कहावतें पुरानी, नज़रिया लेकिन नया
काव्य साहित्य | कविता - क्षणिका मधु शर्मा1 Jul 2023 (अंक: 232, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
1.
दाँत निकाले हैं पर कहलाए ढीठ नहीं,
पूरे शहर में इससे बेहतर डैंटिस्ट नहीं।
2.
कर दिया इंकार घर की मुर्ग़ी ने पकने से,
दाल बराबर है वो, सुन लिया होगा उसने।
3.
फ़ैशन है तो सोचा सिर मुँड़ाने का,
पड़ने लगे ओले तो वो घबराने लगा,
कहावत यथार्थ न हो उसी पर कहीं,
बदला इरादा नाई के यहाँ जाने का।
4.
क़ब्र में पाँव लटकाये एक बुज़ुर्ग दिखे,
पूछा हमने ‘बाबा कैसे मिज़ाज आपके?’
वह बोले—
जवाँ बीवी फिसल गई इस खुली क़ब्र में,
पहुँच नहीं पा रहे पाँव लटका रहा कब से।
5.
धीमे बोलें दीवारों के भी होते कान हैं,
खुल न जाए भेद कहीं सारे जहान में।
क्यों बोलूँ धीमा चारदीवारी हमारी है,
सुन सकती है परंतु बेज़ुबान बेचारी है।
6.
नज़रें बदले वह अपनी हर रोज़,
ख़त्म हुई डायरैक्टर की खोज।
बारी-बारी बदले कॉन्टैक्ट-लैंस वो,
वारी-वारी जाएँ फ़िल्म-सैट पे लोग।
7.
कहते हैं क्यों टेढ़ी जलेबी उसे,
समझ में आया अब जाके मुझे,
बातें उसकी होतीं चाशनी भरी
बातों में आ जाए सारी नगरी।
8.
लगती है मिर्च तो लगने दें पड़ोसन को,
जल-भुन जाती वो देख मेरी लगन को।
सींचती हूँ पानी से और डाली ढेरों खाद,
लाई थी बीज विदेश से बहुत ही ख़ास।
लग रही हैं मिर्च उस ईर्ष्या की मारी को,
दे दो ‘मधु’ कुछ शिमला मिर्चें बेचारी को।
9.
हमारी आज जो पहचान है,
जुड़ा नहीं किसी का नाम है,
साथ तुम्हारा नहीं इसीलिए,
मिला हमें तभी यह मुकाम है।
10.
भरी गागर छलकत ही जाए,
ढक्कन विनम्रता का लगाएँ,
पीटें न ढिंढोरा ज्ञानी होने का,
आदर आप यदि पाना चाहें।
11.
सोच रही हूँ न जाने कब से
सोचा पूछ ही लूँ आप सब से,
कि
सात चार वगैरह भी ग्यारह होते हैं,
नौ दो ही क्यों फिर ग्यारह होते हैं?
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