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शर्त 

 

“अक्की बेटा, ज़रा देखो तो कौन इतनी दोपहर में गेट की घंटी बजा रहा है?” 

“मम्मी, मैं अपना होमवर्क कर रहा हूँ, शान्ति को बोलें न! नौकर इसीलिए तो रखे जाते हैं न, हमारे आराम के लिए . . . न कि उनके ख़ुद के आराम के लिए!”

“बेटे, वो घर होती तो मैं तुम्हें क्योंकर कहती?” 

सोलह वर्षीय अक्षय मुँह बनाता हुआ फाटक की ओर चल दिया। बैठक में रुक कर उसने खिड़की से झाँका तो बाहर जानी-पहचानी सी शक्ल वाला एक सूटिड-बूटिड व्यक्ति दिखाई दिया। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने पर भी उसे याद नहीं आया कि आख़िर वह है कौन। जब गेट खोलते हुए अक्षय उस व्यक्ति को प्रश्न भरी नज़रों से देख रहा था तो उस आदमी ने हँसते हुए कहा, 
“अक्की बाबा, कैसेऽऽऽऽ हो? अरे इत्ते बड़े हो गये? सात साल पहले तो आप मेरे कंधे तक भी नहीं पहुँचते थे . . .”

“ओह, शंभू भ‍इया तुम? आओ, आओ अंदर आओ न . . . कब लौटे अमेरिका से? . . . मम्मी, मम्मी! देखें न कौन आया है।”

अक्षय की मम्मी भी मेहमान के ठहाके सुन अपना गाउन व बाल सँवारते हुए बैठक में पहुँच गईं। सामने अपने पुराने नौकर को देख बहुत हैरान हुई . . . इसलिए नहीं कि वो बिन बताये अचानक आ गया था, अपितु इसलिए कि सदा अस्त-व्यस्त वस्त्र पहने रखने वाला वही शंभू आज किसी हीरो से कम नहीं लग रहा था। 

हाल-चाल पूछने के बाद शंभू ने बताया कि वह उनकी फ़ैक्ट्री से ही सीधा यहाँ आया है। वहाँ मालूम हुआ कि साहब तो काम से शिमला गये हुए हैं। उनके घर का पुराना फ़ोन नम्बर मिलाने पर लाइन डैड मिल रही थी, और फ़ैक्ट्री में किसी और से उनका नया नम्बर पूछना उसे सही न लगा। इसीलिए उसे यूँ बिन बताये आना पड़ा। 

इतने में अक्षय तीनों के लिए कुछ ठंडा पीने के लिए ले आया। शंभू तब तक अपने साथ लाये बैग को खोलकर ढेरों उपहार निकाल-निकाल कर उसकी मम्मी को दे रहा था। उन्हें देखकर अक्षय की तो आँखें चकाचौंध होकर रह गईं। 

अँधेरा होने से पहले शंभू को अपने गाँव वापस पहुँचना था। इसलिए अक्षय के पापा से अगले सप्ताह मिलने का कहकर वो जिस टैक्सी में आया था, उसी में बैठ गाँव की ओर रवाना हो गया। 

उस दिन से अक्षय का पढ़ाई में ध्यान न लग पाया। पढ़ाई में वह अपने बड़े भाई व छोटी बहन के मुक़ाबले में शुरू से ही कमज़ोर था। और अब पाँचवीं कक्षा फ़ेल शंभू की तड़क-भड़क देख अक्षय ने सोते-जागते विदेश में रहने के सपने देखने शुरू कर दिये। 

छोटे बेटे की विदेश जाने की दिन-रात की ज़िद के आगे घरवालों को भी घुटने टेकने पड़ गये। लेकिन साथ ही उसके पापा ने दो शर्तें भी रखीं। पहली यह कि वह पहले बी.ए. पास कर ले। दूसरी यह कि उसे विदेश भेजने का तो सारा ख़र्चा वो उठा देंगे, परन्तु वहाँ पहुँच कर अक्षय को अपनी पूरी ज़िम्मेवारी स्वयं उठानी पड़ेगी। बाहर जाने की मंज़ूरी मिल गई है, यह सुनते ही अक्षय को तो जैसे पंख लग गये (विमान वाले)। दौड़ कर अपने पापा के हाथ पकड़ लिए और कहा, “चलें पापा, आय ऐक्सैप्ट योर बोथ कंडीशन्ज़ (मुझे आपकी दोनों शर्तें मंज़ूर हैं) . . . और देख लेना, दोनों मैं ही जीतूँगा!”

 विदेश में केवल अमेरिका और फिर अमेरिका में केवल शंभू के अतिरिक्त अक्षय के घरवालों का कोई और जान-पहचान वाला था नहीं। इसलिए जब शंभू से सलाह ली गई तो उसने भी कोई आपत्ति न जताई। उसने मन ही मन हिसाब लगाया कि तब तक अक्षय उन्नीस वर्ष का एक ज़िम्मेवार नवयुवक बन चुका होगा। 

समय बीतते अक्षय ने बी.ए. पास कर अपने माता-पिता की पहली शर्त पूरी कर दी . . . चाहे थर्ड डिविज़न में ही। और फिर वह दिन भी आया जब पासपोर्ट, वीज़ा इत्यादि मिलने में बिन किसी रुकावट का सामना किये वह शंभू के यहाँ अमेरिका पहुँच गया। 

