माँ का औरत होना
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 May 2022 (अंक: 205, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
(प्रेषक: अंजु हुड्डा)
मैंने देखा है माँ का बदलना
आधी रात को
औरत में ढलना।
दिन भर की थकी माँ
आधी रात को छटपटाती
अँगड़ाई लेती, कसमसाती
दोनों हाथों से अंग कसती
जाने क्या दर्द सहती!
मैं अधखुली आँखों से
देखा करता उनका तड़पना
ताप में जलना
और पानी से भीगना
उम्र के कच्चेपन में
समझ न सका
माँ का अकेलापन
बिस्तर पर उनींदे तन की मचलन
गले में नन्ही बाँहें डाल
सोया रहता चैन से
वह बेचैन-सी
ख़ुद को समेटे, ख़ुद में सिमटी
जाने कैसे सोया करती
अंगों में सूइयाँ चुभोया करती!
संताप से भरी माँ
क्यों न सीखी औरों-सा जीना
सजना-सँवरना मुस्कुराना?
बाहर कोल्हू की बैल
घर में रही अन्नपूर्णा
दायित्व-बोध पिता-सा
ममता माँ-सरीखी
संगिनी सखी-सी माँ
छिपाती रही टूटना-बिखरना
पर
मैंने देखा है माँ का बदलना
आधी रात को औरत में ढलना!
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