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हत्यारे सा चेहरा

 

“बच्चों, ज़रा जाकर देखो तो सही कौन बैल बजा रहा है? मेरे हाथ आटे में सने हुए हैं . . . और हाँ, अगर वो कोई सामान-वामान बेचने वाले हुए तो साफ़ मना कर देना।”

जानवी के छह व सात वर्ष की आयु के दोनों बेटे अपनी लूडो की खेल बीच में ही छोड़ आपस में दौड़ लगाते हुए जिस तेज़ी से दरवाज़े की ओर लपके थे, उसी तेज़ी से वापस आकर हाँफते हुए बोले, “मम्मी, मम्मी! कोई अंकल हैं जो आपका ही पूछ रहे हैं। अन्दर बुला लें?” 

“नहीं, तुम लोग वापस छज्जे में जाकर अपनी गेम पूरी करो, मैं देखकर आती हूँ,” कहते हुए जानवी हाथ धोकर अपने दुपट्टे को सही करती हुई अपने उस एक कमरे-रसोई वाले किराए के छोटे से घर के दरवाज़े की ओर चल पड़ी। 

वहाँ लगभग बाईस-तेईस उम्र के एक अजनबी नौजवान को खड़ा देख वह भौंचक्की रह गई . . . उस युवक का चेहरा उस वहशी हत्यारे से बहुत मिलता-जुलता था, जिसने पिछले ही महीने उसकी आँखों के सामने धर्म के नाम पर दिन-दहाड़े उसकी माँग का सिंदूर मिटा दिया था। और एक ही पल में उसके दो छोटे-छोटे बच्चों के सिर पर से पिता का साया सदा के लिए छीन लिया था। 

उस दिल दहला देने वाले दृश्य को रात-दिन भुलाने की कोशिश में जानवी उस अजनबी के सामने कमज़ोर दिखाई नहीं देना चाहती थी। लेकिन फिर भी अपने पति के क़ातिल के चेहरे की याद आते ही लड़खड़ा गई और इससे पहले कि वह गिर पड़ती, उसने झट से दरवाज़े का कोना पकड़ा और सँभल गई। 

“मैं . . . मेरा नाम कृष्ण है। माफ़ कीजिएगा जो आपको सूचित किए बिना मैं यूँ चला आया। वैसे अगर ख़त लिखकर आपसे मिलने की इजाज़त लेने की कोशिश करता भी, तो आप बिलकुल भी राज़ी न होतीं . . .। सिर्फ़ और सिर्फ़ पाँच मिनट आप से बात करना चाहता हूँ। अगर अंदर आने को कहेंगी तो आराम से अपने आने का मक़सद बता पाऊँगा।”

जानवी हिम्मत जुटाकर कड़े शब्दों में बोली, “माफ़ कीजिए, यह मुमकिन नहीं . . . क्योंकि इस वक़्त घर में कोई पुरुष नहीं है . . . आपने जो कहना है यहीं कह दीजिए।”

कृष्ण ने जानवी के रूखे व्यवहार का बुरा न मानते हुए सिर झुकाए हुए अपनी बात वहीं खड़े-खड़े कहनी आरम्भ कर दी, “मेरी शक्ल देखकर आपका यूँ चकरा जाना स्वाभाविक है। बदक़िस्मती से मैं उस निर्दयी बाप का इकलौता बेटा हूँ जिसने अपने मज़हब की आड़ लेकर आपको और आपके छोटे-छोटे बच्चों को बेसहारा कर दिया। आप मेरा यक़ीन करें . . . जैसे ही उसकी व उसके साथियों की करतूत मेरी माँ और बहन ने जब मुझे फ़ोन पर बताई तो मैं उसी वक़्त अपनी दुकान बन्द कर भागता हुआ अपने घर पहुँचा। टीवी पर वही समाचार देखने के बाद दुखी मन से शाम को नज़दीक वाले मंदिर में जाकर अपने बाप का धर्म छोड़कर मैंने हिंदू धर्म अपना लिया . . . और अपना नाम भी बदल लिया। क्योंकि मैं उस धर्म को कैसे अपनाये रखता या ऐसे दुष्ट बाप के सिखाये उसूलों का कैसे पालन कर पाता जो जिहाद के नाम पर बेगुनाहों को बेदर्दी से मार डालना पुण्य समझता है . . . क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे उसके मज़हब के नहीं हैं?

