सर नहीं, ‘बाबा’ बोलो!
संस्मरण | स्मृति लेख डॉ. आरती स्मित1 Aug 2024 (अंक: 258, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
सच ही है, समय किसी के लिए नहीं ठहरता। यह भी सच है, आत्मीय सम्बन्ध समय के मोहताज नहीं होते। वे तो बस दो समान भाव-बिंदुओं के एक वेबलेंथ पर टिक जाने से क़ायम होते हैं, फिर चाहे उनका रूप जो भी हो। मुझे जिन भावों ने छुआ और भीतर तक रच-बस गए, उनमें वात्सल्य भाव की प्रधानता रही है, शेष अंतरंग साख्य भाव। और ऐसे भाव हज़ारों में से किसी एक के प्रति उमगते हैं। इन दोनों भावों में बाहरी व्यक्तित्व, उम्र, पद और पहचान गौण हो जाते हैं, प्रमुखता होती है तो बस आत्मीय भावों की। कई बार ऐसा होता है, जन्म या जीवन के अन्य पड़ावों पर बने कुछ सम्बन्ध वर्षों पुष्पित-पल्लवित नहीं होते जबकि कुछ चंद लम्हों में ही जीवन में अपनी स्थायी जगह बना लेते हैं और समय के साथ उनमें गहराई और ऊँचाई का एहसास होता है। फिर, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपके जुड़ाव की अवधि कितनी लंबी है। कई बार यह भी मायने नहीं रखता कि आपकी अमुक से मुलाक़ात हुई भी है या नहीं और यदि हुई तो कितनी बार। ऐसे सहेजकर रखे ख़ास सम्बन्धों की गठरी के भीतर एक चेहरा मुस्कुराता है—अप्रतिम अनुवादक, भाषाविद्, साहित्यकार, शिक्षाविद् डॉ. रमानाथ त्रिपाठी का। और देखते ही देखते वह मुस्कुराता गुलमोहर का वृक्ष बन जाता है जिसकी स्नेहिल शाखों से मधुर यादगार पल झरते-मुस्कुराते नज़र आते हैं। वे पल जो एक औपचारिक मुलाक़ात का साक्षी बनने आए थे मगर अपनी उम्र को जीते हुए स्नेहिल सम्बन्ध के साक्षी बन गए। और सम्बन्ध भी कैसा—पिता-पुत्री का—वात्सल्य से लबालब भरा। साक्षी बने कुछ पल वहीं टिक गए तो कुछ मेरे साथ चले आए स्मृतियों के ख़जाने का हिस्सा बनने।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस क़लमकार की सादगी और सहजता की रचनात्मक कलात्मकता से परिचय तो कृतियों के माध्यम से हुआ। डॉ. रमानाथ ‘रामकथा के अंतरराष्ट्रीय कोश’ क्यों कहे जाते हैं, इसकी बानगी तो उनकी ‘रामगाथा’ के दण्डकारण्य से गुज़रते हुए मिल जाती है। मगर लोकसंस्कृति में विराजित राम और उनकी कथा को नवीन रूप देनेवाले ने ही ‘कामरूपा’ और ‘शंख सिंदूर’ भी लिखा है—यह उनकी विशेष प्रतिभा को जानने-समझने की इच्छा जाग्रत करता है। डॉ. हरीश नवल ने उनकी कृतियों की ओर ध्यान खींचा था और मेरी बढ़ती जिज्ञासा को देखते हुए उनसे संवाद का सुझाव भी दिया। मैं निश्चिंत थी कि डॉ. नवल ने जब भी किसी व्यक्तित्व से मिलने और उनसे आमने-सामने संवाद का सुझाव दिया है तो वह व्यक्तित्व लीक से हटकर चलनेवाला, ख़ास ही रहा है। और ऐसी विभूति से मिलना, जिन्होंने नौ भाषाओं पर वाचन-लेखन का अधिकार स्थापित करते हुए, असमी, उड़िया, बांग्ला के रामायण पर एक साथ शोधकार्य किए हों, उत्कंठा स्वाभाविक है।
