पाज़ेब
कथा साहित्य | कहानी डॉ. आरती स्मित1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
“ऋचा! ऋचाsss…. सुनाई नहीं देती आवाज़? चल, उठा, हटा इसको यहाँ से! कितनी दफ़ा मना किया है कि बालकोनी में मत टाँगा कर, मगर तुझे तो बेशर्मी सूझती है।”
“मम्मी, तुम फिर शुरू हो गई!” माँ की, ग़ुस्से में चीख़ती-सी आवाज़ सुनकर कमरे से बाहर आई ऋचा झनककर पलटवार करती हुई बोली, “क्या दिक़्क़त है इसे यहाँ रहने में? क्या धूप सिर्फ़ पापा और सोम के ही अंडरगारमेंट में लगनी चाहिए, हमारे नहीं?”
“बहस मत कर! हटा यहाँ से!”
“नहीं हटाती!”
“तुझे ज़रा भी शर्म नहीं? पापा यहाँ कुर्सी डालकर बैठते हैं। सामने के फ़्लैट से यहाँ के कपड़े दिखते हैं . . . ”
“सामने ही नहीं, ऊपर से भी। तोss? . . . दिखते हैं तो . . .? बचपन से तुम्हारी ऐसी बातें सुन-सुनकर तंग आ चुकी हूँ। डिस्गस्टिंग! जाने पापा तुम्हें कैसे झेलते हैं! . . . और मेरे किसी कपड़े को हाथ मत लगाना, जब तक सूख न जाए। कल भी तुमने बिना सूखे उन्हें हटा दिया था।”
“ज़्यादा बड़-बड़ न कर, हटा यहाँ से!”
“नहीं हटाऊँगी। . . . और तुम भी नहीं हटाओगी। बहुत हो गया! अब और नहीं!”
इस बार ऋचा की आवाज़ कड़कती बिजली-सी निकली तो अपने स्टडी रूम से योगेश भी बाहर आ गए। वे बेटी से कुछ पूछते, इससे पहले ही वह दनदनाती हुई अपने कमरे में चली गई। लॉक डाउन के कारण ऑनलाइन क्लास चल रही थी। प्रैक्टिकल न होने का दबाव सिर पर बना हुआ था, अपनी तैयारी को लेकर वह पहले से परेशान थी, रोज़ की तरह आज भी बे-बात की चिक-चिक शुरू होने से आज वह बुरी तरह खीज गई।
“क्या बात है भई, किस बात पर माँ-बेटी के बीच युद्ध हो रहा है?”
उन्होंने विनोद करते हुए पूछा। पत्नी को क्रोध में देखकर वे अक़्सर विनोद के स्वर में बात करते ताकि उसके ग़ुस्से का तापमान घट जाए और घर का वातावरण घर जैसा रहे, मगर आज बात नहीं बनी।
“तुमने ही माथे चढ़ा रखा है उसे। मुझे तो गुनती ही नहीं। दुनिया में बेटी बड़ी होती है तो माँ से जा लगती है, यहाँ तो . . . ” नथुनों से आग उगलती, होंठ फड़काती शिखा मशीन से निकाले कपड़ों की बाल्टी वहीं छोड़ अपने कमरे में चली गई।
योगेश कुछ समझा पाए, इसके पहले वह जा चुकी थी। रह गई थी कपड़ों की उपेक्षित बाल्टी, क्रोध भरी दमघोंटू हवा और माँ-बेटी की चिकचिक से हल्की खिली धूप में उतर आई उदासी। ‘अभी-अभी तो सब ठीक था। . . . और अभी-अभी!’
