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जिह्वा व मन

“उसकी जीभ तो काली है; देखो कैसे कैंची की तरह ज़बान चल रही है; फूहड़ ज़बान वाले; कड़वी ज़बान; बेलगाम जीभ को क़ाबू में रखो; बिन हड्डी वाली निगोड़ी; चटोरन” आदि, आदि। अपने बारे में ऐसा सुनते-सुनते जिह्वा बहुत दु:खी हो चुकी थी सो मन के पास पहुँच गई। रुआँसी हो उससे बोली, “सदियों से तुम्हारे कारण मुझ पर लांछन पर लांछन लगाये जा रहे हैं . . . अब और सहन नहीं होता।” 

“मेरे कारण?” मन ने आश्चर्यचकित हो पूछा।

“हाँ! क्योंकि तुम जब चाहो, जैसा चाहो क्या खाना-पीना, क्या बोलना है इत्यादि के लिए मनुष्य से अपनी बात मनवा लेते हो। मैं तो मात्र साधन हूँ। जैसे चाकू से कोई घायल हो जाये तो क्या दोष चाकू का होता है? चाकू तो मात्र साधन है, दोषी तो उसे चलाने वाला है, है न?”

यह सुनकर मन बहुत शर्मिंदा हुआ और तभी से उसने अपने ऊपर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया।

हम सभी जानते हैं कि हमारी पाँच बाह्य इन्द्रियाँ हैं: रूप, स्पर्श, शब्द, गंध, व रस। कभी-कभी बाहरी तत्त्वों के हस्तक्षेप के कारण पहली चार इन्द्रियों पर मन का ज़ोर नहीं चल पाता। उदाहरणतः कोई अद्भुत या अश्लील दृश्य, या स्पर्श, कोई मधुर या बेसुरा संगीत/शोर, या फिर कोई सुगंध या दुर्गन्ध। परन्तु रस, जिसका संबध जिह्वा से है, उस पर मन का पूर्णतया नियंत्रण रहता है कि कैसा, कब, क्या बोलना, खाना-पीना चाहिए। इसलिए हमें जिह्वा की बजाय मन पर नियन्त्रण रखना होगा। तभी तो वह सीधे रास्ते पर आ पाएगा।

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