वर्ष 2019! अप्रैल-मई का कोई सप्ताह रहा होगा, फोन पर बात हुई, समय तय हुआ और मिलने पहुँच गई। दरवाज़ा अनुज (रिश्तेदार) ने खोला था। कमरे में गुलमोहर का पेड़ मिला, नेह की अथाह शीतलता लिए। सादगी की प्रतिमूर्ति! आत्मीयता का अजस्र सोता! लगा ही नहीं, किसी अपरिचित परिवेश में हूँ और मेरे सामने सोफ़े पर पनचानवे-वर्षीय वह महान साहित्यकार और अनुवादक आसीन हैं, जिनके कृतित्व की तुलना नहीं की जा सकती। जिस संकोच मुझसे लिपटकर लंबा रास्ता तय किया था, वह दस मिनट भी टिक न सका।
डॉ. त्रिपाठी ने बचपन से लेकर प्राध्यापक बनने सहित जीवन और सृजन के विविध आयामों पर इतना खुलकर, इतने मनोयोग से बातें कीं और अतीत में उतरते हुए वे जिस आनंद को जी रहे थे, उसका प्रत्यक्षीकरण अद्भुत था। संघर्षरत जीवन ही व्यक्तित्व को खरा सोना बनाता है, इसका प्रमाण मेरे सामने था। कई बार तो ऐसा लगा मानो रेडियो पर कोई धारावाहिक चल रहा हो और मैं आँखें मूँदे सुन रही हूँ। अतीत के एक-एक लम्हे को शिद्दत से जीते हुए, उसकी पीड़ा को महसूस करके भी आनंदभाव के साथ इतने विस्तार से उनका बताना, सहज अभिव्यक्ति या चर्चा-मात्र नहीं था, अभिव्यक्ति की कलात्मकता ने बाँध लिया। वे अपने अतीत से वर्तमान की यात्रा में तल्लीन रहे, मैं उनके साथ उस यात्रा में शामिल होकर आनंदित रही। पलों का आ-आकर जुड़ते जाने और लगभग दो-ढाई घंटे बीत जाने का हमें भान ही न हुआ। मैंने रिकॉर्डर तो बंद कर दिया, किन्तु स्नेहिल संवाद अभी कहाँ बंद होना था! उन्होंने कहा, “अक्सर साक्षात्कार देते हुए मैं थक जाता हूँ मगर तुमसे बात करना साक्षात्कार देने जैसा नहीं था, सहज बातचीत में देखो, मैंने जीवन दोबारा जी लिया। और थका भी नहीं हूँ।” वे कुछ क्षण मौन रहे। मैंने पानी का गिलास आगे बढ़ाया, उन्होंने पिया, फिर बोले, “जब समय मिले आ जाना। और सर से नहीं, अपने ‘बाबा’ से मिलने आना। आज से तुम मेरी बेटी हो।” मेरे लिए वह क्षण खिलखिलाने का था। फिर, कितनी ही बातों पर हम खिलखिलाते रहे। इस समय डॉ. नवल के आगमन ने इस मुलाक़ात को और महत्त्वपूर्ण बना दिया। हम तीनों एक साथ मोबाइल के कैमरे में आनंद के क्षणों के साथ क़ैद हुए। उनकी सेहत को ध्यान में रखते हुए हमने विदा होने की अनुमति चाही और वादा दिया कि जल्द मिलना होगा। उस दिन का संवाद एक मेधावी बालक, संघर्षशील किशोर और युवा और एक दृढ़संकल्पी सच्चे, ईमानदार व्यक्तित्व की बहुमुखी प्रतिभा अभिव्यंजित करती रचनाधर्मिता को जानने के कारण महत्त्वपूर्ण रहा। सार्थक और नेह में भीगे पलों को सँजोए, नए रिश्ते की ख़ुशबू के साथ विदा हुई। विदाई भी ख़ाली हाथ नहीं हुई। उन्होंने अपनी आत्मकथा का दूसरा खंड ‘महानागर’ भेंट में देते हुए कहा, “अब तक ‘वनफूल’ से मिली हो। इसमें एक वनफूल के महानागर बनने की कथा है।”
“मगर आप पर महानगर का रंग चढ़ा कहाँ?” मेरी बात सुनकर वे हँस पड़े थे।
“सो तो है, मैंने नागरी (अप) संस्कृति से ख़ुद को बचाए रखा।”
