बापू और मैं–006: बदलते चेहरे
कथा साहित्य | कहानी डॉ. आरती स्मित1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
“चेहरा क्यों उतरा हुआ है?”
‘बापू की आवाज़!’ मेरे कान खड़े हो गए। नज़रें आसपास, चारों ओर घूम गईं मगर बापू नहीं दिखे। मन न माना तो अध्ययन कक्ष से निकलकर दूसरे कमरे में भी झाँक आई। बापू वहाँ भी नहीं मिले तो भ्रम मानकर वापस अध्ययन कक्ष की ओर बढ़ी। कमरे में घुसते ही नज़र सामने स्टडी टेबल से लगी दीवार पर टँगी तस्वीर पर ठहर गई और यह देखकर आँखों का मुँह खुला का खुला रह गया कि तस्वीर के निचले हिस्से में लिखे वाक्य–‘भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गाँधी’ के ठीक ऊपर विराजित बापू का चित्र फ़्रेम से बाहर निकल रहा है।
आँखें वैसी ही अपलक रहतीं अगर फ़्रेम से बाहर निकलकर खड़े बापू क़दम बढ़ाते मुझ तक न आते और दोबारा न टोकते।
“मैंने पूछा, चेहरा क्यों उतरा हुआ है?”
“अंsss नहीं तो!” मैंने ख़ुद को झटका देते हुआ जवाब तो दिया मगर साथ में सवाल चिपका रहा, “बापू! आज आपको फ़्रेम से बाहर आने की क्या ज़रूरत पड़ गई?”
“यह समय बँधे फ़्रेम से बाहर आने का है जबकि ठीक उल्टा हो रहा है। एक हवा चली है, एक लहर उठी है—विरोध जताने की ख़ातिर क्रांति की लहर। हालाँकि अब तक उसमें हिंसा शामिल नहीं है।”
“समझी नहीं!”
“देख रहा हूँ, अचेतनता तुझ पर भी हावी है। देख नहीं रही, आज़ाद भारत में कोई भगत सिंह की लीक पर चल पड़ा है। शायद . . . शायद इस उम्मीद में कि भगत सिंह की तरह उसके विरोध प्रदर्शन और बलिदान के जज़्बे को देशवासियों द्वारा याद रखा जाएगा या कम से कम युवाओं की सोई चेतना को झकझोर सकेगा!”
“इस शायद में सच की सम्भावना तो है। मगर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता! यह सच होगा भी तो ज़रूरी नहीं मीडिया पूरा का पूरा सच जनता के सामने लाए। ख़ैर बताइए, आपके लिए क्या लाऊँ? चाय तो आप पीते नहीं। कोकोआ?”
“कुछ भी नहीं! हृदय में जब राम बसा हो, तब सारी ज़रूरतें ख़त्म हो जाती हैं।”
“आपके राम तो कण-कण विद्यमान ईश्वर से अयोध्यापति भगवान् राम हो चले हैं जिनके इर्द-गिर्द कुछ ख़ास लोग होंगे।”
“मेरा राम हर एक में बसा है। जिसने भीतर ढूँढ़ा, उसने पाया। ज्यों-ज्यों भीतर उतरती जाओगी, उस सूक्ष्म की विराटता के दर्शन करती जाओगी। . . . मैं तो यह जानना चाहता हूँ, पिछले वर्ष जो घटनाएँ घटीं, क्या उसने तुम्हें झकझोरा नहीं?”
“हर घटना की सच्ची तस्वीर सामने आ कहाँ पाई! देश के बाहर तो वे अंतर्व्यथाएँ पहुँच ही नहीं पाती हैं। बढ़ती बेरोज़गारी, बढ़ता आडंबर, बढ़ती अंधभक्ति, बढ़ती अचेतनता, बढ़ता स्वार्थ, बढ़ती भेड़संख्या, बढ़ती अनैतिकता और निरंकुशता जैसी कई बातों ने उस एक मुट्ठी संख्या को भगत सिंह के बलिदान को दुहराने की प्रेरणा दी होगी! जो भी हो, मगर उस घटना ने क्षण भर को आम जन को स्तब्ध कर दिया, मगर तुरंत ही भगत सिंह के बम कांड की योजना और उद्देश्य दृश्य बनकर सामने उभर आया।”
“भगत सिंह और उसके साथी ने फिरंगियों के ख़िलाफ़ क्रांति शुरू की। क्या लगता है तुम्हें, इस दिन के लिए वे फाँसी पर झूले होंगे कि आज़ाद भारत की युवा पीढ़ी को जगाने के लिए कुछ युवाओं को उनकी ही तरह बिना किसी को नुक़्सान पहुँचाए, एक बड़ी चेतावनी देने के लिए ख़ुद को दाँव पर लगाना होगा? क्या उनकी आत्मा को चैन होगा?”
“बापू!”
“फिरंगियों के ख़िलाफ़ लड़ना और अपने ही देश में व्यवस्था से लड़ना दो अलग-अलग परिणाम देते हैं। ख़ासकर ऐसे समय में जब सदी दो विरोधी पाटों में पिस जाने की प्रक्रिया में है। अंधेपन की विरासत तो उसने पिछली सदी से ही पा ली है। ग्लोब पर खिंची विभाजन रेखा मानवता के स्तर पर जुड़ने में जाने कितनी सदियाँ लेंगी! मैं सुन रहा हूँ भस्मासुर का अट्टहास और देख रहा हूँ शिव की लीला! क्या तुम सुन पा रही हो?”
“बापू, आपकी कई बातें मेरे ऊपर से निकल जाती हैं।”
“क्या सचमुच! ऐसा तो नहीं कि तुम जवाब देने से कतरा रही हो।”
“नहीं, साधारण से दिखते गूढ़ सवाल का गूढ़ जवाब तलाश रही हूँ।”
“साधारण सवाल?”
“हाँ, जो हर एक के दिमाग़ में उपजा कि लॉक डाउन के दौरान जब मौत का सस्ता बाज़ार सजा था और सरकारी निगरानी में संसद भवन का नव निर्माण हो रहा था, जिसमें ‘सुरक्षा’ पर ख़ास ध्यान दिया गया है, वे लोग . . . जिन्हें आतंकवादी कहना सही नहीं लगता, वे सत्ता विरोधी, गरम ख़ून वाले युवक आख़िर घुसे कैसे?”
“हम्म! क्या तुम्हें भी लगता है, इस तरह घुसकर संसद-सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने का उनका ध्येय पूरा हो गया?”
“सीधे-सीधे ‘हाँ’ कहना साधारण जवाब होगा। चलिए मेरे साथ?”
“कहाँ?”
“चलिए तो . . . बाक़ी बातें चलते-चलते . . . आप वैसे भी बहुत तेज़ चलते हैं, तभी तो कोई आप तक पहुँच नहीं पाया; पहुँच पाता तो आज़ाद हो रहे भारत की देह और उससे अधिक मन पर इतने घाव न होते! कुछ घाव अब नासूर बन चले हैं मगर उसकी टीस का एहसास मस्तिष्क को नहीं है। संवेदना की वे नसें बुरी तरह सूख चली हैं . . .”