योगेश ने बालकोनी से सामने और ऊपर निहारा। सामने क़तार में चार मंज़िले-पाँच मंज़िले मकान अपने पथरीले दाँत निपोर रहे थे तो ऊपर टुकड़े भर के आसमान में नीलाभ तैर रहा था और उसके नीचे नन्हें खरगोश बने कुछ बादल खेल रहे थे। वह कुछ देर बादलों को निहारता रहा। जी में आया कि ऋचा को आवाज़ दे। उसे भी अलग-अलग शक्लों के बादल बड़े अच्छे लगते हैं। उन्हें देख कर दोनों क़यास लगते रहते हैं कि किस बादल का चेहरा किस पशु-पक्षी या इंसान जैसा है। सोम तो लैपटॉप लेकर सोता-जगता। उसे पक्षी, बादल आकर्षित नहीं करते।
’देखूँ ज़रा! सँभालूँ, वरना पूरा दिन चौपट हो जाएगा’ अपनी सोच को विराम देते हुए उन्होंने झटपट कपड़े तार पर डाले, बाल्टी को जगह पर रखा और अपने कमरे में जाने लगे।
बढ़ते-बढ़ते क़दम ठिठके और ऋचा के कमरे की ओर मुड़ गए। पर्दा हटाकर देखा, कुर्सी पर बैठी वह अब भी सिसक रही थी। पापा को देखकर सिसकी रुलाई में बदल गई। अब वह हिचक-हिचक कर रोने लगी। योगेश का दिल चाहा, उसे पहले की तरह कलेजे से लगाकर पुचकार दे, मगर शिखा! उसकी सोच को जाने क्या घुन लग गई है! वह और चिढ़ जाएगी। उसे भी ’बेशर्म और न जाने क्या-क्या . . . ?’ शिखा की ओर से इस भावनात्मक आक्रमण की सोच-भर से वह काँप उठा। ऋचा अब भी रोए जा रही थी। योगेश ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा तो एकदम से पापा के पेट से लिपट कर रोने लगी। योगेश के लिए बेटी के आँसू सह पाना उतना ही कठिन था जितना अपनी माँ का। उसका सिर सहलाते हुए बोले, “मम्मी की बात का कोई इतना बुरा मानता है भला! देखो तो रो-रोकर तुम्हारी आँख की जगह नाक लाल हो गई है।” ऋचा ने सिर उठाकर पिता की तरफ़ देखा। चेहरा आँसुओं से तर और आँखों में ढेर सारे प्रश्न उमड़ रहे थे।
“बचपन से देखती आ रही हो बेटा! अब तक तो तुम्हें आदत हो जानी चाहिए। मम्मी दिल से तुम्हारी चिंता सबसे अधिक करती है। शायद जताना नहीं आता। अपने परिवार से जो पाया है, वही तो दे पाएगी न! बाक़ी हर बात में कितनी केयरिंग है, देखती ही हो। सुबह से नाश्ता, चाय, कपड़े . . . कितने सारे काम निपटाती है। मैं तो इस मामले में निठल्ला ही हूँ। ब्रेड टोस्ट और चाय बनाने के सिवा कुछ नहीं आता। हाँ, मैगी भी ! मगर मेरे हाथ का खाने के बाद आदमी मैगी खाना छोड़ दे। स्टडी रूम को ऑफ़िस बना रखा है मैंने तो वह भी मम्मी ही ठीक-ठाक करती है। है ना! . . . चाय बनाऊँ? इतना रोने के बाद थोड़ी भूख भी तो लग गई होगी। ब्रेड भी टोस्ट कर देता हूँ . . . ।” योगेश उसे हँसाने की कोशिश में लगे रहे।
“पापा! आप मम्मी क्यों नहीं हुए? आपके गले लगकर रो तो सकती थी! मुझे ऐसी मम्मी . . . “
अपने वाक्य की कठोरता को ख़ुद सह न सकी तो वाक्य अधूरा छोड़कर फिर सिसकने लगी। जब से वह हॉस्टल से लौटी थी, आए दिन अपने बेटी होने का एहसास कराए जाने के कारण वह घंटों सिसकती रहती थी। इससे उसकी पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ रहा था और स्वास्थ्य पर भी। उसके कैशोर्य को ढँकने-छिपाने की तालीम के साथ मम्मी अपने ढंग से परवरिश करना चाहती थी, मगर पापा ने वनस्थली भेज दिया। वे चाहते थे ऋचा बोल्ड लड़की के रूप में अपना व्यक्तित्व निखारे। सचमुच, वनस्थली की तालीम ने उसे जीने का मतलब समझाया। वह खुली-खिली। मज़बूत बनी। आत्मविश्वास से भरी हुई। शिखा को उसकी यही बोल्डनेस अच्छी नहीं लगती थी और वह हर बार छुट्टियों में उसे ऐसी ही छोटी-छोटी दक़ियानूसी बातों के लिए बिला वज़ह डाँटती-फटकारती रहती। . . . अब तो वह कॉलेज पहुँच चुकी है। अट्ठारह पार कर चुकी है। समय के साथ चलना चाहती है . . . अब भी!