यों तो फोन पर हाल-चाल, खैर-ख़बर का सिलसिला तब तक अधिक बना रहा जब तक अनुज उनके पास रहा। मगर, जब वह नौकरी के सिलसिले में गुड़गाँव चला गया तो फोन पर बातचीत कम हो गई। बाबा थोड़ा ऊँचा सुनते थे। इस दौरान मई दूसरे सप्ताह से लेकर अंतिम सप्ताह तक अपने पिता की यथायोग्य सेवा करते हुए उन्हें अंतिम विदाई देना कहीं न कहीं मुझे रिक्त कर गया था। ऐसे समय में अनायास दो फोन आए थे—डॉ. रामदरश मिश्र एवं डॉ. रमानाथ त्रिपाठी के। दोनों गहरे मित्र रहे हैं, सगे भाई जैसे सुख-दुःख के साथी। और संयोग ऐसा कि दोनों ने पहली मुलाक़ात में मुझे बेटी बनाया और आत्मीयता का यह संकेत ही था कि दोनों को जाने क्या एहसास हुआ कि निजी तौर पर हाल पूछने के लिए फोन किया। बाबूजी ने समझाया, हिम्मत बँधाई, हर बार की तरह दुलराया, “तुम तो मेरी प्यारी बिटिया हो। बहुत साहस और धैर्य है तुममें . . .” वहीं बाबा (डॉ. रमानाथ) मेरे भीगे स्वर से विह्वल हो उठे थे। कितनी ही बातें कीं; बार-बार कहते रहे, “मैं हूँ न! आज से मैं तुम्हारा धर्मपिता, तुम मेरी धर्मपुत्री!”
मेरे पिता मेरे बचपन के एकमात्र दोस्त थे, तो प्रौढ़ शरीर के भीतर वह बच्ची ही बिलख रही थी। और बहुत दूर होते हुए भी बाबा (डॉ. त्रिपाठी) ने उस छोटी बच्ची का वह बिलखना सुन लिया था, जो मेरे द्वारा फोन पर प्रकट नहीं हुआ था। बाबा के ये वाक्य कहीं भीतर तक उतरते चले गए। अंतरंगता निश्चित तौर पर बिलखते मन पर मलहम का काम करती है। उन्होंने जो कहा, उसे दिल से निभाया। हालाँकि फोन पर हमारी बहुत बातचीत नहीं हो पाती थी, घर भी दूर था तो बार-बार जाना भी सम्भव न होता। मगर, इससे हमारे सम्बन्ध की सुगंध कभी कम न हुई। मिश्र जी को मैं बाबूजी कहती थी और अब उनके मित्र ‘बाबा’ थे। तो कहीं न कहीं उनकी दोस्ती के रंगीन ख़ुशनुमा पलों की स्मृति की साझेदार मैं भी बनती रही। बातचीत के दौरान, जब भी बाबूजी का नाम आता, बाबा अतीत में गोते लगाते हुए मज़ेदार क़िस्से सुनाते। उस समय उनका चेहरा खिल-खिल उठता।
सजे-सजाए पलों में से कुछ एक पल एक बार फिर मुस्कुराने लगे हैं। 5 अगस्त, 2019, बाबा का जन्मदिन। दो जानकारियाँ देने के साथ बुलावा हुआ—1. मैं केक नहीं काटता तो पार्टी जैसा कुछ नहीं। शाम को मेरी एक छात्रा आती है, तुमसे मिलवाऊँगा। 2. कोई तोहफ़ा लेकर मत आना। उनका आदेश मानना तो था ही, साथ ही बेटी होने का अधिकार जताने के मेरे अपने ढंग थे जिससे उनके कहे का मान भी रह जाता। उस दिन माँ भी मिलने आईं। गौरवर्ण, दप-दप दमकता चेहरा, माँग में सिंदूर और भाल पर टीका, मैं कुछ देर उन्हें निहारती रह गई, फिर आशीर्वाद लेने गरदन स्वयं झुक गई। माँ कमर दर्द के कारण बैठ नहीं पाती थीं, बावजूद इसके आईं और जब तक दर्द असह्य न हुआ, जाने को तत्पर न हुईं। जाते-जाते भी कहने लगीं, “तुमसे बात करना अच्छा लग रहा है, मगर अब और बैठा नहीं जा रहा।” बाबा भी कहने लगे, “इतनी देर सोफ़े पर कैसे बैठी रही, आश्चर्य है।” अनुज उन्हें सहारा देकर कमरे में छोड़कर आया। जाने से पहले अपने सामने सेवई खिलाकर गईं जो बाबा के जन्मदिन पर विशेष रूप से बनता था। जितनी देर हम इकट्ठे बैठे, बातों में, तर्कों में हम माँ-बेटी कई बार एक पक्ष में हो जातीं तो बाबा हँस पड़ते या शांत हो जाते, विरोध न करते।
