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इक्कीसवीं सदी के नाम पत्र

प्रिय पुत्री सदी, 

शुभ स्नेह! 

इक्कीसवाँ जन्मदिन मुबारक हो। अशेष बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ! 

तुम्हारे जन्मकाल से पूर्व बड़े बदलाव के आसार नज़र आए थे। ये आसार विकास की राह पर बढ़ने के थे और आज, तुमने 21 वर्ष पूरे करके बाइसवें में क़दम रखा है। इसलिए यह वर्ष हम सबके लिए महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारा इक्कीसवाँ जन्मदिन जिस धूम से मनाए जाने की हसरत थी, उसकी तामील भले पूरी तरह न हो सकी, मगर आनंदोत्सव का शुभारंभ हो चुका है और हो भी क्यों न, तुम हो ही इतनी ख़ास! 

क्या तुम यह सोच रही हो कि इन इक्कीस वर्षों में मैंने तुमसे कभी कुछ कहा नहीं, अभी अचानक . . .! पुत्री! हमारे नए भारतीय संविधान के अनुसार, अब तुम विवाह के योग्य वयस्क हो चुकी हो। 18 वाली कच्ची वयस्कता नहीं, सचमुच परिपक्व हो चुकी हो। बल्कि उम्र से अधिक परिपक्व! आशा करती हूँ कि हर हाल में स्वयं को सकुशल रखने में समर्थ होगी, हालाँकि ऐसी आशा बेमानी है, फिर भी करती हूँ . . . उम्मीद का दामन कैसे छोड़ूँ? तुम सुन रही हो न तरह-तरह की आवाज़ें . . . गीत-संगीत-नृत्य . . . यह उन्माद भरा हर्ष तुम्हारे 21वें जन्मदिन मनाने को लेकर युवाओं के मन में उपजा है और जो लगातार धरती-आकाश में व्याप रहा है। मानव समुदाय का एक बड़ा हिस्सा मदमत्त है, जीवन से एक वर्ष कम होने की पीड़ा नहीं, नए पल के स्वागत को तत्पर मन अपनी-अपनी शैली में आनंदोत्सव मना रहा। बस, तुम मौन हो! सन्नाटा तुम्हारे चेहरे पर बेतरतीब लकीरें खींच गया है। मैं देख पा रही हूँ, तुम्हारी पनियाई आँखें! तुम कोरोना की तीसरी लहर झेलती हुई आशंकित हो। कोरोना के आपदाकाल को स्वार्थी तत्वों द्वारा स्वार्थ-सिद्धि एवं मनमानी किए जाने के लिए सुअवसर बनाए जाने वालों के कारण पिछले दो वर्षों में कितना कुछ झेला है तुमने! छलनी-छलनी है तुम्हारा तन-मन। फिर भी, आशावती बनी रहो, यही कहूँगी। मैं जानती हूँ, कहना आसान है, सहना नहीं। कोई एक कष्ट भरा जीवन नहीं झेल सकता और तुम असंख्य कष्टमय जीवन जीने, महसूसने, छलनी होने, असीम वेदना झेलने के लिए विवश हो। 

