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और डायरी प्रेरणा बन गई

ऐक्सिडैंट के बाद लगभग एक महीने हस्पताल में रहने के बाद सरोजिनी को घर जाने की छुट्टी मिल गई। उसने अपने सामान व दवाइयों का बैग समेटा और घर वापस ले जाने आई अपनी इकलौती बेटी के साथ वह वहाँ से छूटकर ऐसी भागी कि कहीं कोई उसे फिर से न रोक ले। 

घर पहुँच कर देखा कि बेटी ने उसका घर अंदर-बाहर से बिल्कुल चमका दिया है। इतने बरसों से अपने सभी कमरे, दरवाज़े वग़ैरह पेंट करने का वह बस सोचती रह गई, लेकिन अकेलेपन की डिप्रैशन से ग्रसित कभी हिम्मत जुटा न पाई थी। बेटी ने कितनी बार समझाया भी था कि उसे एक सप्ताह अपने यहाँ आकर रहने दें तो सामान छाँटने में और वापस टिकाने में उसकी मदद कर देगी। फिर किसी डैकोरेटर को पैसे देकर यह घर ठीक-ठाक करवा लेंगे। 

सरोजिनी जानती थी कि बेटी के ससुराल वाले इस बात के लिए कभी मना नहीं करेंगे। लेकिन बेटी को यही कहकर टाल दिया करती, “दामाद जी का सातों दिन अपने कारोबार में व्यस्त रहना, और तुम्हारा उनके काम में हाथ बँटाने के साथ-साथ सास-ससुर को कभी डॉक्टर के यहाँ, कभी बैंक या कहीं भी ले जाने-लाने की ज़िम्मेवारी . . . मैं तुम्हारी गृहस्थी में किसी भी तरह की रुकावट डालने की सोच भी नहीं सकती।”

इसीलिए तो हॉस्पिटल से आते समय जब बेटी ने बताया कि वह एक सप्ताह रूकने का प्रोग्राम बना कर आई है तो सरोजिनी ने वही ज़िद पकड़ ली कि क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी में तुम्हारे ससुराल वालों की परेशानी के बारे सोच-सोच कर तब तक मैं चिंतित ही रहूँ? 

अपना घर अब इतना सजा-सँवरा देखकर उसके भीतर जहाँ सुखद अनुभूति की लहर दौड़ गई, वहीं यह भी महसूस हुआ कि बेटी ने कम से कम चार-पाँच दिन तो यहाँ बिताये होंगे। चाय पीते हुए उसके यह पूछने पर बेटी ने यह कहकर उसे आश्वासन दे दिया कि, “एक वीकऐंड आकर मम्मी, मैंने अपनी सहेली और उसके डैकोरेटर पति के साथ पूरा सामान टिका दिया। क्योंकि डैकोरेटर जाना पहचाना और भरोसेमंद था तो आपकी चाबियाँ उसे सौंपकर मैं निश्चिंत हो अपनी गृहस्थी में लगी रही।”

यह सुनते ही ‘अभी आई’ कह कर सरोजिनी अपने बैडरूम की ओर तेज़ी से पलटी। कपड़ों की अलमारी खोल एक ड्रौअर में रखे काग़ज़-पत्रों के नीचे रखी अपनी डायरी को बिल्कुल वहीं और सही सलामत पाकर उसकी साँस में साँस आई। बेटी को एक सप्ताह नहीं, केवल एक रात और रुकने का प्यार से समझा-बुझाकर उसे अगले दिन हँसते हुए गले लगाकर विदा किया। 

सरोजिनी हैरान थी कि हॉस्पिटल में उसे कभी यह ख़्याल क्यों नहीं आया कि अगर ऐक्सिडैंट में उसकी जान चली जाती, और उसकी बेटी के हाथ यह डायरी लग जाती . . . तो पिछले चौबिस बरसों में उससे छिपाई गईं ढेरों बातें बेटी का दिल तोड़ देतीं। 

बेटी ने पूरे सप्ताह का खाना बनाकर छोटे-छोटे डब्बों में बंद कर फ़्रीज़र में रख ही दिया था। अत: सरोजिनी ने इस चिंता से मुक्त हो अपनी डायरी को ठिकाने लगाने की ठान ली। लेकिन न जाने क्यों पहले पन्ने को पढ़े बिना न रह सकी। उसने डायरी उस दिन से लिखनी शुरू की थी जब उसे मालूम हुआ कि वह माँ बनने वाली है। 

