अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हिमाचल से नालदेहरा पुकारता

यात्रा! जीवन का महत्वपूर्ण अंग! फिर चाहे वह मन:प्रदेश की हो या भौगोलिक प्रदेश की, यात्रा अनवरत चलती रहती है…. कभी-कभी तो दोनों एक साथ ही। और कभी-कभी तो मन:प्रदेश भी दो हिस्सों में बॅंट जाता है… हृदय और मस्तिष्क। हृदय भौगोलिक दृश्य देखकर कभी रोमांचित तो कभी द्रवित हो उठता है। और मस्तिष्क उस स्थिति विशेष का जायज़ा लेकर निर्णय लेता है कि उस परिवेश में संतोषजनक स्थिति की अनुभूति जा सकती है या सुधार की आवश्यकता है और इसके लिए प्रयत्न किए जाने चाहिएँ, फिर उस प्रयत्न की रूपरेखा क्या हो? आदि-आदि।

शिमला यात्रा मेरे लिए इसलिए रोमांचक थी क्योंकि अरसे बाद पहाड़ पर जा रही थी और हिमाचल की गोद में जाने का यह पहला अवसर था। साहित्य अकादेमी दिल्ली एवं भाषा -संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश के संयुक्त तत्वावधान में समकालीन कविता : परिसंवाद एवं काव्य गोष्ठी का (21-22 अगस्त 2015) द्विदिवसीय आयोजन किया गया था, जिसमें काव्य पाठ के लिए शरीक होना स्वयं में गौरव की बात थी।

यात्रा की रूपरेखा निश्चित होकर भी अनिश्चित होती है। मूर्त रूप में गंतव्य निश्चित होता है किंतु संग-संग हो रही मन:प्रदेश की यात्रा पर कई विषय-वस्तुएँ तात्कालिक प्रभाव छोड़ती हैं। जैसे कि सफ़र की शुरूआत का प्रारूप।

19 अगस्त की शाम। यात्रा आरंभ करने की तैयारी से पूर्व एक साथ कई कामों को अंजाम देने की भूमिका में व्यस्त और व्यग्र रही कि मेरी अनुपस्थिति में बच्चे परेशान ना हों। ऊहापोह तो नहीं, पर मन में रोमांच था कि पहली बार मेरे सहयात्री बने, साहित्य अकादेमी के उपसचिव, ब्रजेन्द्र त्रिपाठी क्या मेरी वैचारिक यात्रा में भी शामिल हो सकेंगे?

शाम के 7.45 बजे यात्रा का पहला कदम। रेलवे स्टेशन में उच्च श्रेणी के यात्री प्रतीक्षालय में यात्रियों के संग बैठी, घड़ी की टिक-टिक के साथ भागते मन को सँभालती मैं हावड़ा-कालका मेल का इंतज़ार करती रही। नियत समय पर गाड़ी यात्री-सेवा में हाज़िर हो गई। एसी 2 का शांत शीतल वातावरण! हमारे कंपार्टमेंट में हावड़ा से यात्रा करता एक बंगाली लड़का, जो किसी से फोन पर बातें करते और गाना सुनते हुए पूरी रात गुज़ारता है। इस कंपार्टमेट में हावड़ा से कालका तक का लंबा सफ़र शायद उसके अकेलेपन को और घना करता जा रहा हो, मैंने सोचा। चौथी बर्थ पूरे रास्ते खाली रही। आमने-सामने होने के बावजूद हमारे बीच कोई वार्ता नहीं हुई। मैं नींद लाने की जितनी कोशिश करती, नींद उतनी ही दूर खड़ी मुँह चिढ़ाती, अंत में मैंने उसे बुलाना छोड़ दिया। मेरी यात्रा और नींद का हमेशा 36 का आँकड़ा रहा है। सोचा, पुस्तक निकालूँ, पर मन ने इनकार किया, इयर-फ़ोन लगा गीत सुनना चाहा, बात नहीं बनी। बहरहाल, पौ फटने का इंतज़ार करने लगी, ताकि बाहर का दृश्य निहार सकूँ, ऐन मौके पर नींद ईर्ष्या-सी दबे पाँव (भोर के चार बजे या उसके बाद ही) आई और अपने आग़ोश में भरने लगी, ख़ुमारी-सी चढ़ी, पर एहसास होता रहा कि सामने की बर्थ का लड़का अपना सामान समेट रहा है, मगर टोका या पूछा नहीं, तैयार हो चुकने के बाद उसने आहिस्ते से झुककर कहा "कालका आ गया" और मुस्कुराता हुआ सामान के साथ दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया। आनन -फानन हमने अपने सामान लिए और गाड़ी से उतर शिवालिक एक्सप्रेस की ओर बढ़े। ब्रजेन्द्रजी ने बताया कि
"यह टॉय ट्रेन कालका के आ जाने पर ही खुलती है। और तुम इस ट्रेन से प्रकृति-दर्शन का लुत्फ़ उठा सकोगी।"