“भीतर से भरी हुई हो, क्यों नहीं बह जाने देती?” बापू ने अगला क़दम बढ़ाया।
“औरों की टीस बमुश्किल जज़्ब हुई है, ताकि उस पीड़ा को महसूस करने योग्य चेतना ज़िन्दा रहे। . . . कैसे बह जाने दूँ? बहाना तो उन मवादों को है जिनसे भारत माँ के तन-मन में सड़ाँध पैदा हो रही है। क्या आप भारतीय संसद पर हुआ पहला हमला भूल गए?”
“इस देश की माटी मुझे कुछ भूलने कहाँ देती है!”
“फिर तो आपको याद होगा ही कि 2001 में हुए संसद हमले को ‘आतंकवादी हमला’ मानने के कई कारण सामने आए थे। वह सचमुच हमला था, यह महज़ विरोध जताते हुए सुरक्षा के प्रति एक चेतावनी भर क्योंकि उन दो युवाओं ने किसी को हानि पहुँचाने की कोई कोशिश नहीं की और न ही उनके उन साथियों ने जो उनकी ही तरह लाल-पीली साधारण गैस छोड़ रहे थे और वे गैसें ज़हरीली नहीं थीं, यह भी सिद्ध हो चुका। वे सब जानते थे कि इससे संसद के भीतर या परिसर में मौज़ूद लोगों को कोई हानि नहीं पहुँचेगी मगर उनका जीवन जहन्नुम हो जाएगा।”
“भगत सिंह का अनुगामी!”
“आपको तो फिर मालूम ही है।”
“अभी हम कहाँ जा रहे हैं?”
“शहीद-इ-आज़म के उसी भक्त की माँ से मिलने।”
“क्या करोगी जाकर? वह उतना ही कहेगी, जितना प्रेसवालों को बता चुकी है। उसके भीतर भी कई सवाल फन उठाए खड़े होंगे। वह भी ख़ुद अपने ही सवालों के पिंजरे में क़ैद होगी कि उसका बेटा आख़िर ऐसा क्यों कर गया!”
“बापू! भगत सिंह की तस्वीर को अपने रक्त से हर रोज़ तिलक लगाकर अपने भाल पर तिलक लगानेवाला युवक कितना जोशीला और सामाजिक स्थिति-परिस्थिति के प्रति कितना संवेदनशील होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।”
“सो तो है।”
“आइए, यहाँ बैठते हैं।”
“थक गई?”
“आप थककर बैठने देंगे?”
“सुस्ताने भी नहीं दूँगा। जाड़े की धूप का आनंद तुम्हारे लिए नहीं। अभी तो तीखी धूप कई बार जलाती रहेगी।”
“बापू! देखिए तो सही इंडिया गेट की बदली सूरत! नेताजी की प्रतिमा और . . .”
“जब साबरमती आश्रम और जालियाँ वाला बाग़ की सच्ची सूरत पर मुलम्मा चढ़ाकर उसे महज़ पर्यटन स्थल बना दिया गया जहाँ पहुँचकर अब कोई संवेदना नहीं जनमती, मन दफ़नाए सच को ढूँढ़ पाने को बेचैन नहीं होता, माटी में परस्पर प्रेम, भाईचारा, त्याग, सेवा और समर्पण की भावना नहीं उमगती, तो यहाँ तो वैसे भी . . .”
अब बापू की चुप्पी लगातार बोलती जा रही थी। मेरी आँखों के सामने साबरमती के मूल आश्रम परिसर में घूमते और अपने चेलों को निर्देश देते सफ़ेद कुर्ताधारियों के चेहरे पर उगी व्यवसायिकता का वह दृश्य उभर आया जिसे नए सिरे से समझने की जद्दोजहद में देर तक लगी रही थी। याद आया वहाँ चरखा चलाता एक पुरुष जिनके कार्य में चरखे के प्रति वह प्रेम नहीं महसूस पाई थी, एक नया चरखा गाँधी पर आयोजित संगोष्ठी कक्ष में भी लाकर रखा गया था और सबसे बड़ा चरखे का शो पीस दिल्ली एयरपोर्ट पर दिखा। एक आकर्षण!
“बापू! जिन सस्ते साधनों द्वारा घर-घर आर्थिक स्वावलंबन की नींव रखने के लिए आपने और आपके सहयोगियों ने ज़िन्दगी लगा दी, आपको नहीं लगता, आज़ादी के पहले से ही उन कर्मों के उद्देश्य सिरे से भुला दिए जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी?”
“हाँ और अब तो स्मृति–पटल से सच की बची-खुची राख भी खुरच-खुरचकर नाले में बहाई जाने की प्रक्रिया जारी है। कल का वर्तमान आज का इतिहास है और इतिहास तो शासकों द्वारा रचा जाने वाला पन्ना है। जाने कितनी बार अपने ऊपर फैली स्याही को सोखेगा और नई इबारतों का जंगल उगाने पर मजबूर होगा!”
बापू फिर मौन हो गए। निगाहें आसमान के बदलते रंग पर टिकी रहीं। सूरज धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगा। क्षितिज पर रंगों की अठखेली शुरू हो गई। बापू टकटकी लगाए सूरज को ढलान की ओर जाता देखते रहे . . . मैं भी। क्षितिज रंगों को अपने भीतर समेट चुका था। हवा में कनकनी बढ़ चली। बापू तो जैसे अपनी देह के भीतर थे ही नहीं, मगर मुझे स्वेटर में भी ठंड लगने लगी तो टोके बिना न रह सकी।
“बापू! चलें?”
“अब कहाँ?”
“जहाँ आप कहें।”
“अब जाता हूँ। सरदार भगत से मिले बहुत दिन हो गए। जानूँ, उसे ख़बर है भी या नहीं!”
“क्या?”
“अरे यही कि इस नए युवक ने पुराना तार खींचकर उसे सुर में लाना तो चाहा है, मगर उसके मूल उद्देश्य को वह किस रूप में समझता है। जल्द मिलूँगा।”
बापू उठ खड़े हुए और डूबते सूरज की दिशा में क़दम बढ़ा दिए। मैं उन्हें देखती रही; रोकने-टोकने, उनके उठे क़दम को बाधित करने की इच्छा नहीं हुई। मेरे क़दम मुड़ चले अपने घोंसले की ओर . . .
♦ ♦ ♦
क़लम डायरी के पन्नों पर दौड़ने लगी . . . ‘ठीक 22 बरस बाद संसद की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लगाने वाला शख़्स न तो आतंकवादी है, न किसी भी अपराध में संलग्न। ई-रिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण करने पर विवश यह युवक अन्य ई-रिक्शा वाले की तरह भी नहीं। उसकी जगी चेतना और गहरी संवेदनशीलता उसकी डायरी के पन्नों से झलकती है। व्यवस्था के ख़िलाफ़ पिछले आठ वर्षों से उसके मन में तूफ़ान उठ रहा था। इतनी सी उम्र में आख़िर उसने ऐसा क्या अनुभव किया कि . . .’ क़लम रुक गई।
“आप कब आए? आपने तो कहा था, जल्द आएँगे, मगर बड़ा लंबा समय लगा दिया।”
“अरररे! एक साथ प्रश्नों की बौछार! किसी चैनल से जुड़ गई हो क्या?”