कई बार लगता है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी कष्ट झेलने को अभिशप्त हो तुम सब। तुम्हारे पुरखों ने भी पीड़ा झेली थी। वह पीड़ा अपने स्तर पर सघन थी। तुम्हारी पीड़ा की साक्षी मैं हूँ। मैंने तुम्हारी माँ के जीवन के अंतिम तीस वर्ष देखे हैं, उनके बचपन और युवावस्था के संघर्ष को सुना है। उनका जीवन भी उथल-पुथल से भरा रहा। वे बड़ी-बड़ी दुर्दम घटनाओं के साक्षी रहीं . . . और भोक्ता भी, दोनों विश्वयुद्ध, मुक्ति-आंदोलन, सामाजिक जड़ता के विरुद्ध आंदोलन, और भी न जाने कितने कितने घाव झेले उन्होंने मगर उम्मीद का दीया बुझने न दिया। भला कैसे बुझने देती! स्वामी विवेकानंद सरीखे सामाजिक क्रांति लाने वाले संन्यासी को देखती-सुनती हुई बड़ी हुई तो महामना, तिलक, सुभाष, आज़ाद, भगत, बाल, पाल, राजगुरु, अशफाक़ और शिव वर्मा से लेकर कस्तूरबा, सरोजिनी, दुर्गा, प्रीति, स्वर्णलता सरीखी अनेकानेक वीरांगनाओं के भी साथ हुईं। टैगोर को भरपूर जिया और गाँधी की आँखों से शुभ्र समतावादी भारत का सपना देखने लगीं। अध्यात्म की लौ की शुभ्रता उन्होंने देखी ही नहीं थी, उसे महसूसा भी था बार-बार, कई बार। भीषण प्रतिकूलता में भी आत्मबल कम न हो पाता था, तभी तो स्वतंत्रता आंदोलन में, तुम्हारी माँ बीसवीं सदी की दृष्टि में आम चेहरे अधिक ख़ास हो गए थे, सबकुछ समर्पित करने वाले। लंबे समय से भीतरी-बाहरी हिंसा से पथराई तुम्हारी माँ की कमर ही टूट गई जब बापू को गोली लगी। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे कलेजे में टीसती पीड़ा से तड़पने लगी थी। कैसे न तड़पती, बापू को कांधा देते हुए स्वयं उनका कंधा भीतर की बिलखन से थरथरा रहा था। एक-एक कर सभी साथी विदा हुए। तुम्हारी माँ भारत की जनता को चीख-चीख कर समझाना चाहती थी, “देखो, गाँधी ने जो कहा था, वह शब्द्श: सच हो रहा। तुमने पहले भी बात नहीं मानी, अब भी सँभल जाओ। नफ़रत की आँधी और स्वार्थ की अग्नि से कभी किसी समाज का भला न हुआ है और न होगा।” मगर किसी ने न सुनी। उनकी चीख कंठ में घुट कर रह गई और वे बुढ़ापे की तरफ़ पग बढ़ाते हुए ईश्वर से फ़रियाद करती रहीं। 