रात भर की नीरस यात्रा के बाद शुरू हुआ मेरा रोमांचक सफ़र। फिर तो ट्रेन के विशाल झरोखे से झाँकता मेरा मन बच्चा हो चला। मैं भावविभोर-सी बाहर पसरी प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को निहारती, छुक-छुक करती रेलगाड़ी के साथ आगे बढ़ने लगी। पेड़-पौधे, बड़े-बड़े पहाड़! पहाड़ काटकर बनाई गई सुरंगें! सुरंगों से बार-बार गुज़रती, आँख-मिचौली खेलती हमारी टॉय ट्रेन! चीर के वृक्षों की क़तार! एक ओर गहरी खाई, दूसरी ओर बादलों से अठखेलियाँ करते धुआँते पहाड़! बीच-बीच में खिलौने जैसे घर। कालका के बाद पहला स्टेशन बड़ोग आया। यह जानकर हैरत में पड़ गई कि यह ट्रेन लगभग 109 सुरंगों से गुज़रती है। हरएक किलोमीटर या उससे भी कम दूरी पर एक छोटी या बड़ी सुरंग है और पहाड़ काटकर इस तरह सुरंग बनाने का सुझाव हिमाचल के ही एक ग्रामीण हरखूराम ने दिया, जिसे इस पहाड़ के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी और जिसने पहाड़ को इसी अनुपात और इसी कोण में काटने और रास्ता बनाने हेतु अंग्रेज़ इंजीनियर का मार्गदर्शन किया था। सचमुच! शिमला-यात्रा पर जाते हुए उस हिमाचलवासी के प्रति मस्तक स्वयं नत हो गया। एक अनूठा उदाहरण! विशेषकर उन लोगों के लिए जो पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर विद्वता मापते हैं।

सोलन से आगे शिशु-से चपल, मस्ती में घूमते बादल। अहा! पहाड़ों की तलहटी में बसी बस्तियों के बीच शुभ्र श्वेत सघन बादल! उनमें से रुई के फाहे की तरह उड़ते-विचरते बादल! मानो गरम दूध के कटोरे में से भाप निकल रही हो। स्पष्ट! सुंदर! सौंदर्य-बोध का अनुपम संचय!!

बाह्य परिदृश्य जितना मनमोहक अंतर्परिदृश्य एकबारगी मस्तिष्क को झकझोरता हुआ। हमारी बोगी का परिचारक ईमानदारी से अपनी ड्यूटी में तल्लीन घड़ी की सूई के साथ ताल से ताल मिलाता हुआ, हमें अपनी बेहतर सेवाएँ देता हुआ! चुपचाप! बिना किसी अकुलाहट/ उकताहट के, मानो व्यक्ति नहीं कोई रोबोट हो! झरोखे के बाहर का दृश्य उसे आलोड़ित नहीं करता। ट्रेन के उस डब्बे के बाहर पसरी प्रकृति उसे आकर्षित नहीं करती! उसके अनुपम सौदर्य को निहारने की उसे फ़ुर्सत भी नहीं, ना ही कोई आकांक्षा! परिवार से दूर, पेट की आग बुझाने और पूरे कुनबे को पालने का दायित्व-बोध उसे अपनी ड्यूटी से परे इस सौंदर्य का भान होने भी नहीं देता। ना विचारक की दृष्टि है ना महसूसने का अवकाश!

सुरंगें ही सुरंगें! पहाड़ ही पहाड़!! पहाड़ों के बीच किसी शिला के हृदय से फूटती क्षीण जलधार! सीढ़ियाँ उतरते कलकल छलछल निर्मल चपल जल। हरीतिमा… चारों ओर एक अजीब-सी गंध /धुएँ भरी, पर बहुत सारा ऑक्सीज़न! जीवनदायी! विचारों के कोहरे से निकलकर मैं खुलकर साँस लेती हूँ। ख़ुद में ऑक्सीज़न भरती हूँ; दिलो-दिमाग को ताज़ा करती हूँ और महानगर दिल्ली की विषैली हवा को जीवन की विषाक्तता के साथ पीछे छोड़ देती हूँ ... टॉय ट्रेन पर बैठी बढ़ती जाती, बस बढ़ती जाती हूँ।

फुहारें शुरू हो गई हैं। मैं खिड़की खोल उन ठंडी फुहारों को अपने चेहरे पर महसूस कर रही हूँ। रोम-रोम स्पंदित हो रहा है। पेड़ों की झुरमुट और सुरंगों के बीच से गुजरती ट्रेन जाने-अनजाने मुझे कितनी ही सीख देती जा रही है! मेरे अंदर रोमांच भरा है। वर्षों बाद मुझे मिला है …पहाड़ से मिलने, बोलने-बतियाने और उसके अस्फुट मौन में बजते संगीत को सुनने का अवसर। मैं कभी अपना चेहरा तो कभी हाथ खिड़की से बाहर निकाल बूँदों और भीगी सिहरी पत्तियों को छूती हूँ। एक तरफ़ बरसती, मेरे चेहरे और हाथों पर लरजती थिरकती बूँदें, दूसरी ओर ज़रा दूर, घाटी में मकानों पर बिछे श्वेत बादल,जैसे मकानों ने हरी साड़ी के ऊपर सफ़ेद मखमली चादर ओढ़ ली हो...आँखों को शीतल करती सुकोमल मखमली।

शोघी, स्काउट हॉल्ट और अब समर हिल स्टेशन। बदलियों का ट्रेन की खिड़की से अंदर आना और नन्ही बूँदों को हमारे चेहरे पर छोड़ जाना, आर्द्र हवा के शीतल थपेड़े, सिहरता बदन, गुदगुदाते मन-प्राण! चीड़ के पेड़ों के साथ-साथ अब देवदार भी हमारे संगी हो चले। मैं अब भी खिड़की से बाहर निहार रही हूँ। इतनी ऊँचाई पर पहुँच चुकी हूँ कि खिड़की से गहरी दृष्टि डालने पर भी नीचे पेड़ों से ढँकी धरती का मूल नहीं दिखता। पेड़ों से लदे पहाड़ और सुरंग! धुँधलाता बादल और आर्द्र हवा...यही है हिमाचल/यही है प्रकृति का स्वर्गिक रूप...अपने में कई भेद समेटे। बहुत कुछ धुँध में है फिर भी जीवन है, गति है। सीटी बजाती, धुआँ उड़ाती ट्रेन और यात्रियों सहित मैं!