“क्या बापू आप भी! आते ही मेरी खिंचाई शुरू कर दी।”
“अच्छा, अच्छा! अब गाल मत फुलाओ। जब तुम लिखने में डूबी थी, तभी घुसा,” बापू क्षण भर को चुप हुए फिर शब्दों की लाठी चालाई, “देख रहा हूँ तुम भी उन प्रश्नों के पीछे भाग रही हो जिसका सही उत्तर सिर्फ़ वही दे सकता है और तुम उससे मिल नहीं सकती। अभी तो . . .” बापू आगे की पंक्ति घोंट गए।
“बापू! यह प्रश्न तो अब तक प्रश्न ही है कि उसके और उसके साथी को भीतर जाने का पास मिला तभी तो वे दर्शक दीर्घा तक पहुँचे। फिर जो भी हुआ, उन दोनों ने छलाँग लगाई। संसद में खलबली मची जो स्वाभाविक थी, उनका पकड़ा जाना भी स्वाभाविक था। वे भागने के लिए प्रयासरत नहीं थे। अपने जूते की तली से साधारण सी गैस निकालकर फैलाना वैसा ही था जैसा, भगत सिंह का जानबूझकर कमज़ोर बम बनाना और ऐसी जगह धमाका करना जिससे किसी को हानि न पहुँचे। दुष्यंत की पंक्ति है न ‘सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं . . . मगर मीडिया इसे हंगामा खड़ा करने और नाम कमाने की थोथी कोशिश बता रही है। यह भी कि उन्हें भगत सिंह के आंदोलन या कामों की बहुत जानकारी नहीं।”
“हम्म! तुझे क्या लगता है?”
“मेरे कुछ लगने, न लगने से क्या होगा? मगर मुझे इस बात का पहले से शक था कि उनका यह विरोध प्रदर्शन प्रभाव नहीं छोड़ पाएगा . . .।”
“सूरत बदलनी चाहिए . . . बदल तो रही है सूरत, बदलती ही जा रही है—मगर दूसरे रूप में।”
बापू ने बीच में टोकते हुए कहा, फिर बोले, “पूरे देश में अजीब सी अफरा-तफ़री मची है। कहीं धर्म के नाम पर राजनीति, कहीं देश की सुरक्षा के नाम पर। दुःख तो इस बात का है कि . . .” बापू चुप हो गए। आवाज़ में पीड़ा गहराने लगी थी।
उन्हें देखकर यह समझना कठिन रहा कि वे किस बात को लेकर सबसे अधिक दुखी हैं। संसद के हमलावर युवाओं के लिए या देश छोड़कर सैंकड़ों संख्याओं में फ़्राँस और जर्मनी में हवाई जहाज़ में पकड़े गए भारतीय युवाओं के लिए जो अनैतिक तरीक़े से अमेरिका घुसने के लिए किसी एजेंट के आश्वासन के चंगुल में फँस अपना जीवन दाँव पर लगा चुके थे। देश में सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती बेरोज़गारी, सरकारी महकमे में ऊँचे स्तर के सिफ़ारिशों की पैठ, किसानों द्वारा आत्महत्या, प्रदर्शन के दौरान उनकी शहादत, उद्योगपतियों के लिए हज़ारों करोड़ की ऋण माफ़ी, ईमानदार पुलिस अफ़सर की शहादत और गुंडों के हाथ अधिकार, युवतियों की अस्मत पर ख़तरा—ऐसे कई कारण तो उन युवकों ने गिना दिए जिनसे इनकार करना कठिन है। ऐसे ही कारणों के समूह ने किसी को देश से भाग जाने पर तो किसी को विरोध जताने के लिए जान पर खेलकर हंगामा खड़ा करने पर विवश कर दिया। मैं बापू को पीड़ा से भीगते हुए, उसे भोगते हुए चुपचाप देखती रही। क्या कहूँ, क्या पूछूँ, सोच ही रही थी कि उन्होंने चुप्पी तोड़ी,
“मेरा विश्वास डिगा नहीं है। मैं आज भी मानता हूँ, सत्य और अहिंसा ही देश में–पूरे विश्व में शान्ति बहाल कर सकता है। मगर देखो, समय कैसा चक्रव्यूह रच रहा है! एक तरफ़ विश्व शान्ति सम्मेलन होता है। मेरे चश्मे से लेकर आदमक़द चित्र तक टाँग दिया जाता रहा है स्वार्थ भुनाने के लिए, मगर मैं कहाँ हूँ? मेरे कर्म का मूल उद्देश्य हर एक भारतीय का विकास था। व्यावहारिक शिक्षा के विकास, जाति-धर्म से ऊपर भारतीयता, एक मज़बूत भाषा की डोर से सबको प्रेम से जोड़ने की कोशिश, समाज से कुरीतियों को मिटाने के लिए भी शिक्षा का दीप हर घर में जलाना सभी स्वयंसेवकों का उद्देश्य बन चुका था। आज शिक्षण संस्थानों की नींव हिली हुई है। शिक्षा का मूल अर्थ बदल चुका है। मैंने ज़मींदारों की सामंतवादी नीति का विरोध किया, हिंसा का विरोध किया। आज सारी बातें विपरीत हैं। विपरीत कर्म भी मेरी तस्वीर की आड़ में . . . इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी!”
बापू मौन हुए, फिर मुस्कुराने लगे। बापू का इस तरह मुस्कुराना हैरान कर गया। मेरी नज़रें प्रश्नवाचक चिह्न की तरह उनके चेहरे पर टिक गईं।
“देखो! आज़ाद भारत ने देश को तीन बड़े धमाके दिए—तीन गाँधी के लिए। और मारने वाले भी अपने ही थे। इसी माटी में पले-बढ़े। मुझे गोली दागकर नाथूराम ने मेरा उपकार ही किया, वरना हो रही हिंसा में हर रोज़ मर रहा था। इंदिरा ने विश्व हिंदी सम्मलेन शुरू कर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को शामिल करवाने की तरफ़ पहला क़दम उठाया तो राजीव ने देश को कंप्यूटर के माध्यम से विश्व से जोड़ा।”
“बापू! क्या सचमुच आपको गोडसे ने मुक्ति दी? फिर तो कोई भी हत्या करके उसे सही क़रार देगा!”
