोल्लाची शहर में जनमे कल्कि प्रतिभाशाली छात्र थे जिन्होंने 1. पत्रकारिता, जनसंचार एवं 2. अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध—इन दोनों विषयों में मास्टर डिग्री हासिल की। लड़के की तरह पलते कल्कि को शरीर और मन के अलगाव का ज्ञान 13 वर्ष की किशोरावस्था में हुआ। लड़की से हाव-भाव वाले लड़के हमेशा उपहास का पात्र रहे हैं। कल्कि ने भी वह दौर झेला। इस दौरान ‘अप्सरा’ किन्नर से हुई पहचान और उसके माध्यम से अन्य किन्नरों के जीवन-संघर्ष ने कल्कि के जीवन में टर्निंग पॉइंट का काम किया। शिक्षा से समाधान मानते हुए कल्कि ने पढ़ाई पूरी की, मीडिया से जुड़कर काम भी किया और थोड़ी कमाई होने के बाद स्वयं को सर्जरी के बाद पूर्ण महिला का रूप दे पाने में सफल हुईं। कई वर्षों तक ऑरोविले में रही कल्कि ने जब ऑरोविले प्रबंधन को अपने विस्तार के लिए गाँव की ज़मीन अधिकृत करते देखा तो उसका विरोध किया। 

भारतीय किन्नरों के अधिकारों के लिए 2005 में प्रौद्योगिकी, फ़िल्म, कला एवं साहित्य के माध्यम से कल्कि ने ज़ोरदार अभियान चलाया। किन्नरों की पहचान को मान्यता दिलाने हेतु आवाज़ बुलंद करने में उनकी भी मुख्य भूमिका रही। वर्ष 2008 में किन्नरों के लिए ‘सहोदरी फ़ॉउंडेशन’ की स्थापना के साथ ही ‘सहोदरी’ पत्रिका की शुरूआत की। 2009 में ही जब वैवाहिक वेबसाइट ने किन्नर महिला की सूची को वेबसाइट से हटा दिया तो इसे चुनौती मानकर कल्कि ने पहला किन्नर वैवाहिक वेबसाइट लॉन्च किया जिसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। उन्होंने एलजीबीटी (LGBT) (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) के अधिकारों पर बारह से अधिक वृत्तचित्र बनाए, उनमें से कुछ अंतरराष्ट्रीय वृत्तचित्र फ़िल्म का हिस्सा हैं। 2010 में वंचित किन्नर महिलाओं को सामुदायिक पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया और अपनी संघर्ष कथा अभिव्यक्त करनेवाली वृत्तचित्र फ़िल्म बनाने की प्रेरणा दी। कल्कि के क़दम रुके नहीं। 2017 में ‘तुरिकई कला परियोजना’ के तहत 200 किन्नरों के लिए कार्यशाला आयोजित कर उन्हें कलाकृतियाँ बनाना सिखाया गया ताकि इस कला का उपयोग कर वे सम्मान से रोज़ी रोटी कमा सकें। 2019 में कल्कि के नेतृत्व में पहली बार कोयम्बटूर, तमिलनाडु में एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) गौरव मार्च आयोजित हुआ। 

अभिनय के क्षेत्र में 2011 से अपनी पहचान बनाने वाली कल्कि किन्नर जीवन पर बनी फ़िल्म ‘नर्तकी’ में मुख्य किरदार में नज़र आई। 2018 की फ़िल्म ‘सरकार’ के ‘ओरु विरल पुराची’ गाने में भी उनकी विशेष भूमिका दिखी। 2019 में कलाश्निकोव–द लोन वुल्फ़ नामक डब हिंदी फ़ीचर फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाती कल्कि ने इस फ़िल्म के साथ एक ऊँचाई हासिल की जब फ़िल्म दादा साहब फाल्के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ घोषित हुई। 