मानवता की राह में बुद्ध के सत्य-अहिंसा को, ईसा के प्रेम को गाँधी ने नए रूप में हर भारतीय के मन-वीणा का तार बनाना चाहा था, मगर वह तो उनकी आँखों के सामने ही टूट गया। उनकी आंतरिक टूटन से अलग नहीं थी तुम्हारी माँ की टूटन, फिर भी तीन गोली सीने पर खाकर घट-घट में रमते ईश्वर को ‘राम’ पुकारने वाले गाँधी के होंठों पर मुस्कान सजी थी, इस दृश्य ने उन्हें बल दिया था। असंख्य चिताओं की लपट, नफ़रत का बारूद झेला, एक-एक कर महामानवों का प्रयाण और मानवीय मूल्य-हनन की आंतरिक टूटन की पीड़ा की छाप बाद के दिनों में भी उनके चेहरे पर थी, शायद तभी मैं उनकी पीड़ा समझ पाई और आज तुमसे साझा कर रही क्योंकि तुमने भी अपनी माँ की ही तरह दर्द झेला है। तुम्हारे जन्म के पहले से ही सत्य-अहिंसा, ईमानदारी, परोपकारिता, सदाशयता, नैसर्गिकता समाज से ग़ायब होने लगीं, कहीं छिप-छिपा कर एकाध घर में बैठी हो तो हो, जैसा कि अब भी है, मगर उनके होने को लेकर तुम्हारी माँ आश्वस्त थी और आँख मूँदने से पहले वही आश्वस्ति, वही उम्मीद की साँस उन्होंने तुममें भरी और तुमने 21वीं सदी के भीतर पहली साँस ली। तुमने जो दुनिया देखी, वह भौतिकता के विकास, बौद्धिकता के विकास और विज्ञान और तकनीक के विकास का स्वागत करती दुनिया थी। तुम नई दुनिया का प्रवेश द्वार भी बनी और साक्षी भी। तुम्हारा बचपन विज्ञान और तकनीक के चमत्कार दिखाए और ऊँघ रहे आम समाज को जगाने की कोशिश की। कोशिश सफल भी हुई, मगर अब पुराना समाज नई तकनीकों के कारण नींद खोने और विज्ञान के कारण नींद की गोली खा-खा कर ऊँघने लगा और ऊँघती हालत में नई पौध को बरगलाने लगा। जो तुम्हारी माँ नहीं चाहती थी, वही हुआ। भ्रष्टाचार, अनैतिकता, पाशविकता के जबड़े में दबी, लहूलुहान वह नहीं चाहती थी कि अमानवीयता का नृशंस नृत्य तुम देखो-भोगो। इसलिए जाते-जाते विज्ञान और अध्यात्म का मूल-मंत्र देती गई। नई दृष्टि, नए विचार, सच पर टिकने और झूठ को नकारने की हिम्मत, उन्नत बौद्धिकता, मानवता की राह और संसाधन के सदुपयोग की सीख—सब दे गई तुम्हें और तुम्हारे साथ हँसते-खेलते नए समाज को। जो वे नहीं कर पाईं, वह था गुमनाम आदिवासियों के जल-जंगल-ज़मीन का हक़ पूरी तरह उन्हें दिला पाना; गुमनाम क्रांतिकारियों को उनके बलिदान का सम्मान और उनके परिवारों के लिए कुछ कर पाना, और भी बहुत कुछ . . .। ये सब अनकहे दायित्व अब तुम्हारे कांधे पर तो हैं ही, धर्म के नाम पर सामाजिक व्यवस्था का कुरूप चेहरा भी ठीक करने का दायित्व भी तुम पर ही है। वर्ण-व्यवस्था के नाम पर दोहन और शोषण के कारण हज़ारों आदिवासियों और दलितों ने ईसाई धर्म/बौद्ध धर्म स्वीकार लिया और जीवन जीने लायक़ बनाने की कोशिश में लगे। भीतरी विखंडन का कारोबार रुका नहीं है, कम हो गया है, यह संतोष था उन्हें। जीवन के अंतिम पड़ाव पर, नफ़रत की आँधी को झेलती तुम्हारी माँ ने प्रेम और सौहार्द का अद्भुत मंज़र देखा तो सुकूनमंद हुई कि अब फिर मानवता का प्रसार होगा। तुम नई ऊर्जा से लबरेज़ आई और तकनीकी क्रांति का आग़ाज़ किया। तुम्हारे हमउम्र साथी तुम्हारे जैसे ही थे—ऊर्जावान, तार्किक, विश्व से जुड़कर आगे क़दम बढ़ाने वाले और उनके सहयोगी बने उनके माता-पिता। घृणा का कारोबार लगभग बंद हो चुका था, मगर अमीरी–ग़रीबी का फ़ासला बढ़ता गया। तुमने कभी नहीं चाहा कि ऐसा हो मगर ऐसा हुआ, होता गया। जब तक तुम बड़ी हुई, बहुत कुछ अप्रिय घटित हो चुका और तुम्हारा कोमल मन सब सहने को अभिशप्त रहा। जानती हूँ, पिछले एक दशक में तुमने जो झेला वह आज भी तुम्हारे तन–मन पर असंख्य रेंगते साँपों का एहसास देता है; आज भी उन हादसों को, उन क्रूर अमानवीय कुकृत्यों को भूल नहीं पाई हो। तुमने जीवन को कुचले-रौंदे-नोचे/ ढहते-बहते-मरते देखा है, बार-बार, कई बार! आसान नहीं है भुलाना, मगर फिर भी तुम्हारा होना इस भारत भूमि को मायने देता है। कई कुरीतियाँ स्वयं समाप्त हो गईं। शहरों ने छुआछूत की भावना पर राख़ डाली। शिक्षित युवाओं ने स्त्री को दोयम दर्जे का मानना बंद किया। अब युवा स्त्री सिर्फ़ पुरुष के निर्णय की अनुगामिनी या दैहिक उपादान नहीं, उसकी अपनी सोच, अपना निर्णय चेतना के जागरण का संकेत देता है। अफ़सोस है कि कुछ विक्षिप्त मानसिकता वाले समुदाय आज भी स्त्री को उपादान बनाने पर तुले हैं। तुम गूँगे कंठ की मुखर ध्वनि हो जिसकी गूँज वैश्विक स्तर पर सुनाई देती है। यह बड़ी बात है। इसलिए तुम उदास या हताश मत हो। तुम्हारी माँ जो अलख जगा गई, उसे तुमने निरंतर प्रखर रखा है। सामाजिक, राजनीतिक उठा-पटक में सबसे अधिक शैक्षिक मूल्यों का हनन हुआ है। शिक्षा केवल रोज़गार के निमित्त हो गई थी, तुमने वहाँ भी क्रांतिकारी बदलाव किया। मुट्ठी भर ही सही, तुम्हारे संगी-साथी सच्चाई-ईमानदारी, कर्मठता, बौद्धिकता, सफलता, प्रेम, सौहार्द और परोपकार की मिसाल पेश कर रहे हैं। यह तुम्हारी उपलब्धि ही है। तुमने भावना और विचार के जो शुभ्र पुष्प खिलाए हैं, उनमें से कुछ अपने आसपास की दुर्गंध के कारण अपनी सुगंध पहचान नहीं पा रहे, उनके लिए दुखी मत हो, समय उन्हें भी जल्द सच्चाई से मिलवा देगा। हाँ, जो शुभ्र आलोक अँधेरे घर का पता ढूँढ़ रहे, तुम उन्हें लक्ष्य तक पहुँचाना और सचेत रहना बदले जा रहे इतिहास के प्रति; सच को सँजोए रखना ताकि सौंप सको अपनी अगली पीढ़ी को गुमनाम सच। तुमने तो कम उम्र में ही सच के साथ टिके रहने की अपनी दृढ़ता दिखाई है, अब उसे धूमिल होने से बचाए रखना। 