“हत्यारा बनना सही नहीं। मगर अपने मामले में मैं किसी समुदाय को दोष भी नहीं दूँगा। क्योंकि वह ऐसे ही जोशीले युवाओं की टीम थी। अगर वह किसी परिपक्व मार्गदर्शक से पूछता तो उसे कभी अनुमति नहीं मिलती। कलकत्ता में शान्ति बहाल के लिए मेरे उपवास को समाप्त करवाने गुंडों का सरदार हथियारों और साथियों के साथ आत्मसमर्पण के लिए आया। मैं नहीं माना तो मुझे ज़िन्दा रखने की ख़ातिर मेरी शर्तों को सबने माना—शहीद साहब और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी कि भविष्य में उनके इलाक़े में कभी दंगा नहीं होगा। वे समझ चुके थे कि मेरी ज़िद अपने देश को सुखी बनाने के लिए, बिखराव को समेटने के लिए और नफ़रत को भुलाने के लिए थी, इसलिए इस बुड्ढे को मौत के मुँह में से खींच लाए। मगर दिल्ली! विधवा-सी उजाड़ रंगहीन दिल्ली! मैं तो पंजाब के लिए कलकत्ते से चला था, मगर यहाँ की बेवा सूरत ने, उसके भीतर के हाहाकार ने मुझे रोक लिया। मैं ख़ुद को हर पल चिता पर बैठा महसूस करने लगा था। इसलिए पंजाब के युवक मोहन के बम फेंके जाने के बाद भी बच जाने की कोई ख़ुशी मुझे नहीं हुई थी। उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से भी मैंने मना कर दिया था और किसी तरह की सुरक्षा लेने से भी। तुझे तो मालूम ही है जो मैंने लेडी माउंटबेटन से कहा था और फिर जो मनु से कहा था। मेरे राम ने मेरी आख़िरी इच्छा पूरी की। जिसका जीवन अनादि अनंत राम को समर्पित हो, उसे मृत्यु का भय कैसा!”
“बापू! आप कुछ दिन और बचे रहते तो शायद . . .”
“शायद मैं अपने राम से नाराज़ हो जाता कि वह मुझे वह सब देखने की सज़ा और कितने दिन देगा! प्यारेलाल, मनु, आभा सभी साक्षी हैं मेरी उस पीड़ा के जो हर पल मैं भोग रहा था। मैं जानता हूँ वादे के मुताबिक़ पाकिस्तान को रुपये दिलाने के लिए किया गया मेरा उपवास लोगों के दिल में भ्रम गहरा गया। वे यह भूल गए कि न तो देश का बँटवारे का निर्णय मेरे सामने लिया गया था और न ही मैंने नए खड़े हो रहे देश को कोई रक़म देने का वादा दिया था। मगर जिन लोगों ने वादा दिया, उन्हें वादे से मुकरने से रोकना मुझे मेरा धर्म लगा और स्वतंत्र भारत की नींव में झूठ आरोपित होने से बचाने की मैंने आख़िरी कोशिश की।”
बापू ने लंबी साँस भरी। मैं उनके लिए पानी लाने रसोई की तरफ़ बढ़ी। कानों में बापू के बुदबुदाते स्वर सुनाई पड़े।
“आज जिन-जिन चीज़ों के विकास की बात हो रही है, उसकी नींव रखने वाले तो उड़ा दिए गए, अब एक–एककर वे पन्ने भी। अच्छा हुआ कलाम साहब चले गए, वरना इस देश को अपनी देन के कारण उन्हें भी . . .”
♦ ♦ ♦
“बापू, पानी!”
“पानी-पानी ही हो रहा हूँ।” बापू मुस्कुराए। उनकी मुस्कान दर्द का पिटारा उठाए थी। पानी को प्रणाम कर गिलास मुँह से लगाया। घूँट भरी, फिर पूछ बैठे, “ये जो भी लोग संसद पर हमला करने के अपराध में पकड़े गए, ये सभी हिंदू ही हैं न?”
“हाँ बापू!”
“और वह शहीद पुलिस अफ़सर?”
“वह भी।”
“जनता घटनाओं को किस तरह देखती है? क्या वह तह तक जाना चाहती है? या बड़ी ख़बरें भी हज़ारों ख़बरों की क़ब्रों के बीच सुला दी जा रही हैं?”
“कुछ ऐसा ही है। मीडिया जिसे चाहे बड़ी ख़बर बना दे, जिसे चाहे तहख़ाने में दफ़ना दे। बाहर तो सिर्फ़ सुंदर सजा चेहरा दिखता है। मुझे लगता है, असली चेहरा दिखाने के लिए ही उन युवकों के दिमाग़ में ऐसा फ़ितूर जनमा होगा! हालाँकि देश की सुरक्षा को कमज़ोर दिखाना कोई बुद्धिमानी नहीं।”
“देख रहा हूँ हिंसा और अविवेक से मिली आज़ादी का परिणाम। देख रहा हूँ बड़ी संख्या में पत्रकारों की ईमानदारी गिरवी है। जब भी कोई चेतना को झकझोरने वाला कांड होता है, उसके तुरंत बाद उनके द्वारा एक ऐसी नई ख़बर की अफ़ीम चटा दी जाती है कि अगर भूले से कोई उस नशे से बच भी गया तो उसकी बात सुनने लायक़ कोई चैतन्य नहीं बचता। समझ पा रही हो, धीरे-धीरे हम किस युग में प्रवेश करते जा रहे हैं?”
“बापू! आप ही तो कहते हैं कि स्वार्थ का अफ़ीम वही चाटता है, जो चाटना चाहता है। इसलिए चटाने वाले से बड़ा दोषी चाटने वाला है। देख ही रहे हैं, स्वार्थपरता इतनी बढ़ गई है कि . . . ख़ैर छोड़िए इस बात को। मैं तो भेड़ों की बढ़ती संख्या और भेड़-खाल में छिपे भेड़ियों की बढ़ती संख्या से हैरान हूँ। सौहार्द आज दिखावे की चीज़ होती जा रही है। जीवन और समाज के आतंरिक गठन को प्रभावित करने वाले सरोकार आज आभासी दुनिया का हिस्सा अधिक है, व्यवहार में कम। अनुभूति रहित सहानुभूति का ख़ासा मेला लगा है यहाँ और क्या-क्या बताऊँ, आपसे क्या छिपा है! अँग्रेज़ गए, उनके बाद उनकी कूटनीति जहाँ फली-फूली, अपना रंग दिखा रही है। ऐसे में संसद पर हुआ यह हमला अपनी शैली के कारण सोचने पर विवश तो करता ही है।”
“संक्रांति काल है। प्रलय एक रूप में नहीं आता—एक दिशा से नहीं आता। विश्व भर में उथल-पुथल मची है। कहीं स्पष्ट दिखाई देती है, कहीं ढँकी-तुपी सी। चलता हूँ। इक्कीसवीं सदी का यह नया साल तुम्हें हर रूप में मज़बूत बनाए। सत्य की लीक से रेशे भर भी न डिगो, यही आशीर्वाद देता हूँ।”
पीठ पर हल्की धप के साथ बापू दरवाज़े से बाहर निकल गए। पूछ भी नहीं पाई, फिर कब आएँगे।
♦ ♦ ♦
चाय का कप थामे मैं बाहर बालकनी में धूप सेंकने आ खड़ी हुई। जनवरी का तीसरा सप्ताह और अब भी धूप की झीनी चादर ओढ़े आती शीतलहरी का समय-सा लगता है। ऋतुएँ भी तो ग्लोबल वार्मिंग से कितनी प्रभावित हुई हैं! चाय की एक-एक घूँट गले को राहत देती रही। कुरसी पर पीठ टिकाए जाने कितनी देर सुस्ताती रहती अगर दरवाज़े की घंटी न बजती! अब तो उठना ही पड़ा। दरवाज़ा खोलते ही सामने जो दिखा, आँखें और मुँह—दोनों बंद होना भूल गए।
“आsssप!”