शिमला! हमारा गंतव्य। भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश की ओर से गाड़ी हमें होटल तक छोड़ने आई है। मैं इस पावन स्थल को नमन करती हूँ, गाड़ी में बैठ आसपास के दृश्यों को कैमरे में क़ैद किए चल रही हूँ। होटल कॉसमॉस का चतुर्थ तल, कमरा न.32 मेरे लिए। कमरे का परदा हटाते ही नेत्र सामने टँग जाते हैं… अद्भुत दृश्य! पहाड़ियों की क़तार! उसकी कटि में बिछी शुभ्र श्वेत बदलियाँ जो सूरज की चमक से दमक रही हैं, उनके ऊपर तैरते श्यामल बादल! इस होटल के सामने क्लार्क और बायीं ओर शृंगार होटल है। यह सड़क दाहिनी ओर मॉल रोड को जोड़ती है, जहाँ चर्च, स्कैंडल पॉइंट, पुस्तकालय, अंग्रेज़ के ज़माने की दुकानें, डाकघर, बैंक आदि की मज़बूत बिल्डिंगें, व गेयटी थियेटर है जिसके नीचे हिमाचली ग्रामीणों के लिए बाज़ार लगता था,जिसे आज भी लोअर मॉल कहा जाता है। ये ख़ूबसूरत पहाड़ इन विडंबनाओं के भी साक्ष्य है कि जिस शिमला को बसाने में हिमाचलवासी ने तरक़ीब सुझाई, जो पहाड़ उनका अपना था, उसके ही एक हिस्से को फिरंगियों ने उनके और कुत्तों के लिए प्रतिबंधित कर रखा था, आज भी लोअर मॉल से गुज़रती सड़क गंदगी से उबरने के लिए नगर-प्रबन्धक का मुँह ताक रही है। मॉल रोड पर नागरिकों ने वाहन प्रतिबंधित कर आम लोगों के हित में काम किया है, बुज़ुर्गों और बच्चों के लिए- क्रेचर ट्रॉली है। स्कैंडल पॉइंट के पास इक्के-दुक्के पुलिसवाले दिखे। एक गाड़ी, बिना अपनी उपस्थिति ज़ाहिर करते हुए। फिर भी कहीं कोई उन्माद, हंगामा या भ्रष्ट आचरण की झलक नहीं मिलती, किशोरी हो या नवयौवना, प्रौढ़ा हो या वृदधा ..किसी के चेहरे पर कोई भय या आतंक नहीं, पुरुष दृष्टि से ख़ुद को बचाने की कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं। हालाँकि वेश-भूषा और खानपान महानगरीय प्रभाव में हैं, किंतु पहाड़ की नैसर्गिकता ने अब तक इंसानियत बचा रखी है। अलग बात है कि पहाड़ के जिस स्वरूप को अंतस में बसाकर मैं शिमला आई, वो इस मॉल रोड पर बसे और किसी न किसी रूप में जुड़े शहरी लोगों में नहीं मिला, एक बार तो लगा मिनी दिल्ली में ही हूँ, वही विदेशी व्यंजनों का आधिक्य, वही परिधान; सुशिक्षितों के मस्तिष्क में वही राजनीतिक दाव-पेंच, वही चाटुकारिता वही गुटबाज़ी और पीठ पीछे वही शिकवे-गिले। बायीं ओर की सड़क मुख्यमंत्री आवास को जोड़ती हुई आगे गई है और यहाँ निजी वाहन लाने की अनुमति है। बहरहाल, मैं होटल के अपने कमरे के बाहर बिखरे प्राकृतिक और प्रकृति से तालमेल बिठाकर बसाए गए नगर की चर्चा कर रही थी। खिड़की से दाहिनी ओर निहारने पर इंजीनियर के प्रति मुँह से "वाह" निकले बिना रहता। पहाड़ की तराई से लगभग शीर्ष तक बसाया गया शहर! सीढ़ीनुमा ज़मीन पर उगाए गए मकान और उन्हें बाहरी दुनिया से जोड़ते घुमावदार रास्ते। पूरा शहर इसी में समाया हुआ है। दूर से ऐसी प्रतीति होती है मानों सीढ़ीदार कबर्ड में बहुत सारे ख़ाने बने हो और हर ख़ाने में मकाननुमा खिलौना सुनियोजित तरीक़े से रखा गया हो ...शहर का बेहतर मॉडल/ खिलौने -सा आले पर सजा हुआ। मैं निहारती रह जाती हूँ।