एक-एक पन्ना करते-करते जब दस-बारह पन्ने पढ़ लिए तो उसने महसूस किया कि उसमें अधिकतर कड़वी यादें ही थीं, जो उसके स्वर्गवासी पति की मार-पिटाई और ससुराल वालों के बुरे व्यवहार से दु:खी होकर वो केवल दो-चार पंक्तियों में लिख दिया करती थी। किसी और से अपना दु:ख न बाँटकर इन पन्नों पे उतार कर वो हल्की हो जाती थी। लेकिन कुछ यादें मीठी-मीठी सी भी . . . जो बेटी के बचपन की तोतली भाषा से लेकर उसके खेल-कूद व पढ़ाई में सबसे आगे होना . . . जिन्हें पूरे पन्ने पर खोलकर लिख देने से वह दुगनी ख़ुशी महसूस किया करती थी। 

सरोजिनी ने निर्णय लिया कि इन मीठी यादों को फाड़ कर वो कूड़ेदानी में नहीं फेंकेगी . . . फेंकेगी तो केवल कड़वी यादों वाले पन्नों को। 

पढ़ते-पढ़ते वह डायरी पतली होती गई। कड़वी यादों से भरे पन्नों को फाड़ कर ज़मीन पर ढेर लगते देख सरोजिनी हैरान थी कि नब्बे प्रतिशत वे बातें तो अब उसे याद भी नहीं रही थीं . . . और बेटी से जुड़ी मधुर यादें या अपनी जॉब से जुड़ी सफलताएँ उसके हृदय के पटस्थल पर यूँ आ-जा रहीं थीं मानो कल की ही बात हो। 

सरोजिनी के मुख पर यह सोचकर अकस्मात्‌ मुस्कान बिखर गई, “मेरे दुनिया छोड़ जाने पर बेटी इन मधुर यादों को पढ़ेगी तो उसके चेहरे पर आई मुस्कुराहट को मैं अभी से देख पा रही हूँ।” 

दूसरे ही पल उसकी सोच ने करवट ले ली, “लेकिन . . . लेकिन मैं हर्गिज़ नहीं चाहूँगी कि उसे उसके पापा का मेरे प्रति दुर्व्यवहार या उनके दूसरी औरतों के साथ सम्बन्ध के बारे मालूम हो। बेटी के दस बरस की होने पर उनके स्वर्गवास होने के बाद मैंने बेटी के दिल में उसके पापा के लिए जो आदर व प्रेम का बीज बोया था, आज वो विकसित हो घने वृक्ष का रूप ले चुका है। यदि बेटी को ये बातें मालूम हो जातीं तो वो हरा-भरा पेड़ पल में ही सूख जाता . . . उस की मनोदशा कैसी हो जाती, एक माँ होने के नाते मुझसे बेहतर और भला कौन जान सकता है!”

सरोजिनी की सोच की लड़ी ऐसी बनती चली गई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी, “रही मेरी बात तो इस डायरी को पढ़ते हुए आज मुझे भी अपने ही उन भूले-बिसरे, कड़वे अनुभवों से वो कुछ सीखने को मिला जो शायद किसी गुरु या पुस्तकों से न मिल पाता। सरोजिनी, तुमने दुनिया का अकेले सामना करते हुए क़दम-क़दम पर ढेरों बाधाओं पर विजय पाई। वही कड़वे अनुभव तो तुम्हें इतना बहादुर बना गये।”

आज सरोजिनी अपने ऐक्सिडैंट की बात भूल-भूलाकर आनंदमय जीवन बीता रही है। वह अपनी डायरी पढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी थी कि जब दुनिया द्वारा खड़ी की गईं इतनी बड़ी-बड़ी अड़चनें उसे याद तक नहीं रहीं, तो यह तो केवल एक ऐक्सिडैंट ही था। जिस प्रकार हर झेले हुए संकट का परिणाम अंत में सकारात्मक ही निकला, वैसे ही अब कभी ड्राइविंग न कर सकने के पीछे अवश्य मेरे लिए कुछ बेहतरी ही होगी। 

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