“क्यों क्या सिर्फ़ बापू को यहाँ आने की इजाज़त है?”
“मैं . . . मैं बता नहीं सकती, कितनी ख़ुश हूँ!”
“भीतर जाने नहीं दोगी तो दरवाज़े पर ही लस्सी-वस्सी पूछ लो,” अब वे हँसे।
“आइए न सरदार!”
“तुम तो हमेशा ‘शहीद-ए-आज़म’ बुलाती हो। आज सरदार . . . वैसे भी सरदार कहने से इस माटी को सरदार पटेल याद आते हैं, मैं नहीं,” कमरे में घुसते-घुसते वे हँसे।
“अरे वाह! किताबों की दुनिया में रहती हो।”
“जी, इस दुनिया में आप भी मौज़ूद हैं।”
“तुमने तो सत्याग्रह और क्रांति, दोनों को साझा रखा है।”
“आप सत्याग्रही नहीं? आपने कब झूठ का साथ दिया?”
“वेश तो बदला ही। हाँ, यों तो मैं सुंदर सार्थक जीवन की नींव में सत्य और अहिंसा को हमेशा स्वीकार करता रहा हूँ। इसलिए जब मुझ पर दशहरे के लोकोत्सव में अपने ही निर्दोष भाई-बहन के ऊपर बम फेंकने का घिनौना इलज़ाम लगाया गया तो मैंने विरोध किया।”
“जानती हूँ आपके भीतर बहती संवेदना की नदी का प्रवाह कितना . . .”
“तुमने तो मेरी प्रशंसा शुरू कर दी,” बीच में टोकते हुए वे मुस्कुराए और आने का कारण बताया।
“गाँधी जी ने बुलाया है। वे कब तक आएँगे, कुछ पता है?”
“नहीं! वैसे वे कभी भी, कहीं से भी प्रकट हो जाते हैं। दीवार पर टँगी तस्वीर से भी . . .”
मैंने कमरे में घुसते हुए, हाथ से इशारा कर सामने दीवार पर टँगी तस्वीर दिखानी चाही तो हक्की-बक्की रह गई। बापू सचमुच तस्वीर से बाहर निकलकर खड़े थे।
“आओ सरदार! देखो, मैं समय का बड़ा पाबंद हूँ। तुम्हें जो समय दिया, हाज़िर हूँ। यों भी मेज़बान को पहले से होना ही चाहिए न!” बापू हँसते हुए बोले।
“आप दोनों को साथ देखकर कितना अच्छा लग रहा है!”
“भगत सिंह और उनके साथियों का रास्ता अलग था मगर हमारे उद्देश्य एक थे, अँग्रेज़ों से मुक्ति और समतामूलक समाज की स्थापना जहाँ न वर्ण भेद और न ही वर्ग भेद के कारण किसी भारतीय को अपमानित जीवन जीना पड़े। हर श्रम का सम्मान हो।”
“बिलकुल सही। मैंने क्रांति की राह फिरंगियों को भगाने के लिए अपनाई। समतामूलक समाज की नींव में हिंसा की चाह कभी नहीं की।”
“आपने जनता को जगाने के लिए फाँसी को गले लगाया मगर क्या अधिकांश जनता आपके कर्म के मर्म को समझ पाई? या थोथे को गह लिया और सार को उड़ा दिया?”
“तुम जो महसूस कर रही हो, उसे हम दोनों महसूस कर रहे हैं। मेरे कहे को तोड़-मरोड़कर अपने अनुरूप वाक्य गढ़ देने का जो खेल पिछले नब्बे वर्षों से चल रहा है और इस सदी में तो सारी हदें पार कर ली हैं, ऐसे में सिवाय गुनने के और कुछ नहीं कहना चाहता। तुम्हें याद है न स्वामी जी की बात–‘तरंग को गुज़र जाने दो . . . वक़्त तरंग को गुज़र जाने देने का है। सत्य अपने मौन में भी मुखर रहता है। सत्य आकाश है जिस पर न किसी रंग का और न ही रूप का प्रभाव टिक पाता है। बदली आकाश को ढकती नहीं, बस कुछ देर अपना अस्तित्व बनाए रखती है, इससे आकाश को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम तो हवाई यात्रा करती हो, देखा है न!”
“हम्म! मैं लखनऊ के उस युवक के बारे में सोच रही हूँ जो इस घटना का नायक बना। पुलिस को उसकी दो डायरियाँ मिलीं। इस घटना से पहले अंतिम बार डायरी लिखते हुए उसने लिखा था—‘घर से विदा लेने का समय आ चुका है’। देश की आतंरिक उथल-पुथल ने उस नवयुवक को इस क़दर तोड़ दिया कि वह अपने आज़ाद देश में संसद की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न बनाने की योजना बना बैठा—यह जानते हुए कि उसे और उसके साथियों को क्या कुछ नहीं झेलना पड़ेगा! यह सवाल साधारण तो नहीं?”
“सवाल तो साधारण नहीं, मगर पहले भी शातिर दिमाग़ ने युवा शक्ति का दुरुपयोग किया था, आज भी कर रहे हैं। एक-एक कर सारी परतें खुलेंगी, धैर्य रखो। आज एक भगत सिंह, एक राजगुरु फिर बिगुल बजा गया। मैं भी सच की तह तक जाना चाहता हूँ।”
“उससे मिलना भी चाहते हो?”
“आप नहीं मिलना चाहते?”
“सरदार! मैं तो सत्य में ही ज़िन्दा हूँ। और हर रोज़ मारा जा रहा हूँ। हर रोज़ मुझे फिर-फिर मारने की योजना बनती है। सत्य दबाया जाता है, मैं मरता हूँ। अहिंसा का गला घोंटा जाता है, मैं मरता हूँ। नफ़रत की आग सुलगाई जाती है और मनुष्य-मनुष्य में भेद किया जाता है—हर बार मैं मरता हूँ, मैं ही मरता हूँ मगर मेरे राम का चमत्कार तो देखो फ़ीनिक्स की तरह किसी न किसी के भीतर, टुकड़े-टुकड़े में ही सही, ज़िन्दा रखे है मुझे। . . . और अब तुम्हारे ज़िन्दा होने का भी प्रमाण मिल गया।”
“उस प्रमाण को झुठलाया जा रहा है या प्रमाण ही कच्चा है, इस पर अभी कोई राय नहीं दे सकता। जहाँ तक आपकी बात है, आपको अपने भीतर पूरी तरह बसा लेने की क़ुव्वत किसी में नहीं।”
“मैं भी सरदार भगत की बात से सहमत हूँ। औरों की क्यों, मैं अपनी ही बात करती हूँ। सत्यता, ईमानदारी, कर्मनिष्ठा की पूँजी तो पिता से पाई थी। अहिंसा, सारे संसार से प्रेम और विश्वशांति की ओर बुद्ध ले गए तो सनातन धर्म में निहित योग के तीनों रास्तों को स्वामी विवेकानंद। व्यवहार में सबके समुच्चय आप मिले, मगर उस एक रात में आपने जो साधा उसे कोई कहाँ साध पाया! मैं तो तिनका भर भी नहीं। आज भी अच्छा भोजन, वस्त्र और आवाज़ाही के संसाधनों का उपभोग कर रही हूँ। शरीर को तपाना नहीं चाहती। स्वार्थ सिद्ध नहीं करती, मगर उन अपनों से मिले उपहारों/सुविधाओं से इनकार भी तो नहीं करती, जिन्हें जीवन से, कहूँ तो साँसों से जुड़ा पाती हूँ।”
“क्यों नहीं करती?”