शाम को पहाड़ी जीवन नज़दीक से देखने को उत्कंठित मैं शहरी जीवन से दूर, पहाड़ी जीवन को निकट से देखने को उत्कंठित हूँ, किंतु मेरी उत्कंठा माल रोड के भ्रमण के दौरान गहरी निराशा में बदल जाती है। मित्रगण रेस्तराँ में चाय के साथ गप्पें मारते हैं और मैं वहाँ के माहौल से ऊबकर, कहीं सुकूनभरी जगह जाने की इच्छा ज़ाहिर कर बाहर आ जाती हूँ। बाहर निकलकर सामने ही सड़क किनारे खड़ी होकर नीचे देखने लगती हूँ, जहाँ से काले-काले बादल ऊपर उठते दिख रहे हैं। अचानक मूसलाधार बारिश! बारिश में भीगती हुई अंतस के पहाड़ को आसपास बाहर ढूँढती रहती हूँ। भीड़ में अकेली खड़ी सोचती रहती हूँ कि क्या यही सच है पहाड़ का ...पूरी तरह बनावटी, मैदान की तरह? क्या मैदानी संस्कृति और शहरी सभ्यता ने पहाड़ को पूरी तरह लील लिया? किंतु मेरे ऊहापोह और मित्रों के शहरी रवैये से उपजी खीझ से भला प्रकृति को क्या मतलब! वो तो हम ही अपनी मन: स्थिति के अनुरूप प्रकृति को देखते हैं। गोया यह कि मैं उस बारिश का मज़ा ले नहीं पाती हूँ, क्योंकि नई जगह और घना अँधेरा होने के कारण मैं अकेले होटल जाने में सक्षम नहीं, तेज़ बारिश में लगातार भीगने की वज़ह से कंपकपी सी होने लगती है, मोबाइल काम नहीं कर रहा, यदि कहीं शेड में चली जाऊँगी तो वहाँ साथ आए और रेस्तराँ में कॉफ़ी के साथ फ़ेसबुक-संदेशों पर बक़वास करते और मज़ा लेते लोग मुझे ढूँढेंगे कैसे, ख़ासकर मेरे सहयात्री! इस ख़्याल से घिरी मैं शिमला की बर्फ़ सी ठंडी बारिश का आनंद लेने से वंचित रह जाती हूँ।

21 की सुबह। कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में शामिल होने की तैयारी। कार्यक्रम की औपचारिक शुरूआत, इससे पहले हिमाचल के प्रसिद्ध कथाकार हरनोट जी सहित अन्य लेखकों से मुलाक़ात व औपचारिक बातचीत का सिलसिला। किंतु प्रथम सत्र की समाप्ति के उपरांत ब्रजेन्द्रजी ने जिस शख़्सियत से मिलवाया, मुझे अपना शिमला आना सार्थक लगने लगा... सरोज वशिष्ठ। आकाशवाणी दिल्ली और शिमला को उद्घोषिका के रूप में अपनी लंबी सेवाएँ देती हुईं, नाटक लेखन-निर्देशन, कहानी लेखन, जापानी साहित्य का अनुवाद मात्र उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता नहीं, इस वशिष्ठ को विशिष्ट बनाया ...लीक से हटकर किए गए इनके काम ने। तिहाड़ जेल में किरण बेदी के साथ मिलकर और स्वतंत्र रूप में भी क़ैदियों के अंदर के अच्छे इंसान को जगाने के साथ उनकी संवेदना को शब्दबद्ध करने के जो अभूतपूर्व काम सरोज जी ने किए थे, उनकी चर्चा मैंने सुन रखी थी, क़ैदियों के अंदर के कवि को जगाना और उनके भावों, उनके जीवन-संघर्षों, स्वजनों, पूँजीपतियों और राजनेताओं के हथकंडे के शिकार कुछ निरीह व्यक्तियों की पीड़ा को आम समाज तक पहुँचाने का दायित्व वास्तव में असाधारण कार्य है। ऐसी नेत्री मेरे सामने खड़ी हैं और उनकी आत्मीयता, उनका खुलापन मेरे अंतस में कई सवाल दागता है पर मैं मौन होकर उन्हें सुनती हूँ,बस सुनती जाती हूँ। चंद लम्हों के साथ के बाद वे निर्णयात्मक स्वर में कहती हैं, "आज से तुम मेरी बेटी हो, सो मैम नहीं मॉम कहो, सारे क़ैदी मुझे मॉम बुलाते हैं," और मैं हँसकर कहती हूँ, "मॉम नहीं फिर मैं माँ बुलाऊँगी।" वे भाव विह्वल-सी हमारे निवेदन पर हमारे होटल तक आने तैयार हो जाती हैं। माल रोड पर गाडियाँ नहीं चलतीं, सो मैं बाएँ कंधे पर उनका बैग और दाहिनी हथेली पर उनका हाथ जकड़े-पकड़े धीरे-धीरे होटल कॉसमॉस की ओर बढ़ रही हूँ, आत्मतुष्टि का अनुभव कर रही हूँ। माँ सरोज शरीर से ज़रा कमज़ोर हुई हैं किंतु आत्मबल और कार्यक्षमता, समाज के पीड़ितों की आवाज़ बनकर उभरने का उनका जीवटपन यथावत है...युवा वर्ग से कहीं अधिक! इतना समझ पाई हूँ। उनके एक-एक शब्द सकारात्मक ऊर्जा से स्फुटित जान पड़ते हैं। निश्चय ही यही ऊर्जा उन्होंने तिहाड़ से लेकर हिमाचल के मंडी, कांडा और कैथू जेल की सलाखों में बंद निर्जीव हो रहे तन-मन में भरी होंगी, तभी तो इतनी मार्मिक कविताएँ फूटकर निकली हैं। माँ सरोज अपने थैले में से कुछ पुस्तकें निकालकर मुझे देती हुई कहती हैं, "पढ़ेगी तो फूट-फूटकर रोएगी। मुझे लगता है, तू समझ सकती है इसलिए ये किताबें मैं तुझे दे रही हूँ।"