उनसे मिलकर लौटते हुए विचार हावी रहा कि इस साहित्य समाज द्वारा बाबा को ठीक से जाना-समझा ही न गया। भाषा-साहित्य और अनुवाद के क्षेत्र में उनका काम औरों से कहीं ज़्यादा और प्रभावी है, मगर न उन्होंने कभी ख़ेमेबाज़ी की, न सम्मान की चाह में असंतुष्ट रहे। हालाँकि उनके नाम पुरस्कार और सम्मान कम न हुए, किन्तु फिर भी कुछ क्षेत्र अछूते रह गए। उत्तर प्रदेश केंद्रीय हिंदी संस्थान की ओर से पहले भी सम्मानित किया गया था, बाद के दिनों में उन्हें साढ़े चार लाख का उस संस्था का सर्वोच्च सम्मान मिला। 2020 के आरंभ में, लॉकडाउन से पहले सत्यवती कॉलेज से लौटते हुए बाबा से मिलने चली गई। उस दिन बाबा ने आत्मकथा का पहला खंड ‘वनफूल’ दिया और बोले, “तुम्हारे पास दोनों होनी चाहिए।” अनुज ने उन पलों को भी कैमरे में क़ैद किया जो अब मेरी पूँजी हैं।
राम के प्रति बाबा की निष्ठा भी अद्भुत ही थी। किन्तु राम को लोकनायक के रूप में उन्होंने अधिक स्वीकारा। इस पर बहुत विस्तार से लिखा भी है। यों भी उनकी पीएच.डी. और डी.लिट्. का विषय राम से संबद्ध रहा। उनकी पीएच.डी. का विषय था—कृत्तिवासी रामायण और रामचरितमानस और डी.लिट्. का—रामचरितमानस और पूर्वांचलीय रामकाव्य। उन्होंने बताया, “उपन्यास ‘रामगाथा’ में वर्णित कई प्रसंग मेरी मौलिक रचना हैं। मैं वाल्मीकि की पटरी पर चला हूँ, पर मैंने मौलिक सर्जना भी की है। जो संभाव्य है, वही। वाल्मीकि ने कई ऐसे प्रसंग दिए हैं जो विश्वसनीय नहीं हैं, उनको लोक से जोड़कर मैंने विश्वसनीय बनाया है।”
बाबा ने लोक जीवन की धरातल पर रामकथा को इस तरह खड़ा किया कि उसमें वर्णित कुछ प्रसंग वर्तमान समाज के होकर भी रामकथा-प्रवाह में फ़िट बैठ गए हैं, जैसे कि ब्राह्मण द्वारा गमछे में सत्तू सानने का प्रसंग। इस तरह के कई प्रसंगों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “पूरे भारतवर्ष में रामकथा वहाँ के परिवेश के अनुरूप ढलकर प्रस्तुत है। केवल वाल्मीकि रामायण होती तो राम आकाशकुसुम हो जाते, जन-जन के न होते। गाँवों में जो विवाह-संस्कार होते हैं, वे राम को लेकर गाए जाते हैं। दूल्हा राम होता है और दुलहन सीता। यानी राम भारतीय संस्कृति के मेरुदंड हैं।”
असमी, उड़िया, पूर्वांचली, दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित, नेपाली आदि-आदि जहाँ भी जिस भाषा-क्षेत्र में रामकथा लिखी गई थी, कुछ मूलरूप में कुछ अनूदित—सब उन्होंने पढ़ी, उनसे लोकसंस्कृति का सार तत्त्व ग्रहण किया फिर अपने लोकनायक पर क़लम चलाई। उनके ज्ञान को देखकर मेरे मुँह से निकला, “बाबा! आप तो राम से जुड़े संदर्भों के इनसाइक्लोपीडिया हैं।” वे मुस्कुरा भर दिए।
लॉकडाउन ने मिलने-जुलने पर ऐसा ताला लगाया कि फिर लंबे समय तक मिलना नहीं ही हो सका। फोन पर उन्हें सुनाई देना बहुत कम हो गया। फिर अस्वस्थ रहने लगे। उनके सुपुत्र डॉ. अजय त्रिपाठी, जो 2021 में सेंट स्टीफेंस कॉलेज में मेरे सीनियर रहे थे, बाद के दिनों में उनसे ही मैसेज द्वारा हाल पूछ लेती, मगर बाबा से मिलने की कचोट बनी रही। अजय सर बेहद सरल और सुलझे हुए इंसान हैं, हालाँकि उनसे खुलकर संवाद कभी नहीं हो पाया। ऑनलाइन क्लास की वजह से कॉलेज में मिलना भी एक-दो बार ही हुआ था।