बतौर चित्रकार कल्कि की पेंटिंग्स में जीवंतता के दर्शन होते हैं। कल्कि कला एवं जीवन से संबद्ध प्रेरक वक्तव्य के लिए कई देशों—कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, नीदरलैंड आमंत्रित की जा चुकी हैं। यौन शोषण भोगी किन्नर महिलाओं को शिक्षित करने हेतु धन देने के साथ ही यौन शोषित किन्नरों की पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने ‘रेड वाल’ परियोजना आरंभ की। इसमें हस्तनिर्मित सफ़ेद काग़ज़ पर अपनी पीड़ा लिख, उस पर लाल हथेली की छाप छोड़ी जाती है और यह आर्टवर्क शैक्षणिक संस्थानों और कला दीर्घाओं में प्रदर्शनी के लिए लगाया जाता है। 

किशोरावस्था से ही मनोभावों को क़लमबद्ध करने वाली कल्कि ने आगे चलकर किन्नर जीवन पर आधारित अंग्रेज़ी कविता-निबंध, एकालाप के मिश्रित संग्रह को 2015 में नोशन प्रेस से ‘वी आर नॉट द अदर्स’ के नाम से प्रकाशित करवाया। यह पुस्तक हार्वर्ड केनेडी स्कूल के पुस्तकालय का हिस्सा है। कल्कि किन्नर जीवन पर वक्तव्य के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय जा चुकी हैं। अंग्रेज़ी प्रिय विषय होने के कारण विदेशों में उन्हें अपनी बात रखने में कोई परेशानी नहीं होती। इसी प्रकार, थिरुंगनाई प्रेस से प्रकाशित तमिल कविता, लघुकथा, निबंध और कला का मिश्रित संग्रह ‘ओरु थिरुनांगयिन डायरी कुरिप्पू’ प्रकाशित हुई। कल्कि सुब्रमण्यम ने किन्नर जीवन को ऊँचाई देने का जो संकल्प लिया है, वह उस दिशा में आगे बढ़ रही है। 

जीवन को शिक्षा के उजास से आलोकित करने वाली देश की पहली किन्नर प्राचार्या पश्चिम बंगाल की मानबी बंदोपाध्याय ने जून 2015 में नदिया ज़िले के कृष्णानगर महिला कॉलेज में प्राचार्या पद ग्रहण कर, अपने ज़िल्लत भरे समय को पराजित कर दिया। मानबी उर्फ़ सोमनाथ का बचपन नदिया में ही गुज़रा। पिता को सोमनाथ के हाव-भाव के कारण धमकियाँ मिलतीं। बढ़ती उम्र के साथ इकलौते बेटे में स्त्रियोचित गुण और हाव-भाव देखकर पहले से दो बेटियों के पिता परेशान होने लगे जो स्वाभाविक ही था। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद सोमनाथ ने मनोचिकित्सक की सहायता लेनी चाही मगर संतोषजनक परिणाम न मिला। वह बाहर लड़का बनकर रहता, मगर घर में लड़कियों की तरह। 2003 में लगभग 38-39 वर्ष की उम्र में सोमनाथ ने जेंडर चेंज करवाने का साहसिक निर्णय लिया। लंबी काउंसेलिंग के बाद आख़िरकार सोमनाथ ने ख़ुद को मुक्त अनुभव किया। सोमनाथ से मानबी में रूपांतरण के बाद बाँग्ला से एम.ए., पीएचडी करने और बाद में प्रोफ़ेसर से प्राचार्या पद तक जाने वाली वह पहली ट्रांसजेंडर महिला बनीं। मानबी द्वारा लिखित पुस्तकें चर्चा में हैं। उन्होंने डेब्यू फ़िल्म में भूमिका भी निभाई है। 

देश की पहली किन्नर (आयुर्वेद) डॉक्टर प्रिया वीएस उर्फ़ जीनू के अनुसार—“किन्नरों को समाज न औरत मानता है न मर्द। अपनी पहचान बनाने के लिए मेरा डॉक्टर बनने का सपना पूरा हुआ।” उनका यह भी मानना है कि औरत होना मात्र सजना-सँवरना नहीं है, बल्कि उन सारी भावनाओं को पोषित करना है जो एक नारी के चरित्र को कोमल व सुंदर दिखाती है; साथ ही अपने सम्मान के लिए सिर ऊँचा करके खड़े होना भी सिखाती है। 