“मेरा बाप तो तभी से अपने उन डरपोक साथियों के साथ कहीं छुपता-छुपाता फिर रहा है लेकिन उसे उसके फोन पर मैंने अपने हिन्दू बनने की ख़बर दे दी थी . . . और यह भी कि मैंने यह क़दम उसी के वहशीपन के कारण उठाया है . . . यह देखिए अख़बार में उसके नाम का मेरा दिया गया नोटिस कि मेरा उससे अब कोई नाता नहीं रहा। 

“लेकिन मेरी माँ के साथ-साथ मेरी इकलौती बहन ने भी, जो मुझसे छोटी है, आपके घर का पता लगवाने में इस पूरे महीने मेरा बहुत साथ दिया। मेरी बहन ने ही मेरे लिए ‘कृष्ण’ नाम भी यह कहकर चुना कि, ‘भाई! भगवान कृष्ण धर्म का यह नाश होते देख न जाने कब धरती पर आयें, लेकिन आप ऐसा कुछ न कुछ कर दिखायें जिससे हमारे बाप जैसे गुनाहगारों को कुछ तो सबक़ मिले, मेरी बस यही दुआ है’।”

दीवार का सहारा लेते हुए कृष्ण ने अपनी काँपती टाँगों और आवाज़ को संयत किया और अपनी बात जारी रखते हुए बोला, “अब एक सबसे ज़रूरी बात मुझे आपसे यह कहनी है कि मुझे मालूम है कि आपके आगे-पीछे कोई नहीं, न ही मायके से और न ही ससुराल से . . . भइया के बाद आप बच्चों को अकेले कब तक और कैसे पालेंगी? तो मैंने फ़ैसला किया है कि यह घिनौना काम जो मेरे बाप और उसके साथियों ने किया है तो उसकी भरपाई भी मैं ही करूँगा। उसके लिए बस आपकी मंज़ूरी चाहिए।” 

अभी तक तो कृष्ण अपनी नज़रें नीची किए बोल रहा था, लेकिन अब उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया और जानवी से बोला, “मैं आपका भाई बनकर, आपके घर के ही नज़दीक एक घर लेकर अपनी माँ और बहन के साथ-साथ आपकी व आपके दोनों बच्चों की पूरी ज़िम्मेदारी निभाना चाहता हूँ . . . मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि अपना यह फ़र्ज़ पूरा करने के लिए मैं पूरी उम्र शादी भी नहीं करूँगा। दीदी! आप मेरी इस प्रार्थना को अगर स्वीकार नहीं करेंगी तो जान लीजिएगा कि मेरे और मेरी बहन की तरह दूसरे लड़के-लड़कियाँ अपने बाप-भाइयों की, जो अपनी आँखों पे पट्टी बाँध आये दिन मज़हब के नाम पर ऐसे-ऐसे शर्मनाक गुनाह करने पर तुले हुए हैं, तो वो कभी भी उनकी अक़्ल ठिकाने न लगा पायेंगे! 

“अच्छा तो दीदी . . . अब आपसे इजाज़त चाहूँगा। यह है मेरा पता और टैलीफ़ोन नम्बर . . . आराम से सोचकर मुझे अपना फ़ैसला बता दीजिएगा। अपना नहीं तो इन बच्चों का ज़रूर सोचिएगा।”

जानवी के लगातार टपकते आँसू जो पहले से ही रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, उस फ़रिश्ते के रूप में आये कृष्ण के जाते ही, बाँध तोड़ कर बह निकल पड़े। कुछ पल बाद उसने ख़ुद को सँभाला और आँसुओं को पोंछ, पिछले पूरे माह से बेटों के भविष्य के बारे दुविधा में जकड़ी अब वह निश्चिंत हो, भोजन बनाने के लिए रसोई की ओर चल पड़ी। 

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