13 दिसंबर 2023 की शाम मिलने का समय तय हुआ। बाबा को अब घंटा भर भी बैठने में तकलीफ़ होती थी, लेटने के बाद उनको बिलकुल सुनाई न देता, इसलिए तय समय पर वे अपने कमरे में कुरसी पर ही बैठे रहे। इधर दिल्ली की ट्रैफ़िक ने आधे घंटे की यात्रा को डेढ़ घंटे में बदल दिया। अजय सर भी बाबा को लेकर चिंतित थे और मैं रास्ते में जाम को कोसती हुई। क़रीब शाम छह बजे मैं पहुँची। बाबा का चेहरा उसी वात्सल्य से भर खिल उठा, जैसा पहले भी होता रहा था। मैंने संवाद की पुस्तक ‘जीवन और सृजन’ बाबा को ही समर्पित की थी जो उस दिन उन्हें प्रत्यक्षतः भेंट करने का संयोग पा गई। माँ-बाबा की आँखें स्नेह और आशीष से भरी थीं। अपने सौंवें जन्मदिन को धूमधाम से मनाने की घोषणा करते हुए उन्होंने स्नेहिल आदेश दिया, “आना ज़रूर! और मेरे मित्र (रामदरश मिश्र) को भी कह देना, अगला जन्मदिन धूमधाम से मनाने की तैयारी करे।” बाबा आश्वस्त थे, सौ वर्ष की लकीर वे पार कर ही लेंगे। कमज़ोर तो हो गए थे, मगर उनकी जिजीविषा ने हमें भी आश्वस्त किया था। अजय सर उनकी पुलकन देख, हैरान थे और ख़ुश भी। उन्हें आराम करने के लिए हमने कितनी बार कहा, मगर वे बैठे ही रहे। उस शाम उन्होंने कितनी ही बातें कीं। कितनी ही पुरानी यादें ताज़ा कीं। याद कर ख़ुश होते और सुनाते रहे। शाम के 7 बजे मैंने विदा माँगी। माँ से गले मिलकर, दोनों से आशीष लेकर बाहर निकलने लगी तो बोले, “मिलने आ जाया करो।” सर ने भी कहा, “जब समय मिले, बीच-बीच में आ जाना। बड़े दिनों बाद बाबा को इतनी देर बातें करते देखा।”
फिर जल्दी मिलने का वादा कर जब देहरी से बाहर हुई, कहाँ पता था, बाबा से मेरी यह मुलाक़ात अंतिम मुलाक़ात बन जाएगी और उनके जाने के बाद ही माँ से मिलना होगा! 28 फरवरी 2024 को बाबा ने देह त्याग दिया, हरीश नवल सर से मिली यह सूचना मेरे लिए विस्फोट से कम नहीं थी। शतायु होकर उसे धूमधाम से मनाने की इच्छा आख़िर बीमार देह से हार गई। अंतिम के कुछ दिन अनायास तबियत बिगड़ने से अस्पताल में गुज़रे। अजय सर ने हर मुमकिन कोशिश की, मगर . . .!
बाबा के साथ माँ का सौंदर्य ही नहीं, वह जिजीविषा भी खो गई लगती है। सत्तर वर्षों का वैवाहिक जीवन साथ-साथ, हर दुःख-सुख बाँटते हुए जब बिखरता है तो उस बिखराव का मूर्त चेहरा अकेले छूट गए साथी का चेहरा बन जाता है। इस बार माँ से गले मिलना, पीड़ा के घर से मिलने जैसा लगा। माँ की माँग का सूनापन उस कमरे में बस गया था। शेष थीं तो माँ की भीगी आँखें। माँ ने भी फिर जल्दी आने को कहा है, मगर कई बार वक़्त के थपेड़ों में ज़िन्दगी उलझकर रह जाती है। उम्मीद है अगली बार जब माँ से मिलूँगी, बाबा उस कमरे में समाए मुस्कुराते नज़र आएँगे।
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