“पापा! मुझे यहाँ नहीं रहना। मुझे . . . ” वाक्य फिर अधूरा रह गया।
“चुप हो जा बेटा! छोटी-छोटी बातों को दिल से नहीं लगाते। अब नो आँसू! मैं चाय बनाकर लाता हूँ।” बेटी को समझा-बुझा कर योगेश कमरे से निकल आए।
सैमसंग कंपनी में सीनियर एडिटर के पद पर टिके योगेश अपने कार्य-व्यवहार के कारण कंपनी में सबके चहेते थे। अधिकारी हो या मातहत कर्मचारी, सभी उनसे ख़ुश रहते। इसका एक कारण उनकी कर्मठता और सहयोगी स्वभाव भी था। लॉक डाउन के कारण जब कंपनी ने स्थायी अधिकारियों/ कर्मचारियों से, घर से ही काम करने का निर्णय सुनाया तो वे बड़े ख़ुश हुए। सोचा, ऐसे तो सिवाय संडे ज़रा भी फ़ुरसत नहीं मिलती, घर पर रहेंगे तो परिवार के साथ ख़ुशनुमा पल बिताएँगे, मगर वह सपना आए दिन टूटता जाता। बिला वज़ह शिखा का ऋचा से उलझना और ऋचा का पल-पल ख़ुद में सिमटते जाना उन्हें भीतर से छीजता जा रहा था। कई बार कोशिश की कि शिखा को समझा सकें, मगर सफल नहीं हुए।
’बच्चे बड़े हो गए हैं, शिखा क्यों नहीं समझती। नई सदी के बच्चे हैं . . . डिजिटल युग के, फिर भी कॉलोनी के कई बच्चों से कई मामलों में बेहतर! सोम पर तो दबाव चलता नहीं। दो टूक ज़वाब देकर चुप करा देता है, ऋचा बचपन से चुप्पी साधे रही तो अब वही ज्वालामुखी में बदल रही है। शिखा क्यों नहीं समझती, ऐसे में बच्चे घर से दूर हो जाएँगे। वैसे भी कौन-सा यहीं रहने वाले हैं! क्या अनुभूति साथ ले जाएँगे! समय कितनी तेज़ी से बदल रहा है, चीज़ें बदल रही हैं, हालात बदल रहे हैं। क्या वह कुछ भी नहीं समझती! या समझना नहीं चाहती कि महानगर में पैदा हुए, पले-बढ़े ये बच्चे उसकी क़स्बाई सोच को कभी नहीं स्वीकारेंगे . . . ’
चाय के उबाल के साथ ही कई सोच योगेश के मन में खदकती-पकती रहीं। हाथ ब्रेड टोस्ट करने का काम करते रहे। अक़्सर ऐसी स्थिति में वे अपने आप से ही बतियाते रहते। उलझना उन्हें कभी पसंद नहीं रहा।
♦ ♦ ♦
अपने कमरे में ड्रेसिंग टेबल के सामने आईने में अपने आप से बात करती, बड़बड़ाती शिखा अपनी भड़ास निकाल रही थी। “मेरे होने का कोई मतलब नहीं। बचपन से अब तक किसी ने मेरी नहीं सुनी। न माँ-बाप ने और अब न ये बच्चे मेरे कहे में हैं। पिताजी का दुलार कभी समझ नहीं आया। भैया हर बात पर रोक-टोक करते रहे और माँ! माँ तो बस!! उसका बस चलता तो पैदा होते ही दुपट्टा ओढ़ा कर कमरे में बिठा देती। यहाँ मत जा, वहाँ मत जा! जींस पहनने वाली छोरियों के लिए कितना बुरा-बुरा बोलती थी, पर मज़ाल था कि हमने माँ से ज़ुबान लड़ायी हो। पिताजी काट कर रख देते। एक योगेश है! इनका वश चले तो . . . ”
“पर क्या तुम ख़ुश होती थी जब भैया फ़्रॉक पहनने पर रोक लगाते और माँ भी भैया का साथ देती थी?”
अचानक आई चिर-परिचित आवाज़ से वह चौकी। उसने दरवाज़े की तरफ़ देखा। कोई नहीं था। कमरा उसकी बड़बड़ाहट से भरा धुआँया-सा था। . . . ‘यह आवाज़?’