“उनके स्नेह को पूरी तरह ठुकराने की अब तक हिम्मत नहीं। शायद इसलिए!”
“मोह के बंधन में हो।”
“जी! एक लघु सीमा के भीतर! अब भी! अज़ीब-सी छटपटाहट है। सारे बंधनों से मुक्त होकर ही मन चैन पाएगा।”
“कर्मयोगी के लिए संसार ही तपोवन है। निःस्वार्थ कर्म किए जाओ। क्यों सरदार!” बापू ने सरदार का ध्यान बातचीत की ओर खींचा। वे कुछ सोचते हुए पूछ बैठे, “उन्होंने भी तो ऐसा ही समझा होगा!”
“किसने?”
“मेरे इस नए अनुगामी ने।”
“सम्भव है।”
बापू सामने की दीवार पर टँगी उस तस्वीर के भीतर के ख़ालीपन को देर तक निहारते रहे।
“आपको क्या लगता है बापू, विपक्षी दलों ने जो सवाल उठाए, वे अनैतिक थे?” मुझसे न रहा गया तो आख़िरकार मैंने टोका।
“तुम्हें क्या लगता है?”
“कुछ सवाल तो हम सभी के मन में उठे थे, जो उन्होंने उठाए क्योंकि पिछले कुछ सालों से जो कुछ घटित हो रहा है, उसे देखते हुए ये सवाल बड़े सामान्य हैं—हर एक के मन में उठने वाले।”
“पिछले कई दशकों से रह-रहकर जो कुछ घटित होता रहा है, जो अब भी घटित हो रहा है, वह मानवता के नाश का सूचक है। मैं ख़ुद को तलाश रहा हूँ, कहाँ हूँ मैं? मेरी तस्वीर के साथ जितने भी आडंबर बिछाए गए हैं, मैं कहीं नहीं हूँ। मैं नोट, फ़्रेम, दीवारों की जगह जीवन में होता तो जीवन-मूल्यों का इतना क्षरण न होता। अच्छा ही हुआ जो मैं जीवन से मुक्त कर दिया गया और मेरे राम ने उसी क्षण पूरी तरह अपना लिया।”
“तभी अंतिम पुकार ‘हे राम!’ के बाद आपके होंठों पर मुस्कान उभर आई थी।”
“हाँ, मगर मेरा राम रोम-रोम में बसने वाला सूक्ष्मतम और उतना ही विराट् है जिसे तुम शिव कहती हो—अनादि अनंत . . .”
“मेरा ध्यान बार–बार उस युवक की तरफ़ खिंचता है। जेल में उसके चेहरे पर भी वही बेफ़िक्री दिखती है जो मेरे चेहरे पर थी—मौत की आँखों में आँखें डालकर देखने का साहस। ऐसा लगता है, उसने मुझे भीतर गहरे तक इस क़द्र बसा लिया है कि उसके भीतर मेरा साहस, धैर्य और उद्देश्य पूरा करने का संतोष घर कर चुका है।”
“आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि ख़ुद को इस योजना का प्रमुख बताने वाला शख़्स इस घटना के बाद आराम से राजस्थान के होटल में ठहरता है। उन साथियों के मोबाइल चकनाचूर करके सबूत मिटाता है और फिर दिल्ली आकर छिपता नहीं, पुलिस को आत्मसमर्पण करता है। उसे भी अपने अंत का कोई ख़ौफ़ नहीं हुआ!”
“ख़ौफ़ होता तो ख़ुद चलकर पुलिस के पास क्यों जाता?”
“सवाल यह भी है कि देश के युवाओं के बीच क्रांति की आग क्यों धधक रही है? दूसरा यह भी कि महँगाई, बेरोज़गारी सहित कई कारणों से उखड़े युवाओं की ऊर्जा को कोई अपने स्वार्थ के लिए उपयोग तो नहीं कर रहा है? मैंने सुना है, कुछ प्रशिक्षण व्यक्ति को आत्ममोह से मुक्त करने के लिए ही होते हैं। जैसे कि सेना का प्रशिक्षण। आतंकवादियों का भी तो कुछ ऐसा ही होता होगा और अब यह क्रांति की शक्ल में नई लहर!”
“तुम्हें उन लोगों के बारे में कितना मालूम है?”
“उतना ही, जितना सच बाहर आ पाया। आपके अनुगामी की डायरी बहुत कुछ बोलती है। पिछले आठ सालों से अपनी टूटन को उसने रेखांकित किया है। जब किसी होनहार के सपने टूटते हैं, उम्मीदें बिखरती हैं तो किशोर और युवा अवस्था ज़रा-सी लौ पाकर विरोध के लिए धधक उठती है। विरोध का स्वर दृढ़ करने के लिए कुछ कर गुज़रना और कर गुज़रने के बाद के हश्र के लिए ख़ुद को तैयार रखना एक दिन में तो नहीं हुआ होगा न!”
“हाँ, उसकी डायरी के कुछ पन्नों से तो ऐसा ही लगता है। कुछ पंक्तियाँ तुम्हें याद हैं?”
“हाँ सरदार! मैंने नोट किया है, सुनाती हूँ—‘काश, मैं अपनी स्थिति अपने माता-पिता को समझा सकता! ऐसा नहीं है कि संघर्ष की राह चुनना आसान रहा’ . . . ‘हर पल उम्मीद लगाई है’; . . . ‘पाँच साल मैंने प्रतीक्षा की है कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं अपने कर्त्तव्य की ओर बढूँगा’; . . . ‘दुनिया में ताक़तवर व्यक्ति वह नहीं जो छीनना जानता है, ताक़तवर व्यक्ति वह है जो सुख त्यागने की क्षमता रखता है।’
“उसकी भाषा और भाव में भरी संवेदनशीलता इतना तो जताती ही है कि वह आम ई-रिक्शाचालक जैसा बुद्धि-विचार का नहीं था जिसके लिए किसी तरह दो जून रोटी कमाना ही ज़िन्दगी का मक़सद हो। उसकी डायरी में वह ऊहापोह भी दर्ज़ है–-‘एक तरफ़ डर है, दूसरी तरफ़ कुछ कर गुज़रने की आग दहक रही है’।
“जाने क्यों बार-बार ऐसा लग रहा है, किसी शातिर दिमाग़ ने इन युवाओं को मोहरा बनाया है। हालाँकि अब तक हुए ख़ुलासे से संतोष नहीं हो रहा है।”
“तुम भूल रही हो, मोबाइल के भीतर एक बड़ी दुनिया समाई है और वही उनके आपसी संपर्क का साधन था। ख़ुलासों के आधार पर एक क्षण मान भी लें कि नाम-शोहरत और पैसों की ख़ातिर उन्होंने ऐसा किया होगा, लेकिन डायरी से ऐसा नहीं लगता। अलग-अलग-उम्र, जगह और दिमाग़ वालों को एक साथ एक बड़ी घटना का दृश्य उपस्थित करने के लिए इकट्ठा करने वाला कोई बहुत ही तेज़ तर्रार आदमी होगा! ऐसा सम्भव है, मगर कई बार ख़ुद-ब-ख़ुद कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं। हम क्रांतिकारी साथी भी तो अलग-अलग जगहों से थे।”
“सरदार! मीडिया जो कहे, क्या तुमने एक बात नोटिस की?”