पुत्री! कल मैं रहूँ, न रहूँ, मगर तुम माँ-बेटी के बीच की कड़ी हूँ, साक्षी हूँ, इसलिए बता-समझा पा रही हूँ। तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारे विवेक और तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर विश्वास है मुझे। तुम्हारे जीवन के पिछले दो-तीन वर्षों में जो रक्त छीजने वाली घटनाएँ घटीं, स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बिगड़ीं, चारों ओर आम जन के हाहाकार से तुम्हारे कानों से जो लहू बहे, रोते-रोते तुम्हारी बाह्य दृष्टि जो कमज़ोर हुई, उन्हें ही आत्मबल बनाना। यही किया था गाँधी ने। सहनशक्ति का उन्नयन भयमुक्त कर देता है और जब भय नहीं रहता तो निडरता आत्मबल की सहायिका हो जाती है। बाहरी अवयव की कमज़ोरी या मज़बूती से सकारात्मक बदलाव नहीं आते, आते हैं आंतरिक बल से—संकल्प, दृढ़ता और निष्ठापूर्वक किए गए कर्म से। अपने जीवन में घटित अँधेरे-उजाले पलों को अपनी डायरी में लिखो, लिखते जाओ और ध्यान रखना, जीवन का ध्येय कभी विस्मृत न होने पावे। हर उम्र की अंतश्चेतना की जागृति अनिवार्य हो चली है। ‘वाद’ हमेशा घातक सिद्ध हुआ है। अनुयायी नहीं बुद्ध, ईसा, विवेकानंद और गाँधी की-सी जाग्रत चेतना के लिए हर एक को नींद से—तंद्रा से बाहर लाओ। कण-कण में अक्षय आनंदोत्सव होगा और फिर तुम देखना कैसे तुम्हारी सिमटी मुस्कान एक बार खिल उठती है! 

‘यतो जीव ततो शिव’, ’जय सेवा’, ’जाग्रत भव’ का मूलार्थ तुम समझा सकोगी और उस पल धन्य होगी धरा . . . विश्वास है मुझे। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:’ यही आशीष, यही शुभकामना! 

तुम्हारी मासी 

आरती स्मित 
1.01.22

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टिप्पणियाँ

डॉ.ममता पंत 2022/01/04 02:16 PM

बहुत खूब आरती

डा. अशोक मैत्रेय 2022/01/03 04:33 PM

अप्रतिम। सारगर्भित। समीचीन।

डॉ भावना शुक्ल 2022/01/02 02:56 PM

बेहतरीन सार्थक सारगर्भित अभिव्यक्ति

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