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सती व सीता नाम प्रचलित क्यों नहीं? 

 

यद्यपि सती व सीता अत्यंत मधुर व अर्थपूर्ण नाम हैं, लेकिन जब किसी कन्या के नामकरण की बात आती है तो ये नाम इतने प्रचलित नहीं। सती का अर्थ है साध्वी या पतिव्रता, और सीता वह कूँड़ (रेखा) होती है जो ज़मीन जोतते हुए हल की फाल के धँसने से भूमि में बनती चली जाती है। (हम सभी यह जानते ही हैं कि सीता जी का नाम इसीलिए सीता रखा गया क्योंकि जुती हुई भूमि की कूँड़ में से वह उत्पन्न हुई थीं)। 

कन्याओं के ये नाम न रखने का कारण यही रहा होगा कि इन दोनों देवियों के जीवन के अंतिम क्षण का प्रसंग बहुत मार्मिक है, जो हम सभी जानते ही हैं। फिर भी जो कुछ घटित हुआ वह संक्षिप्त में यह था कि माता सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में बिन निमंत्रण मिले वहाँ जाने का अपने पति भगवान शिव से हठ करने लगीं। पति के समझाने पर भी जब वह नहीं मानी तो भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। मायके पहुँच कर अपने पिता के मुख से भगवान शिव के प्रति अपमानजनक बातें सुनकर सती को जब अपनी भूल का बोध हुआ तो वह आत्मग्लानि से भर गईं। और पिता द्वारा आयोजित यज्ञ कुंड की अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे डाली। 

दूसरी ओर माँ सीता ने प्रथम अवसर पर अपने पति भगवान राम द्वारा मिले आदेश को सहर्ष स्वीकार कर यद्यपि अग्नि-परीक्षा दे डाली, परन्तु माँ सीता के दूसरी बार के वनवास के पश्चात वही आदेश दोहराते हुए कहीं उनके पति को लज्जित न होना पड़े, तो माँ सीता स्वयं ही पृथ्वी में समा गईं। 

एक देवी ने अपने पति के सुझाव का आदर नहीं किया और प्राण त्याग बैठीं तो दूसरी देवी अपने पति की मान-मर्यादा हेतु अपने प्राणों का बलिदान दे बैठीं। अब कौन से माता-पिता चाहेंगे कि उनकी कन्याओं का अंतिम क्षण वैसा ही दुखद हो। सम्भवतः इसीलिए ये नाम एक प्रकार से वर्जित माने गये हों। 

इस संदर्भ में मेरा यह चिंतन यदि किसी पाठक को अनुचित लगा हो तो उसके लिए मैं क्षमा माँगती हूँ। और यदि कोई भी पाठक इसमें कुछ और जोड़ना या सकारात्मक आलोचना करना चाहे तो स्वागत है। 

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