मैं उनकी आत्मीयता से भाव-विभोर हुई भूली सी हूँ कि हम चंद घंटे पहले ही तो मिले हैं। होटल में मेरे ही कमरे में खाना खाती हुईं वो जीवन के संघर्षों को चुटकुले की तरह सुनाती हँसती-हँसाती जाती हैं। उम्र का व्यक्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं। झुर्रियों के बीच दमकता चेहरा! मैं उन्हें 83 वर्षीय युवा (O! 83 years young lady!) कहती हूँ और वो फूल-सी खिलती हुई खिलखिला पड़ती हैं। भोजन के बाद विदा लेती हुई कहती हैं, "मैं कल आती नहीं, पर तुझे बेटी बनाया है, तुझे सुनने ज़रूर आऊँगी। ... सिर्फ़ तेरी ख़ातिर! समझी! " मैं गद्गद हूँ इतना प्यार पाकर। सरोज जी पर लंबी बातें फिर कभी, स्वयं को रोकती हुई इतना कि उनसे मिलने के बाद उपेक्षित, शोषित समाज के लिए कुछ अलग करने की मेरी लालसा जो अबतक धुँधलके में थी, स्वत: स्पष्ट हो गई। सामाजिक कार्यों के प्रति उनके समर्पण और जीवटपन ने मेरी व्यक्तिगत समस्याओं को तिरोहित कर कर दिया। है। अब मैंने जीवन का निकटतम लक्ष्य तय कर लिया है।

21 की शाम गहराती हुई, मैं होटल में ही अपने कमरे की बड़ी खिड़की से सामने लेकिन दूर, पहाड़ पर बने मकानों में जलती रंग-बिरंगी रोशनियाँ देख रही हूँ, जो जुगनुओं के समूह का भ्रम देती हैं, लेकिन मन इन रोशनियों के पीछे फैले अँधेरे को समझने की कोशिश में लगा है ...एक अजीब-सी छटपटाहट के साथ। रह-रहकर सरोज जी की बातें अपने पूरे वज़ूद के साथ उभर-उभर आतीं। मैं अकेले में उनके प्रेम और आत्मीयता से लबालब, छलक पड़ने को आतुर शब्दों को समेटने, सहेजने और आत्मसात करने में व्यस्त हो जाती हूँ। कार्यक्रम में इतने लोग मिले, कई जानी-मानी हस्तियाँ भी, लेकिन दिल में घर कर गईं सरोज जी ...माँ सरोज वशिष्ठ! अपने अनूठे व्यक्तित्व के साथ। उनकी दी हुई पुस्तकें पलटती हूँ, सोचती जाती हूँ, कि क़ैदियों और सरोज जी की प्रेरणा से उन क़ैदियों के संपर्क में आए रंगकर्मियों, साहित्यकारों, समाजसेवियों की रचनाओं, (जिन्हें सरोज जी ने संकलित और संपादित किया) का जन्म कहाँ इतना आसान रहा होगा! जीवन से हारे, विक्षिप्तता की अवस्था में जीते, खुले आसमान का स्वरूप भूल चुके क़ैदियों को पुन: संवेदनशील बनाना, उन्हें काग़ज़ कलाम मुहैया कराना, उनके लिए पुस्तकालय खुलवाना, और भी बहुत कुछ क्या आसान रहा होगा? सवाल ही नहीं उठता। उन्होने दुर्लभ और दुष्कर कार्य संभव कर दिखाया है ..बिना किसी प्रशासनिक पद पर हुए, बिना किसी पूँजीपति से अनुदान लिए। इन जेलों के अंदर आज बाइस पुस्तकालय सुव्यवस्थित और सुचारू रूप में विद्यमान हैं। जब वे कर सकती हैं तो जो सपने मैंने अब तक त्रिशंकु की तरह लटका छोड़े हैं, उन्हें क्यों ना पूरा करूँ! जिसे साथ देना होगा...आएगा। बस अब और इंतज़ार नहीं। इन पुस्तकों को उलटने-पलटने के बाद ख़ुद को इतना निश्चित तो कर सकी हूँ मैं।

झमाझम बारिश! पूरी रात बारिश! अब 22 की भीगी भोर। खिड़की के बाहर बूँदें अब टपटप बरस रही हैं। कुछ बादल खिड़की से कमरे में अनाधिकार प्रवेश करते है, छूते है, पर गुदगुदा नहीं पाते। पिछले दो दिनों में प्रकृति-दर्शन और उसे पल-पल जीने की लालसा कहाँ छू-मंतर हो गई! मैं ख़ुद को टटोलती हूँ। बारिश थम चुकी है। दूर नन्ही पहाड़ी की तलहटी से उसकी ऊँचाई के मध्य तक सघन श्वेत बादल बिछे हैं, मानो बादल की गोद में नन्ही पहाड़ी अलसाई पड़ी हो या कि शुभ्र श्वेत हथेली पर कोई हरित पदार्थ रखा हो। सामने कोई भी पहाड़ नंगा नहीं, एक-एक पोर में हरियाली। निचले हिस्से में चीड़, ऊपरी हिस्से में देवदार... आसमान से बातें करते हुए गर्वोन्नत! होटल से लगी सड़क से इक्के-दुक्के लोग और स्कूली बच्चे गुज़रते हुए। एक फटेहाल व्यक्ति, जिसके हाथ में एक कटोरा,जिसमे कुछ तैलीय पदार्थ है और जिसके अंदर कुछ सिक्केनुमा धातु के टुकड़े हैं, उसकी चाल सामान्य नहीं, व्यवहार में भी विचित्रता है। सड़क शांत हैं। इक्के-दुक्के पदचापों से उसकी शांति भंग नहीं होती।