‘क्या बेटी की माँ बनते ख़ुद को ही भूल गई? या अपनी माँ को अपने भीतर बसा लिया? तुम तो ऐसी नहीं थी। तुमने ऋचा के जन्म पर क्या कहा था, याद है या वह भी भूल गई . . . ?’ शिखा हड़बड़ाई-सी अचकचा कर आईना निहारने लगी। “आवाज़ आईने की नहीं, मेरी ही है। हाँ! मेरी ही। तो क्या ऋचा के किशोरी होते ही मेरी सोच भी बदलने लगी और वक़्त की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते मैं यहाँ तक पहुँच गई कि . . . ?” शिखा बुदबुदाती रही। अचानक उसे लगा, बीते पल नींद से जाग गए हों और उसके सामने एक-एक वाक़या ला खड़ा कर रहे हों। साधारण से भी साधारण-सी वे बातें जिनसे घुटन पाती रही थी वह और कभी किसी को समझा नहीं पाई थी कि उसे क्या और क्यों बुरा लगता है। एकदम घातक! जानलेवा-सा। आज आईने ने उसे सचमुच उसका प्रतिबिंब दिखा दिया, मन के द्वार खोल दिए और स्मृति में सोई नन्ही-नन्ही कचोट को हिला-डुला कर जगा दिया, तभी तो हर बात उसके कानों में अतीत का स्वर बनकर गूँज रही है।
आँखों के सामने तीस एक वर्ष पीछे की, घर की तस्वीर ज़िंदा होने लगी। बड़ा-सा आँगन खुला-खुला सा। देहरी पर अनाज की बोरी। रसोई में माँ के साथ वह और कमरे में छोटा टेलीविज़न कुछ बकवास उगलता हुआ। सड़क किनारे मकान का फ़ायदा यह होता कि आँगन से लग कर बनी आधी दीवार की रेलिंग से सड़क का नज़ारा देखने को मिलता और बड़ा-सा आसमान भी। अक़्सर उसका जी चाहता कि वह आसमान को अपनी बाँहों में भर ले। 10-11 साल तक तो मज़े ही मज़े! कुर्सी पर बैठकर सड़क निहारो या खड़े होकर, कोई कुछ नहीं बोलता। गरमी के दिनों में जब बिजली चली जाती तब पिताजी भी साथ-साथ खड़े होकर सड़क निहारा करते। धीरे-धीरे कब वह रेलिंग लक्ष्मणरेखा बन गई या भैया के आदेश से बना दी गई, याद भी नहीं। बस इतना याद है कि माँ ने एक दिन डपट कर कहा था, “रेलिंग स हट छोरी! भैया देखे-गा तो थारा तो थारा, म्हारा भी छुट्टी कर दे-गा।” सन्न रह गई थी वह।
‘ओह! कितना चाहा था मैंने कम से कम ग्रेजुएशन तक पढ़ाई कर लूँ, मगर . . . माँ-पिताजी की नाक कटती थी। ‘जे छोरा पढ़े कोणी . . . तू पढ़-लिख के कुण-सी चौधराईण बणेगी’ . . . पिताजी की आवाज़ कानों से टकराई तो उसका चेहरा आग हो गया। . . . तुम लोगों ने मुझे कहीं का न छोड़ा। योगेश जैसा पढ़ा-लिखा अफ़सर पति और मैं! योगेश कुछ नहीं कहते, कभी उपहास भी नहीं करते, मगर जब दोस्तों से मिलवाते हैं तो उन सबकी पत्नियों के सामने ख़ुद को सीधे तना हुआ महसूस नहीं कर पाती। गरदन अपने आप झुक जाती है। इसलिए फ़ैमिली पार्टी में जाना छोड़ दिया।’
“यही सब तो तुम ऋचा के साथ कर रही हो” मन की आवाज़ साफ़-साफ़ कानों में गूँजी तो मुँह से बरबस निकला, “नहीं! मैं उसे बेटी होने का ढब सिखाना चाहती हूँ।”
“झूठ बोल रही हो तुम! क्या तुम यह मानती हो कि उसमें जीने का ढब नहीं? वह तुमसे कम समझदार है? . . . दरअसल, तुम अपने पर थोपे गए बंधनों को संस्कार और तरह-तरह के नाम देकर उसकी राख़ अपनी बेटी पर मलना चाहती हो।”
“नहीं-नहीं!” वह तड़प उठी।
अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को नकारना आज जैसे शिखा के लिए कठिन होता जा रहा था । पिछले छह वर्षों में पहली बार उसे एहसास हो रहा था कि उसने कुछ ज़्यादा ही कठोरता बरती है। उसे तो ख़ुश होना चाहिए कि उसे योगेश जैसा विनम्र और मित्र जैसा पति और बच्चों को इतने अच्छे पिता का साथ मिला। याद नहीं पड़ता कि पिछले बीस वर्षों में योगेश ने उसे दुत्कारा या तिरस्कृत किया हो; कभी किसी ज़रूरत की आपूर्ति में कमी की हो। वे तो चाहते हैं कि वह साथ चले, घूमे-फिरे। उसने ही ख़ुद को क़ैद किया हुआ है, पैरों से उन अनदेखी बेड़ियों को नहीं झटकारती जो मायके वालों ने पहनाई थीं। और अब वही ऋचा को . . . ‘नहीं-नहीं! मैं ही ग़लत थी। ग़लत हूँ। भूल गई गई थी कि चोट छोटी हो या बड़ी, कोमल मन पर लगती है तो पूरी ज़िंदगी टीसती रहती है। चालीस की होने को आई, जब वह अब तक अपनी माँ और भाई की बन्दिशों को नहीं भुला पाई जो कि उस समय और समाज के लिए साधारण बात है तो बिलकुल अलग दुनिया में पली ऋचा को भला मेरी बात . . . ’
वह उठ खड़ी हुई। आज कुछ मिनटों में उसने कई वर्ष जी लिए और उनमें से बुरे पल छाँट भी लिए दफ़नाने के लिए। ‘मैं ही जाती हूँ उसके पास। योगेश . . . योगेश कहाँ हैं इतनी देर से? शायद वहीं हों!’ सोचती हुई कमरे से निकली तो उधर से चाय की ट्रे थामे योगेश को आते देख हैरान रह गई।
“आपको तो ऑफ़िस का काम . . . ”
“भई! होममिनिस्टर का मूड नासाज़ हो तो ड्यूटी तो बजानी पड़ेगी न,” योगेश ने विनोदी अंदाज़ में कहा तो वह मुस्कुराए बिना न रह सकी।
“ऋचा कहाँ है?”
“अपने कमरे में।”
“तुम सोम को जगाओ। मैं ट्रे लेकर उसके कमरे में जाती हूँ। आज वहीं चाय पिएँगे”
पत्नी का नरम बरताव देख कर योगेश ठगा-सा कुछ देर मुँह निहारता रह गया।
“अब जाओ भी। चाय ठंडी हो जाएगी।”
शिखा की मीठी झिड़की पाकर योगेश का सोया सपना अँगड़ाई लेकर जागने लगा।
‘लॉक डाउन ने आख़िरकार वह दिन ला ही दिया’ अपनी सोच पर मुस्कुराता योगेश सोम के कमरे की तरफ़ बढ़ गया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
कहानी
- अँधेरी सुरंग में . . .
- गणित
- तलाश
- परित्यक्त
- पाज़ेब
- प्रायश्चित
- बापू और मैं – 001 : बापू का चश्मा
- बापू और मैं – 002 : पुण्यतिथि
- बापू और मैं – 003 : उन्माद
- बापू और मैं–004: अमृतकाल
- बापू और मैं–005: जागरण संदेश
- बापू और मैं–006: बदलते चेहरे
- बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .
- बापू और मैं–008: मकड़जाल
- बेज़ुबाँ
- मस्ती का दिन
- साँझ की रेख
व्यक्ति चित्र
स्मृति लेख
पत्र
कविता
- अधिकार
- अनाथ पत्ता
- एक दीया उनके नाम
- ओ पिता!
- कामकाजी माँ
- गुड़िया
- घर
- ज़ख़्मी कविता!
- पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ
- पिता होना
- बन गई चमकीला तारा
- माँ का औरत होना
- माँ की अलमारी
- माँ की याद
- माँ जानती है सबकुछ
- माँ
- मुझमें है माँ
- याद आ रही माँ
- ये कैसा बचपन
- लौट आओ बापू!
- वह (डॉ. आरती स्मित)
- वह और मैं
- सर्वश्रेष्ठ रचना
- ख़ामोशी की चहारदीवारी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
डाॅ0 धर्मपाल सिंह 2021/11/21 08:21 PM
बहुत ही सधी कहानी। शिखा का परिवर्तन इस कहानी की आत्मा है।