कोवलम, केरल के एसएन स्कूल के छात्र जीनू के भीतर अपनी पहचान को लेकर जो उलझनें थीं, उसी ने उसे लिंग परिवर्तन के निर्णय की ओर धकेला। उसने अपनी नोटबुक में लिखा था, ‘यही वह वक़्त है जब मुझे असली पहचान पा लेनी चाहिए’। माता-पिता उसे मनोचिकिसक के पास ले जाना चाहते थे। तन-मन की विरोधी अवस्था से लड़ते हुए जीनू ने 2008 में वैद्य रत्नम आयुर्वेद कॉलेज से बैचलर डिग्री एवं 2012 में केवीजी आयुर्वेद मेडिकल कॉलेज से मास्टर डिग्री पूरी कर, त्रिशूर के सीताराम आयुर्वेद हॉस्पिटल में मेडिकल करिअर की शुरूआत करने के बाद जेंडर चेंज की इच्छा ज़ाहिर कर, माँ से आज्ञा माँगी। माँ की अनुमति और परिवार के सहयोग ने जीवन के नए द्वार खोले। डॉ. जीनू शशिधरन डॉ. प्रिया वीएस बनकर ख़ुश और अपने क्षेत्र में सफल है। उनका जीवन-लक्ष्य है—मरीज़ों की सेवा के साथ-साथ ज़रूरतमंदों, असहायों की सेवा और सहयोग करना। 

जीवन-संघर्ष को सफलता की स्याही बनाने वाले किन्नरों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिन्होंने इतिहास रचा, उनमें से कुछ एक नाम लेना आवश्यक है। इनमें से एक नाम पहली किन्नर सैनिक साबी गिरि उर्फ़ मनीष गिरि का है। दरअसल, नौसेना के सैनिक मनीष गिरि को बरख़ास्त करने का कारण था—छुट्टी के दौरान एक प्राइवेट अस्पताल में मनीष का जेंडर चेंज करवाकर साबी बन जाना। साबी ने हार नहीं मानी और लगातार संघर्ष के बाद उसने अपना पद हासिल किया। साबी के संघर्ष और सफलता ने किन्नरों के लिए द्वार खोले। 2015 में छत्तीसगढ़ पुलिस फ़ोर्स में ट्रांसजेंडर कम्युनिटी की सक्रिय भर्ती वाला राज्य बना और 2020 में बीएसएसएफ़ (BSSF) और एसएसबी (SSB) ने केंद्र सरकार को सहायक कमांडेंट अधिकारी पद पर किन्नरों की भर्ती का प्रस्ताव भेजा। 

चेन्नई, तमिलनाडु में जनमे प्रदीप कुमार ने किन्नर पृथिका यशिनी के रूप में पहली पुलिस अधिकारी होने का गौरव हासिल किया। किसी भी किन्नर का जीवन आसान नहीं रहा। प्रदीप ने कंप्यूटर एप्लिकेशन में डिग्री कोर्स करने के बाद पहचान बदली। पुलिस अधिकारी पद के लिए स्त्री-पुरुष के विकल्प में उसने स्त्री विकल्प चुना और आवेदन निरस्त होने पर उच्च न्यायालय में, तीसरे वर्ग के विकल्प की अपील की जो स्वीकृत हुई। उसने फिर फ़ॉर्म भरा और सफलता हासिल की। 24 वर्षीया पृथिका ने तमिल सरकार की ओर से पुलिस सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्ति पत्र पाया। पृथिका का सपना है कि प्रशिक्षण के बाद वह महिलाओं को पीड़ित करनेवाले अपराधों को कम करने में ध्यान केंद्रित करेगी। 