सुबह के 10.30 बजे। गेयटी थियेटर में अभी अलग-अलग राज्यों से आए साथी मित्रों के साथ मेरा भी कविता-पाठ। माँ सरोज समय पर उपस्थित हैं। आयोजक जब उन्हें सादर अंदर बिठाना चाहते हैं तो कहती हैं, "मैं आज अपनी बेटी आरती के लिए आई हूँ, वहीं बैठूँगी जहाँ वह बैठेगी।" उन्हें देख मैं अनायास बच्ची-सी दौड़ पड़ती हूँ। 11 बजे कार्यक्रम की शुरूआत। सभी मित्रों की बेहतर प्रस्तुति। संचालन ब्रजेन्द्र त्रिपाठी जी का। मैं अपनी पहली रचना "माँ की याद में" माँ सरोज को समर्पित करती हूँ और मंच से उतरकर उनके पास आने से पूर्व वे उठ खड़ी होती हैं और अपनी बाँहों में पूरे वात्सल्य के साथ भर लेती हैं। मुझे याद नहीं अंतिम बार इस तरह कब अपनी माँ से लिपटी थी, मगर ये पल अब मेरे लिए अमूल्य धरोहर हैं। माँ ने मुझसे वो कविता ले लेती हैं..... अपनी अगली पुस्तक में शामिल करने के लिए। हम पूरे कार्यक्रम में साथ हैं। आसपास उपस्थित लोग हमारे आपसी अनौपचारिक और आत्मीय व्यवहार से चकित होकर पूछते, "क्या हम पूर्व परिचित है?" हमारा जवाब "ना" होता, फिर वे हँसकर कहती, "अब तो ये मेरी बेटी है।"

इन दो दिनों में कोई मेरे और मैं किसी के क़रीब रही तो वो माँ सरोज थीं। जाने कितनी बातें... देश, समाज, कार्यक्षेत्र से सम्बद्ध और कुछ व्यक्तिगत भी। पीड़ा आनंद की चाशनी में लिपटकर मेरे सामने आती, मगर मुझे उसका असली रंग दिख ही जाता। उनके कहकहों में पीड़ा का एकसार होना, कहीं ना कहीं मेरे अंदर उतर चुका है। उनसे विदा होकर भी मैं उन्हें साथ ले आई हूँ और रास्ते भर वे मुझसे वैसे ही बोलती-बतियाती रही हैं।

विश्वविद्यालय-भ्रमण के नाम पर वहाँ के उपकुलपति श्री अरुण वाजपेयी से औपचारिक मुलाक़ात के बाद हम होटल लौट आए हैं। पहाड़ काटकर बनाए गए रास्तों ने प्रभावित किया ही, साथ ही ड्राइवर की दक्षता ने भी दिल को छुआ है। कोई जल्दबाज़ी नहीं! स्थिरचित्त होकर गाड़ी चलाते हैं ये।

रात्रिभोजन के बाद 11 बजे हम टहलने निकलते हैं। बढ़ते हुए मुख्यमंत्री आवास तक जा निकलते हैं। वातावरण पूरी तरह शांत! किंतु मन में किसी तरह का भय नहीं, कोई आशंका नहीं। कोई पुलिस फोर्स नहीं। चोर-उचक्के या स्त्री मन को आतंकित करनेवाले असामाजिक तत्व नहीं। इतनी निर्भीकता पहले कभी महसूस नहीं की। एक ख़याल उभरता है "क्या यह परिवेश पूरे हिंदुस्तान का नहीं हो सकता? क्या हम थोड़े कम सभ्य होकर पहाड़ के निर्मल जीवन को नहीं अपना सकते! देश की कई आंतरिक समस्याएँ यों ही ख़त्म हो जाएँगी।" हम नगरों-महानगरों की ओर भागते हैं और अपनी ज़िंदगी को हर पल असुरक्षा के घेरे में पाते हैं, अब तो गाँव और क़स्बा भी अछूता नहीं रहा। क्यों मैदान के लोग इतने निकृष्ट होते जा रहे हैं कि अपने ही देश और समाज में बहू-बेटियाँ असुरक्षा का दंश झेलती हैं। काश!"