“क्या?”
“सारे युवा एक फ़ितरत के नहीं . . . एक युवा के टूटे मन ने यह क़दम उठाया है। सेना में भरती होने, देश की सेवा करने की चाह पूरी न होने, सच्चाई और ईमानदारी से कुछ बेहतर कर पाने में असफलता और अंत में ई-रिक्शाचालक बनकर परिवार को आर्थिक सहयोग देने का क्रम उसके मन की बेचैनी को बढ़ाता ही रहा होगा! उम्र का यह पड़ाव बहुत लचीला होता है। अच्छी किताबें जिसकी दोस्त होती हैं, वह किसी का बुरा नहीं कर सकता। यह भी सच है, जैसी किताबें पढ़ेंगे, सोच उस दिशा में ही बढ़ेगी। उसने तुम्हारे नारे ‘इंकलाब ज़िन्दाबाद’ को सूत्र वाक्य बनाया, मगर जो किताबें मिलीं, एक भी तुमसे जुड़ी नहीं थी तो यह बात सच भी हो सकती है कि वह तुम्हारे कार्यों या विचारों को बहुत अधिक नहीं जानता, उतना ही जानता है जितनी बातें हवा में तैर रही हैं।”
“हो सकता है। आपने भी तो बिना काँग्रेस के क्रिया-कलाप या उनकी रणनीति जाने ही दूर अफ़्रीका में अपने संगठन का नाम ‘नेटाल काँग्रेस’ रख लिया था और उसके सारे नियम ख़ुद बनाए थे, भारतीय काँग्रेस से प्रेरित होकर नहीं।”
“हाँ, सच है। शायद तभी बेहतर कर भी पाया। शायद तभी जातीय भेदभाव की दीवार खड़ी न हो पाई और समतामूलक स्वायत्त समाज की स्थापना का मॉडल ‘फ़ीनिक्स और तोलस्तॉय आश्रम के रूप में खड़ा कर पाया। भारत में भी सेवाग्राम मेरे सपने के भारतीय समाज का मॉडल ही तो था। हर हाथ को काम, हर प्रतिभा को निखारने का अवसर और अमीरी–ग़रीबी की खाई पाट देने, मिलजुलकर रहने योग्य समाज!”
“बापू! सरदार का वह अनुगामी सिर्फ़ बेरोज़गारी या मनचाही नौकरी न मिलने के कारण अवसाद में नहीं था। वह समाज में बढ़ते आतंरिक अनैतिक सामंतवादी बरतावों, ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहता था और आम जन की चुप्पी को झकझोरना चाहता था। आज से आठ साल पहले उसने लिखा था—
‘उठा सके यह आवाज़ कोई, दुश्मन ताक में बैठे हैं।
लुट रही इज़्ज़त बेटियों की सरेआम यहाँ,
फिर हम सब्र रखकर हाथ में हाथ धरे बैठे हैं। ‘
“ये पंक्तियाँ और इन जैसी अन्य पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं कि एक संवेदनशील, समझदार, मेहनती युवा क्यों ऐसा कर गया!”
“इसका मतलब तुमने बहुत कुछ नहीं पढ़ा। यह भी नहीं पढ़ा—‘मैं अपनी ज़िन्दगी वतन के नाम कर चुका हूँ। अब बढ़ाया क़दम आज़ादी की ओर मैंने। अब आ गई बारी वतन पे मरने की। मैं पहले ही बहुत आराम कर चुका हूँ’।
“अगले दिन इन भावों को उसने क्रम से लिखा। आज़ाद भारत में आज़ादी की चाह रखने वाले उस युवक से किसी ने पूछा कि किस ग़ुलामी से उसे आज़ादी चाहिए? मुझे स्पष्ट है, मगर क्या नागरिकों को उसके कहे का अर्थ स्पष्ट है? क्या इस देश के सुशिक्षित ज़िम्मेदार, नागरिक यह सोच पा रहे हैं कि युवा ख़ुद को किस अँधेरे से घिरा पा रहे हैं?”
“बापू! आर्थिक तंगी युवाओं के सपनों को बीच में ही तोड़ दे रही है। घर के हालात उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते। युवा क्या, आज वे प्रौढ़ जो बमुश्किल गुज़ारा कर पा रहे हैं, उनके मन में कई बार आत्महत्या का ख़्याल घर करने लगा है। जो युवा भविष्य में ऋण चुकाने की हिम्मत जुटा पाते हैं उनमें से आधे को ऋण ही मुहैया नहीं हो पाता। छोटे-छोटे ऋण के बदले फ़ज़ीहत और कुर्की-जब्ती, दूसरी तरफ़ कई सौ करोड़ की ऋण माफ़ी। बैंक की आर्थिक स्थिरता डगमगाती जाती है। कई तरह की चोटों से गुज़र रहे हैं, जो सच्चाई और ईमानदारी के बलबूते आगे बढ़ना चाहते हैं। एजेंट के चंगुल में फँसकर, बिना सही वीसा के, कमाई के लिए अमेरिका जाने की चाह रखनेवाले युवाओं का अवसाद क्या उन्हें अपने देश से जोड़े रख पाएगा? या वे भी जो मेधावी होने के बावजूद अपने सपने को सच करने के लिए हर सम्भव प्रयास करके हार गए, समय गँवाया, उम्मीदें बनाए रखीं फिर अपने ही सामने कई एक को पैरवी और रिश्वत के बल पर आगे निकलते और अपना माखौल उड़ाते देखकर, उम्मीद के एक-एककर सारे धागे टूटने पर सही प्रक्रिया पूरी कर, विदेश रवाना हुए। आप समझ रहे हैं, वे क्या भाव सँजोकर गए या जा रहे हैं? क्या उन्हें दोष देना उचित होगा?”