देश की पहली किन्नर महामंडलेश्वर हिमांगी सखी 2024 चुनाव में उभरता वह नाम है जिसने अखिल भारतीय महासभा, वाराणसी की ओर से चुनाव प्रत्याशी के रूप में नागरिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। गुजरात के बड़ौदा में जनमी, मुंबई में शिक्षा प्राप्त कर हिमांगी सखी ने अपनी डॉक्टर माँ के निधन के बाद छोटी बहन की ज़िम्मेदारी ली। उसका विवाह कराने के बाद कृष्ण-चरणों में रमते मन के साथ वृंदावन आ गई और गुरु धारण किया। गुरु आज्ञा से भागवत कथा सुनाने जाती हिमांगी सखी ने किन्नर समाज के लिए माँग रखी कि किन्नर समाज के लिए भी नौकरियों, विधान सभा, लोक सभा एवं पंचायत के चुनाव में सीटें आरक्षित की जाएँ ताकि उनका प्रतिनिधित्व सदन में हो सके और किन्नर समाज की समस्याओं एवं माँगों पर बात की जा सके। 

तमिलनाडु के मदुरै के एक गाँव में जनमी, पद्मश्री सम्मान से सम्मानित देश की पहली किन्नर नर्तकी मंजुनाथ शेट्टी, जिन्हें दुनिया ‘नर्तकी नटराज’ के नाम से जानती है, ने अपने आपको कमतर न मानकर तंजौर स्थित ‘नायकी भाव परंपरा’ में विशिष्टता हासिल की। 2011 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 2018 में ‘नर्तकी नटराज’ के सम्मान में तमिलनाडु सरकार ने 11वीं कक्षा के तमिल पाठ्यपुस्तक में उनकी जीवन-यात्रा को जगह दी है। 

इसी प्रकार, सत्यश्री शर्मीला देश की पहली किन्नर वकील बनी। 

इनमें से किसी की राह आसान न रही। अधिकांश सफल और समाजसेवी किन्नर मनसा श्रेणी के हैं, कुछ बचुरा भी जो पुरुष से स्त्री रूप में आए। इनके विपरीत एडम हैरी पहला किन्नर है जो स्त्री से पुरुष में तब्दील हुआ। किशोरावस्था में उनके भीतर आनेवाले बदलाव ने उन्हें पारिवारिक सहयोग से दूर कर दिया जबकि उनके रुझान को देखते हुए पिता ने ऋण लेकर उन्हें दक्षिण अफ़्रीका के फ़्लाइंग स्कूल में भेजा था। बीच में पढ़ाई बंद होने के बावजूद हैरी निजी पायलट लाइसेंस प्राप्त करने में सफल हुआ। भारत लौट आने के बाद उसने स्थानीय अकादमी से वाणिज्यिक पायलट का लाइसेंस पाने के लिए केरल सरकार से भी मदद ली। किन्तु एयरलाइन्स बोर्ड ने मेडिकल जाँच के बाद उसे बतौर पायलट उड़ान भरने से यह कहकर रोक दिया कि हार्मोन परिवर्तन की थेरेपी लिए जाने की स्थिति में उनकी शारीरिक अवस्था स्वस्थ और सामान्य नहीं रह सकती। एडम हैरी रुका नहीं, मार्ग की हर बाधा को दूर करते हुए बढ़ रहा है। 

एक लंबी तालिका ऐसे अपराजेय जीवन-योद्धाओं की है जो किन्नर समाज को ही नहीं, समाज के हर अवसादित प्राणी को उन्नत जीवन हेतु सकारात्मक सोच, शिक्षा, दृढ़ संकल्प और धैर्य व साहस के साथ अथक श्रम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए आगे बढ़ने की दिशा देते हैं। 

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टिप्पणियाँ

विजय कुमार मल्होत्रा 2024/12/07 08:47 PM

किन्नर समाज के अपराजेय योद्धाओं की इस शोधपूर्ण गाथा के लिए लेखिका को साधुवाद !!! लेखिका के शब्दों में “ये अपराजेय योद्धाओं किन्नर समाज को ही नहीं, समाज के हर अवसादित प्राणी को उन्नत जीवन हेतु सकारात्मक सोच, शिक्षा, दृढ़ संकल्प और धैर्य व साहस के साथ अथक श्रम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए आगे बढ़ने की दिशा देते हैं. “ विजय मल्होत्रा

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