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चिंता नहीं, चिंतन का विषय

कुछ पाठकों को मेरी बात शायद अटपटी लगे, लेकिन इसे पढ़ने के बाद किसी एक की भी चिंता यदि चिंतन में परिवर्तित हो जाए तो उनका जीवन सुखमय हो सकता है।

हमारे आसपास या हमारे परिचितों ही में हमें कई माता-पिता केवल यही बातें दोहराते सुनाई देते हैं कि किस प्रकार उन्होंने दिन-रात काम करके अपने बच्चों को महँगे से महँगे स्कूल, फिर कॉलेज व यूनिवर्सिटी आदि-आदि भेजा। स्वयं का पेट काट व सालों-साल पुराने कपड़े पहन निर्वाह किया, परन्तु बच्चों को बढ़िया से बढ़िया भोजन, कपड़े, खिलौने इत्यादि की कमी कभी महसूस न होने दी।

कुछ माएँ तो यहाँ तक कहती हैं कि वे सारी परेशानियाँ यही सोच कर सहती रहीं कि जिस बेटे को रात-रात सूखे बिस्तर पर सुला स्वयं गीले पर सोई, उसकी बीमारी में अपनी बीमारी को भूल उसकी दिन-रात सेवा की, मेरा वही बेटा एक दिन मेरे दूध की क़ीमत चुकायेगा। दूसरी तरफ़ पिता दिल ही दिल में सपने सँजोये बैठा रहा कि हमारे बुढ़ापे में यही बेटा हमारी लाठी का सहारा बनेगा। लेकिन जैसे ही वही बेटा बढ़िया नौकरी के चक्कर में उन्हें अकेला छोड़ कहीं दूर दूसरे शहर या दूसरे देश जा बसता है। माँ-बाप के सभी सपने और आशाएँ पंख लगाकर एक पल में ही ग़ायब हो जाते हैं।

यह दुख की बात अवश्य है, लेकिन उन माता-पिता के इस दुख का कारण कौन है? क्या दोष उनके बच्चों का है? जी नहीं, उन बच्चों को आप स्वार्थी तो कह सकते हैं, दोषी नहीं। क्या हम माँ-बाप ने अपने बच्चों के कहने पर उन्हें जन्म दिया था? नहीं! तो उनका पालन-पोषण करना केवल हमारा ही तो कर्तव्य बनता है। हम उनके उज्जवल भविष्य के लिए साधन नहीं जुटाएँगे तो और कौन जुटाएगा? परन्तु यह सब करते हुए बदले में आशा रखना कि आज हम अपने बच्चों की देखभाल इसलिए कर रहे हैं ताकि कल ये हमारी देखभाल कर पाएँ; यह तो उन पर उपकार करने जैसी बात हो गई...और उपकार अपनों पर नहीं, अनजान लोगों पर किया जाता है।

दोषी कोई और नहीं, हम माँ-बाप ही हैं। कर्तव्य निभाते हैं तो साथ ही साथ ढेरों सपने सँजो कर बैठ जाते हैं; उपकार करते हैं तो भूलने की बजाय अपेक्षाओं की पिटारी मन की अटारी पर सँभाल कर रखे रहते हैं। ऐसे में सपने टूटते हैं तो परिणाम में दुख नहीं तो और क्या मिलेगा?

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