“मैं इनकार नहीं कर सकता! हमने जिसे पराधीन देश का दर्द कहा, वह दरअसल सामंतवाद की देन है। मैंने पहले भी कहा था, वही कहता रहूँगा।”
“शहीद-ए-आज़म! आज आप अपने ही नक़्शे पर चलनेवाले इन दोनों युवाओं के लिए क्या कहेंगे? जानते हैं, इन दोनों ने पहले शरीर पर अग्निरोधक जेल लगाकर आत्मदाह की योजना बनाई थी और साथ ही पर्चे बाँटने की भी।”
“पर्चे बाँटने की योजना तो फिर सरदार की योजना से ही प्रेरित लगती है, मगर आत्मदाह! ओह!” बापू सिहर उठे मानो दृश्य साकार हो उठा हो।
“नार्को एनालिसिस और ब्रेन मैपिंग टेस्ट की रिपोर्ट जो सुनाई जा रही है, वही मानना होगा। जब आसपास की आँधी बेसब्र कर देती है तो कुछ भी कर गुज़रने, सोई जनता को झकझोर देने के सिवा कोई विचार नहीं पनपता। वे भी तो मणिपुर की घटना सहित कई घटनाओं से से बौखलाए थे। ख़ुद को क्रांतिकारी बनाने का मन बना चुके थे। पुलिस को हैरानी इस बात पर हो रही है कि वे मेरे कामों के बारे में बहुत नहीं जानते। मगर मुझे कोई हैरानी नहीं।”
“सरदार, तुम्हें इस ख़बर पर पक्का विश्वास है कि उन्हें तुम्हारे कामों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी?”
“गाँधी जी! यह अपने आप में एक सवाल है क्योंकि संसद के भीतर जिस तरह घटना घटी, जिस तरह उन्होंने पर्चे बाँटने की योजना बनाई, वह हमारे क्रांतिकारी समूह से प्रेरित लगती है। इसे सिरे से नकार देना! . . . . . . जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि जो पकड़े गए, वे अशिक्षित नहीं हैं, न ही समझदारी में कमी है। कोई अधिक संवेदनशील है, कोई अधिक जोशीला। हम सब भी एक जैसे कहाँ थे! फिर भी जो हमारे नेता निर्णय लेते थे, हमें ठीक लगता था, हम कर गुज़रते थे। इस घटना के पीछे भी समाज में सकारात्मक बदलाव की इच्छा से, अपने ही लोगों को सचेत करने के लिए किसी एक ने क्रांति का जो स्वरूप तैयार किया, उससे बाक़ी युवा प्रेरित हुए हों, यह सम्भव तो है ही।”
“जो भी हो, यह प्रक्रिया सही नहीं है। मैं कल भी शांतिपूर्वक बातचीत का समर्थक था, आज भी हूँ। दुःख होता है जब देश की बुनियादी ज़रूरतों को लगातार नकारा जाता है; जब जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग होता है, जब स्वार्थ के लिए तरह-तरह के मुद्दे बनाकर सब आपस में लड़ने लगते हैं। पचहत्तर बरस हो गए। कुछ भी तो नहीं बदला। जिसे वे बदलाव और विकास कह रहे हैं, क्या सचमुच विकास है? नैतिक विकास! मानवीय संवेदनाओं का विकास! सरदार! तुम्हीं बताओ, भारत माँ की दुखती आत्मा को कब राहत मिलेगी? हे राम! मैं कब मुक्ति पाऊँगा? कभी पाऊँगा भी या नहीं? जब तक भारत माँ त्रासदी भोगती रहेगी, मैं मरकर भी चैन नहीं पा सकता! नहीं पा सकता! . . .”
“कोई भी शहीद नहीं पा सकता। ऐसा भारत मेरा सपना नहीं था। हमने इसलिए फाँसी के फँदे को हँसते हुए गले नहीं लगाया था। मैंने ख़ुद को नास्तिक मानता रहा। आप सत्य को ईश्वर कहते हैं और मैं सत्य का पुजारी था। . . . और हूँ। आडंबर और ईश्वर के नाम पर आत्मशक्ति के हनन का मैंने विरोध किया था। आज भी आत्मशक्ति को डिगानेवाली सारी बातों का विरोध करूँगा।”
“आत्मशक्ति का ही तो हनन होता आ रहा है। वर्षों से उम्मीद का एक-एक धागा टूटता देख रहा हूँ। मुट्ठी भर क्यों, हर एक में सत्य का वही प्रकाश है, वही दिव्य शक्ति है। हर भारतीय अपनी आत्मशक्ति को क्यों नहीं टटोल रहा? क्यों ज़रा-ज़रा-सी बात पर समझौते के लिए तैयार हो जाता है?”
“बापूsss . . . . . .” मैं लगभग चीख पड़ी। “किससे जवाब की उम्मीद कर रहे हैं? जब जीते जी एक-एक क्षण देश को देकर भी हर एक को सत्य और अहिंसा के पथ पर नहीं चला सके तो अब झूठी उम्मीद क्यों पाले हैं? मुट्ठी भर लोग ही बदलाव लाते रहे हैं, लाते रहेंगे।”
मैंने आकुलता को लगाम लगाई तो आवाज़ सामान्य हुई। फिर कहा, “बापू! झारखंड में टाना भगत समुदाय से तो आप मिल ही आए। आपके ही रंग में रँगे हैं सब। तमिलनाडु के एक हिस्से में अब भी आपके सपने ज़िन्दा हैं। अरविंदो सोसाइटी की मीरा अल्फासा ने 28 जनवरी, 1968 में औरोविल शहर को बसाया, वह आपके आश्रमों की याद दिलाता है, विशेषकर फ़ीनिक्स आश्रम की। एक अलग ही दुनिया! प्रेम और सौहार्द की दुनिया! न धर्म-जाति का भेद न कोई अपराध, न लोभ–लालच और भौतिक वस्तुओं के संग्रह की ज़रूरत! सबकी कमाई एक समान और अपनी-अपनी योग्यता के अनुरूप सबके पास काम। पूर्ण आध्यात्मिक वातावरण! आपके अनुगामी न बसा सके तो क्या, कहीं यह लौ जली तो . . . और अब वहाँ रहते लोगों को समतामूलक समाज का हिस्सा बनकर जो आनंद मिलता है, आनंद का वह उजाला ज़रूर फैलेगा।”
“तुम गई हो?”
“जाऊँगी।”
“ज़रूर जाना। हो सके तो कुछ समय वहीं टिक जाना। वहीं मिलने आऊँगा।” बापू बोले, फिर सरदार भगत की तरफ़ देखते हुए बोले, “इसे भी लेकर आऊँगा।”
बापू और सरदार कमरे से निकलते हुए शांत दिख रहे हैं और उन्हें शांत देखकर मैं सुकूनमंद!
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- बापू और मैं – 002 : पुण्यतिथि
- बापू और मैं – 003 : उन्माद
- बापू और मैं–004: अमृतकाल
- बापू और मैं–005: जागरण संदेश
- बापू और मैं–006: बदलते चेहरे
- बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .
- बापू और मैं–008: मकड़जाल
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- साँझ की रेख
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स्मृति लेख
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धर्मपाल सिंह 2024/01/30 10:15 AM
बहुत ही प्रासंगिक, व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह लेख अद्भुत है। भाषा भी शुद्ध है। लेखिका ने आज के परिदृश्य की परत-दर-परत पड़ताल की है। मुझे ज्ञात हुआ है कि फेसबुक ने इसे अपने पेज पर जगह नहीं दी है। यह बात इसका प्रमाण है कि मीडिया ने अपने को सत्ता के हाथ गिरवी रख दिया है। साहसिक अभिव्यक्ति के लिए लेखिका को अशेष बधाइयाँ!