ब्रजेन्द्रजी मेरे चेहरे पर उभरती पीड़ा को शायद पढ़ लेते हैं, धीरे से कहते हैं, "शुक्र है, पहाड़ अब तक बचा हुआ है।"

सड़क पर कई युगल, लड़कियाँ, और माता-पिता के साथ आए बच्चे घूम रहे हैं। ये भी पर्यटक हैं, तभी तो मेरी तरह ये भी रात के 12 बजे खुली हवा में निर्भीकता की साँस अपने में भरकर लौटना चाहते हैं। यहाँ देह की सुरक्षा की चिंता नहीं पनपती। यहाँ शोषण ने सुरसा सा मुँह नहीं फैलाया है, जबकि मैदानी जीवन में मज़दूर से लेकर पूँजीपति, शिक्षक से लेकर न्याय के संरक्षक भ्रष्टाचार के पुतले बने हुए हैं। यहाँ किसी की दृष्टि में मलिनता नहीं, कलुषता नहीं, लोभ नहीं द्वेष नहीं, द्वेष की भावना अगर पनपी भी है तो उन लोगों में, जिनके एक पैर नागरी सभ्यता के दलदल में हैं। होटल का मुख्य द्वार बंद हो जाने की आशंका से हम आधी रात में भी व्याप्त उस सुकून-भरे लम्हे और परिवेश से हटकर होटल की ओर बढ़ते हैं। मैनेजर अपने काम में तल्लीन है, वेटर सो चुके, उन्हें सुबह 7 बजे के पहले ड्यूटी पर नहीं लगना, जबकि मैनेजर उनसे पहले काउंटर पर आ जाते हैं। वेटर भी सौम्य, शालीन! फूहड़पन के लिए कोई जगह नहीं। मैं अपने कमरे में सोने के पहले ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि देश के इन स्वर्गिक स्थलों की नैसर्गिकता बची रहे जो धीरे-धीरे शहरीकरण से लील लिए जाने की प्रक्रिया में है।

23 की भोर। आज शाम हमारी वापसी है, इसलिए पूरा दिन प्रकृति के बीच बिताना है। गाड़ी सहित ड्राइवर गुड्ड अपने समय पर उपस्थित। सुबह के 10.30 हो चुके। मैं बाज़ार घुमाने से मना कर देती हूँ। हम राष्ट्रपति भवन जाते हैं जहाँ गाइड हमें 3 प्वाइंट घुमाते हुए वहाँ का इतिहास और उसकी विशिष्टता रटे-रटाए तोते की तरह बताता है। एक कमरे में, एक गोल मेज़ के पास ले जाकर वह बड़ी शान से बताता है कि "यही बैठकर, इसी टेबल पर वायसराय माउंटबेटन और नेहरूजी ने भारत-विभाजन की प्रथम वार्ता की।" लोग श्रद्धापूर्वक उस मेज़ को देखते नज़र आते हैं, मेरे मुँह से अनायास निकलता है "तो यही वह मनहूस जगह है जहाँ देश का दुर्भाग्य तय होना शुरू हुआ था और उस दुर्भाग्यपूर्ण स्मृति को म्यूज़ियम में सुरक्षित रखा जा रहा है" कितनों ने मेरी बात पर कान दिया, पता नहीं, हाँ! 1965 ई. में राष्ट्रपति भवन को एडवांस स्टडी का रूप देकर परम आदरणीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने उस स्थल की महत्ता बढ़ा दी, हालाँकि गाइड हर कमरे की बनावट और बुनावट पर अधिक व्याख्यान देता रहा, जैसे, "यह घड़ी 1888 की है और डच द्वारा लाई गई, यह शिलिंग अखरोट की लकड़ी से बनी है, शेष लकड़ी बर्मा से मँगवाई गई। यहाँ सेफ़्टी के लिए शिलिंग की ग्लास के ऊपर 24 वाटर टैंक हैं" आदि आदि। मेरा मन शोधार्थियों के लिए की गई सुव्यवस्था देखकर प्रफुल्लित हो उठता है और "काश! मैं भी कभी यहाँ रहकर शोधकार्य कर सकूँ!" अंतस से स्वयं के लिए दुआ निकलती है।

स्टेट म्यूज़ियम, कृषि संस्थान, पोटैटो रिसर्च सेंटर घूमते हुए मेरा मन जहाँ जा अटकता है वह है ...नालदेहरा। ऊपर तक जाने के लिए हम घोड़े पर सवार होते हैं। संजु नामक वह श्रमिक जो दो घोड़ों की कमान सँभालते हुए अपनी सादगी भरी बातों से जीवन के कुछ गूढ़ तथ्य समझा जाता है। अपने काम से ख़ुश, अपनी कमाई से संतुष्ट! ईर्ष्या-द्वेष उसे नहीं मालूम, पर्यटकों से टिप लेना वह नहीं जानता, लेकिन प्रफुल्लित होकर कहता है, "मैडम जी अगली बार आओ तो हमारे गाँव ज़रूर आना।

"मेरे कहने पर कि "भैया! हमें तो ना पहाड़ का खाना मिला ना चाय मिली, वही दिल्ली वाला खाना यहाँ भी। आप चाय पिलाओगे?"