पूरा सप्ताह शंभू के साथ अक्षय कुछ घूमा-फिरा व वहाँ के ठंडे मौसम के हिसाब से गर्म कपड़े इत्यादि भी ख़रीद लिये। विदेश की चमक-दमक उसने फ़िल्मों और टीवी वग़ैरह में देखी तो थी, लेकिन प्रत्यक्ष रूप में वह सब देखकर वो फूला नहीं समा रहा था। 

सप्ताह बाद जिस होटल में शंभू किचन-सुपरवाइज़र था, उसी में उसने अक्षय की भी छोटी सी नौकरी का प्रबन्ध कर दिया। काम था होटल की रसोई में सफ़ाई रखने का . . . यह जानकर अक्षय अचकचा गया, परन्तु शंभू के आश्वासन देने पर कि अमेरिका पहुँचते ही एकदम तो कोई बढ़िया या ऑफ़िस का काम मिलने से रहा, क्योंकि वैसी नौकरी के लिए पहले ऐक्स्पीरीअन्स (अनुभव) होना बहुत ज़रूरी है। और शंभू उसे यह सब इंडिया में भी समझा चुका था लेकिन अक्षय ने विदेश जाने की धुन में उसकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दी थी। 

और फिर बात आई रहने के लिए कोई कमरा ढूँढ़ने की। अक्षय पिछले दस दिनों में यह देख-समझ चुका था कि कब तक रातों को वह शंभू के यहाँ सोफ़े पर सोता रहेगा। उस घर में पहले से ही चार आदमी दो बैडरूम वाले अपार्टमैंट में जैसे-तैसे निर्वाह कर रहे थे। अक्षय तो बचपन से ही बड़े से घर में अपना बड़ा-सा बैडरूम और अलग से स्टडी-रूम का आदी था। 

ले-देकर रहने के लिए उसे एक कमरा भी मिल गया। लेकिन काम से काफ़ी दूर होने के कारण तीन-तीन बसें पकड़ने के लिए अक्षय को सुबह जल्दी घर से निकलना पड़ता, और रात देर गये घर वापसी हो पाती। जो अक्षय हमेशा ए.सी. कार में ड्राइवर या मम्मी के साथ स्कूल-कॉलेज जाता रहा, उसके बिन कहे धुले-धुलाये व प्रैस किए हुए कपड़े उसकी बड़ी सी अलमारी में सलीक़े से टँगे हुए मिलते, खाना जब चाहे व जो चाहे उसे मिल जाता . . . वही अक्षय अब माइनस बीस डिगरी सैल्सियस तापमान में ठिठुरता हुआ कभी तीन-तीन बसों का इंतज़ार, कभी होटल के पिछवाड़े कमर तक के बर्फ़ के ढेर में लुढ़कता-फिसलता हुआ वहाँ रखे हुए बड़े-बड़े कूड़ेदानों में रसोई का कूड़ा-कर्कट रखता हुआ रुआँसा हो चला था। 

एक दिन तो उसके धैर्य का बाँध ही टूट कर रह गया, जब शंभू ने होटल की रसोई के एक कोने में ज़रा-सा कूड़ा देख उसे टोक दिया कि क्या अपनी नौकरी के साथ-साथ उन सभी की नौकरी छुड़वाने का इरादा है। क्योंकि यहाँ थोड़ी-सी भी गंदगी मिलने पर ‘हायजीन स्टैंडर्ड एजेंसी’ वाले आकर उसी पल होटल बंद कर सकते हैं। अक्षय से कहते न बना कि वह तो बस ज़रा सा आराम करने के लिए यूँ ही कोने में बैठ गया था। उसे आज अपनी ही कही बात याद गई कि “नौकर इसीलिए तो रखे जाते हैं न, हमारे आराम के लिए . . . न कि उनके ख़ुद के आराम के लिए!”

और रही उस थोड़े-से वेतन से निर्वाह करने की बात, तो खाने-पीने का सामान, कमरे का किराया, बसों का किराया, टॉयलैट्रिज़ (प्रसाधन का सामान) आदि आदि पर ख़र्च करने के बाद अक्षय के हाथ कुछ भी तो नहीं बच पाता था। रिसैशन होने के कारण कोई दूसरी आसान-सी नौकरी मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। 
एक दिन अक्षय ने अपने पापा को झिझकते हुए फ़ोन कर ही दिया, “पापा . . . पापा, आय'म सॉरी! मैं आपकी दूसरी शर्त हार गया। तीन महीने बीत चले और मैं . . . मैं यहाँ अपनी ज़िम्मेवारी निभा नहीं पाया। वापस आना चाहता हूँ . . . आपके बिज़नस में आपका पूरा हाथ बटाऊँगा, यह मेरा आपसे और मम्मी दोनों से प्रॉमिस है।”

अक्षय ने जब अपना फ़ैसला शंभू को सुनाया तो वह मन ही मन यही सोचता रह गया, “काश! यह बात दूसरे बच्चों की भी समझ में आ जाये कि विदेश में रहने के चाव में हवाई क़िले बनाना एक अलग बात है, लेकिन उन्हें हक़ीक़त में बदलना अक्षय जैसे अमीर घरों में पले बच्चों के बस की बात नहीं . . . हाँ शायद, दो-एक को छोड़कर।”

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