वापसी
कथा साहित्य | कहानी मधु शर्मा15 Mar 2023 (अंक: 225, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
पूरे छह महीने अपने बेटे-बहू व दो पोतियों के साथ रहकर कल की फ़्लाइट से मिस्टर व मिसेज़ सिद्धू भारत वापस लौट रहे हैं। पूरे दिन की थकावट के बाद भी आज रात किसी को नींद नहीं आ रही क्योंकि हर कोई अपनी किसी न किसी सोच में डूबा हुआ है।
सात वर्षीय बड़ी पोतीः
दादू और दादी आख़िर वापस क्यों जा रहे हैं? हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहें न। इनके होते मॉम और डैड में कभी कोई बड़ा झगड़ा नहीं हुआ। और दादू ने खेल-खेल में पढ़ाई में मेरा फिर से इन्ट्रस्ट पैदा कर दिया। मुझे नहीं लगता कि सभी के दादू-दादी इतनेअच्छे होते होंगे।
पाँच वर्षीय छोटी पोतीः
मैं अब दादू-दादी के बिना कैसे रहूँगी! दादू हमें हर रोज़ स्कूल छोड़ने और फिर लेने आते थे, जो मॉम-डैड अपनी जॉब पर जाने की वजह से नहीं कर पाते हैं। घर पहुँचने पर दादी हम दोनों बहनों के लिए हमारे मनपसंद का नाश्ता या कोई न कोई नई डिश बना कर हमारा इंतज़ार करती मिलतीं। और रात को सोने से पहले वो मुझे एक लम्बी सी कहानी ज़रूर सुनातीं।
बेटाः
काश मैं मम्मी-पापा को कुछ और दिनों के लिए रोक लेता। मैं तो उन दोनों के साथ कभी अकेले में बैठ कर खुलकर बातें भी नहीं कर पाया। उनके आने का सुनकर रीना ने उन सभी जगहों पे घूमने का प्रोग्राम बना कर रखा हुआ था जो हम दो छोटे बच्चों को साथ ले जाकर कभी अफ़ोर्ड नहीं कर सकते थे। या फिर वीकेंड में मम्मी के होते हुए हम दोनों किसी न किसी दोस्त-सहेली को खाने पे बुला कर दोस्ती का पिछला हिसाब-किताब बराबर करने में लगे रहे।
बहूः
मेरी तो सोच-सोच कर ही साँस फूल रही है कि कल से कैसे गुज़ारा होगा। शाम को काम से आकर पका-पकाया खाना मिलना, वीकेंड में साफ़-सफ़ाई की कोई सिरदर्दी नहीं रही थी क्योंकि सास-ससुर घर हमेशा साफ़-सुथरा रखते। और न ही बच्चों को स्कूल ले जाने या वापस लाने की हम मियाँ-बीवी की आपस में आए दिन की किचकिच। इंडिया के लोग तो यहाँ विदेश में हमेशा के लिए रहने के लिए अपना सब कुछ दाँव पे लगा देते हैं . . . लेकिन ये दोनों हमारी इतनी मिन्नतें करने के बाद भी न जाने क्यों यहाँ रहने को राज़ी नहीं हो रहे?
मिस्टर सिद्धूः
चलो सिद्धू साहब, विदेश में रहकर भी देख लिया . . . लेकिन अपना देश आख़िर अपना ही होता है। दुकानदार से लेकर दूधवाले तक . . . सभी में वहाँ कितना अपनापन . . . और परेशानी बड़ी हो या छोटी, पूरे मोहल्ले का साथ में खड़े होना। दिन भी वहाँ कैसे झट से कट जाता है, मालूम ही नहीं चलता। मगर यहाँ, भई यहाँ तो सभी उल्टा ही है। लेकिन ये प्यारी सी दोनों गुड़िया बहुत याद आयेंगी। अब देखते हैं बेटा-बहू अपना वादा निभाते हैं या नहीं कि हर रोज़ न सही, हफ़्ते में एक बार ये सब फ़ेसटाइम के ज़रिए हमसे बात ज़रूर करेंगे। बस इसी भरोसे मैं ख़ुद को उदास नहीं होने दूँगा।
मिसेज़ सिद्धूः
मेरे आँसू रोके भी क्यों नहीं रुक रहे? इन छह महीनों में कितना कुछ देखा और सीखा, जो शायद मैं पिछले पचपन बरस सीख न पाई थी। चाहे कोई बहुत अमीर हो या ग़रीब, घर से लेकर बाहर तक का काम यहाँ सभी ख़ुद करते हैं। और मैंने भी अब महसूस किया है कि किसी पर निर्भर न रहकर अपना काम ख़ुद करने में बहुत सुकून मिलता है। बड़े-छोटे में यहाँ कोई फ़र्क़ नहीं। और मैं . . . मैं वहाँ भारत में अपनी कामवालियों या ग़रीब लोगों को कुछ समझती ही नहीं थी। यहाँ कोल्हू के बैल की तरह बेटे-बहू का घर-चौका सँभालते हुए अब समझ आई कि हमारे घर में काम करने वालों को अगर हम इज़्ज़त नहीं दे सकते, तो उन्हें कम से कम एक इंसान की तरह अपनी तरह का खाना-पीना तो दे सकते हैं। और सबसे बड़ी बात तो अब जाकर पल्ले पड़ी है कि अपना घर अपना ही होता है क्योंकि जो सुख अपने चौबारे . . .! बहू-बेटा तो अपने कामों में बीज़ी हैं, तो शायद हमें उतना याद न करें . . . लेकिन परियों जैसी हमारी दोनों पोतियाँ, मैं इनके बिना वहाँ बहुत उदास हो जाऊँगी। इनके साथ कब कैसे हँसते-खेलते इतना समय बीत गया, मालूम ही नहीं। अब न जाने कब हम सब फिर से मिलेंगे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि विदेशों में रहने वाले बेटे-बेटियों को दूर-दूर देशों से मिलने आने वाले अधिकतर पेरंट्स की भी यही कहानी हो?
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