"ओजी मैडम जी आप आओ, बच्चों को भी लेकर आओ, हमारे घर चलो, चाय क्या, हमारे घर का खाना खाओ, हमारे त्योहारों में रहो..... लेकिन मैडम जी! आप लोगों को हमारे घर का खाना अच्छा नहीं लगेगा।"

मैं उसकी सरलता और इस तकलीफ़ में भी जीवन को जीने की उसकी कला से सीख लेती हूँ। वह इसी नालदेहरा की तलहटी में बसा सिवी गाँव का निवासी है। उसके लिए अतिथि आज भी देव है। एडवेंचर प्वाइंट, मंदिर, गोल्फ़ कोर्स, और ना जाने किन-किन स्थलों के बारे में बताता वह शीर्ष पर जा पहुँचता है। दलदल भरे सँकरे रास्ते से चढ़ाई करते हुए भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं, लौटने की कोई जल्दबाज़ी नहीं। रास्ते में 75 वर्षीय रामू काका मिलते हैं, उडी गाँव के, नीचे गाँव से ऊपर पहाड़ पर गाय चराने आते हैं, दोनों की दुआ-सलाम में नैसर्गिक आत्मीयता छलक पड़ती है। काका के चेहरे पर संतुष्टि की चमक है। देवदारों के बीच से घोड़ों पर सवार हमें गुज़ारते हुए वह जहाँ रुकता है, वह लवर प्वाइंट कहलाता है। मैं अनायास पूछ बैठती हूँ, "इसे लवर प्वाइंट क्यों कहते हैं? कितनी सुकून भरी जगह है यह!"

"ओजी! नए जोड़े यहाँ आते हैं, और घंटों बैठते हैं। आप घोड़े से उतरकर जाओ तो आगे।"

उसके बार-बार कहने पर मैं आगे बढ़ती हूँ। देवदार का सघन वन, फिर भी पर्याप्त खुलापन! असीम शांति, किंतु सन्नाटा नहीं। आत्मचिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ जगह! "सचमुच! देवभूमि है यह। देवदार से घिरी देवभूमि!" वह स्थल चारदीवारी से घिरा मंदिर नहीं, लेकिन मंदिर से भी अधिक शुचिता का एहसास कराता हुआ। पवित्र ऊर्जा का संचरण मैं महसूस करती हूँ। घोड़ेवाले को कहकर मैं वहीं ज़रा दूर जा बैठती हूँ। अंतस से आवाज़ आती है, "तुम ऐसी ही जगह आना चाहती थी ना, जहाँ कोई ना हो। सिर्फ तुम रहो और प्रकृति बिखरी हो चारों ओर।"

मैं आत्मविभोर-सी "हाँ" में सिर हिला देती हूँ। एक-एक पल को समेट लेना चाहती हूँ, पूरी ऊर्जा भर लेना चाहती हूँ। मैं ना जाने आत्मलोक का कौन सा कोना भ्रमण कर रही होती हूँ, कुछ बूँदें आ गिरती हैं, रास्ता दलदल भरा है, ज़रा हटकर प्रकृति निहारते ब्रजेन्द्रजी मेरी तंद्रा में धीरे से खलल डालते हैं और वापस चलने का इशारा करते हैं। घोड़े पर सवार मैं घोड़ेवाले संजु भैया से अगली बार उनका आतिथ्य स्वीकारने का वादा कर लौटती हूँ। बारिश का अनुमान कर ड्राइवर गुड्डू गाड़ी लेकर कुछ ऊपर तक आ गया है। कुफ़री का चिड़िया घर,फिर जाखू मंदिर, जहाँ अभिषेक बच्चन द्वारा निर्मित 108 फीट लंबी हनुमानजी की प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है। जाखू पर्वत अपनी पौराणिक कथा के लिए प्रसिद्ध तो रहा ही है। इन स्थलों के भ्रमण के पश्चात् हम होटल लौटते है, सफ़र अभी ज़ारी है। हमें दिल्ली के लिए वोल्वो (बस) लेनी है, सो सामान लेकर मैनेजर और वेटर से विदा लेकर हम फिर से गाड़ी में।

बस चल रही है। यात्रा हो रही है...मैं अपने अंदर एक साथ उग आए नालदेहरा के देवदार की दिव्यता महसूस रही हूँ, बीच-बीच में माँ सरोज वशिष्ठ का खिलखिलाता चेहरा भी उन देवदारों के बीच उग आता है। सचमुच! देवदार-सा ही तो व्यक्तित्व है उनका। हमेशा दूसरों को शीतलता, शांति और पवित्र ऊर्जा से स्पंदित करता हुआ। किंतु पहाड़ काटकर बनाई गई सड़क और उसपर फर्राटे से दौड़ती गाड़ियों के धुएँ से खाँसते बीमार देवदार और चीड़ मुझे द्रवित कर रहे हैं जितना कि वहाँ मकान बनाते हुए श्रमिक। मैं घर पहुँच चुकी हूँ किंतु यात्रा ज़ारी है...नालदेहरा अपने समूचेपन के साथ मुझमें समाविष्ट है। मैं घंटों उसमें विचरती रहती हूँ और मेरे सहयात्री हैं चीड़, देवदार, चरवाहा रामू काका, घोड़ेवाले संजु भैया, वेटर चन्दन, विजय और ड्राइवर गुड्ड। नालदेहरा! मैं सुन रही हूँ तुम्हें! तुमसे होकर गुज़र रही हूँ हर रोज़! तुम्हें जी रही हूँ हरपल!!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अंडमान—देश का गौरव 
|

जमशेदपुर से पाँच घंटे की रेल यात्रा कर हम…

अरुण यह मधुमय देश हमारा
|

इधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश मे स्थित…

उदीयमान सूरज का देश : जापान 
|

नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कहानी

व्यक्ति चित्र

स्मृति लेख

पत्र

कविता

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कहानी

किशोर साहित्य नाटक

गीत-नवगीत

पुस्तक समीक्षा

अनूदित कविता

शोध निबन्ध

लघुकथा

यात्रा-संस्मरण

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं