टोका-टाकी
कथा साहित्य | कहानी मधु शर्मा1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
(बड़े-बूढ़ों का दुनियादारी के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षों से अर्जित किया हुआ अनुभव आजकल के युवाओं के साथ साझा करना टोका-टाकी कहलाया जाता है। इसमें हम दोषी किसे ठहरायें . . . तकनीकी क्षेत्र में विशेषज्ञ नयी पीढ़ी को या फिर अनुभवी पुरानी पीढ़ी को?)
“आर्यन बेटे, तुमने देखा तो था कि उन्होंने हमारे लिए ढेर-सा खाना बनाया हुआ था। लंच पर अब वे हमारा इंतज़ार कर रहे होंगे . . . और तुम ज़िद्द पे अड़े हो कि वहाँ नोएडा वापस न जाकर हम दोनों सीधा मीटिंग के बाद यहीं दिल्ली से जयपुर अपने घर की ओर रवाना हों जायेंगे।”
“डैडी, घर-घर में फ़्रिज होने के कारण आजकल खाना ख़राब कहाँ होता है। आप बेकार में चिन्ता कर रहे हैं . . . वो लोग कल उस बचे हुए खाने को इस्तेमाल कर लेंगे। बुआ तो वैसे भी एक दाना तक वेस्ट नहीं होने देतीं।”
“लेकिन दीदी यानी तुम्हारी बुआ क्या सोचेंगी? यही कि हम दोनों ने लंच तक पहुँच जाने का उनसे झूठा बहाना बनाया! ऊपर से प्रॉपर बाय कहे बिना उन्हें यूँ ही उनकी सहेली के यहाँ छोड़कर हम खिसक लिए?”
“कुछ नहीं होता, डैडी! उन आंटी ने ही सुझाव दिया था कि बुआ अपनी फ़्लाइट के एक दिन पहले उनके यहाँ आ जायें . . . फिर वहीं से एयरपोर्ट जाना आसान हो जाएगा। न कि जयपुर से पहले तो कार का पाँच घंटे का सफ़र और फिर आगे इंग्लैंड की नौ-दस घंटों की लम्बी फ़्लाइट। मेरे दिमाग़ में तभी यह बात आई . . . और आपको और बुआ को मनवा लिया कि क्यों न हम उन्हें दिल्ली वाली अपनी बिज़नेस-मीटिंग वाले दिन ही नोएडा छोड़ आयें। और डैडी, क्या एक दिन पहले, क्या चार-पाँच दिन पहले . . . एक ही बात है। इस तरह वह अपनी सहेली से खुलकर मिल-मिला लेंगी और कुछ शॉपिंग भी कर लेंगी। क्योंकि आपकी बिगड़ती तबियत देखते हुए और मेरे नये-नये बिज़नेस में मेरा बीज़ी होने की वजह से न तो वो कहीं घूमने जा पाईं और न ही इंग्लैंड वालों के लिए कोई गिफ़्ट ही ख़रीद पाईं। सबसे बड़ी बात कि हमारा बचाव भी हो गया,” आर्यन की वाणी में स्वार्थ घुली हँसी भरी हुई थी।
“हमारा बचाव? कैसा बचाव? यार खुलकर बात करो।”
“देखिए डैडी, वहाँ वापस जाकर हम दोनों लंच वग़ैरह करते तो कुछ घंटे रुकना पड़ता। आपकी नेचर को जानते हुए कि अगर आपके मुँह से मेरी शादी की तारीख़ की बात निकल जाती तो बुआ इंग्लैंड जाते-जाते ज़रूर रुक जातीं . . . कि जहाँ तीन महीने रुकी, शादी अटैंड करने के लिए दो माह और रुक जाती हूँ। मैं आपको पहले भी अपना फ़ैसला सुना चुका हूँ कि मैं नहीं चाहता कि बुआ मेरी शादी तक रुकें और तैयारियों में अपनी टाँग अड़ायें।”
“लेकिन तुम्हें यह भी मालूम है बेटा कि अपनी विधवा दीदी को मैंने ही मिन्नतें करके यहाँ बुलाया था। खाना बनाने और सफ़ाई आदि के लिए चाहे हमारे यहाँ एक अच्छी कुक और एक मेड है, फिर भी घर में कोई औरत न होने की वजह से तुम्हारे रिश्ते के लिए लड़की व उसका घर-बार देखने या किसी पार्टी को घर पर बुलाकर उनसे बातचीत करने में हम दोनों को अकेले कितनी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा था। और दीदी के आते ही पहले से ही मेरे चुने हुए ढेरों रिश्तों वाली सभी पार्टियों से पूरी पूछताछ व बातचीत भी हो गई। तभी तो पहली ही लड़की देखने के बाद तुम्हारी ‘हाँ’ भी हो गई . . . और फिर दीदी की मदद से तुरन्त ही चार रिश्तेदारों को बुलाकर आराम से तुम्हारे ‘रोक’ की रस्म भी हो गई। मेरा हाथ तो लकवे की वजह से काम नहींं कर रहा तो कल ही उनके साथ बैठकर मैंने शादी में इन्वाइट करने के लिए मेहमानों की लिस्ट भी लिखवा ली। मेरी आत्मा अब मुझे बार-बार कोस रही है कि इसका मतलब यही हुआ कि दीदी के साथ हमने ‘दूध में से मक्खी निकाल कर दूध इस्तेमाल करने’ वाली बात कर दी।”
“लेकिन डैडी, आप अगर मेरी तरह सोचेंगे तो आपको गिल्टी फ़ील नहीं होगा। बुआ शादी के लिए रुक जातीं तो मेरे दोस्तों और उनकी वाइफ़ के किये अरेंजमैंट पर शायद टोका-टाकी करतीं . . . मैं वो सहन न कर पाता।”
अपने पिता को बोलने का अवसर दिये बिना आर्यन ने अपनी बात जारी रखी।
“आपने देखा ही है कि हम सभी दोस्त एक दूसरे की शादियों पर भाग-दौड़ और सारा इंतज़ाम कर-करके ऐक्सपर्ट हो चुके हैं। उन सभी की वाइफ़ भी अलग-अलग ड्यूटी सम्भाल लेती हैं कि दुलहन के लिए क्या-क्या शॉपिंग; कपड़े-लत्ते और ज़ेवर या क्या लेन-देन कहाँ कब कैसे करना है। वे सभी भी उसमें पूरी तरह से माहिर हो चुकी हैं। ऐसे में बुआ के रहते कहीं उनकी दख़लंदाज़ी की वजह से हमारे बीच भी कहासुनी हो जाती तो मेरे साथ-साथ आपका मन भी दुखी होता। आपकी सेहत वैसे भी दिन-ब-दिन गिरती ही जा रही है। शादी तक आपका स्टेबल रहना हम सभी के लिए बहुत ज़रूरी है। है न! . . . बुआ तो वैसे भी बिना चूँ-चाँ किए दो माह बाद दुबारा फ़्लाइट लेकर शादी पर आ ही जायेंगी। बिलकुल वैसे, जैसे दो-एक बार इंडिया में छुट्टियाँ बिताने के बाद उन्हें इंग्लैंड लौटे सिर्फ़ दो-तीन महीने ही हुए थे लेकिन दादू और फिर मम्मी की डैथ पर उन्हें दोनों दफ़ा दो-तीन माह के अंदर ही यहाँ वापस आना पड़ गया था।”
बेटे की यह दलील सुनकर आर्यन के पिता शान्त हो गये।
परन्तु दो महीने बाद धूमधाम से हुई उस शादी पर बुआ पहुँच न पाई . . . उसका स्वास्थ्य इंग्लैंड लौटते ही कुछ ढीला-सा हो गया था। वहाँ पहुँचने के तीन दिन पश्चात ही आर्यन के पिता ने विवाह की तिथि अपनी बहन को फ़ोन करके सूचित कर दी। बुआ ने तभी निर्णय कर लिया था कि चाहे वह विवाह के दो सप्ताह पहले ठीक हो भी जाये, लेकिन क्या मालूम कि वहाँ भारत में तबियत फिर से बिगड़ जाए! ऐसे में उसके बीमार भाई की घबराहट तो बढ़ेगी ही, लेकिन शादी पर आये मेहमानों का भी मज़ा किरकिरा हो जायेगा।
अब रही रोकने-टोकने वाली बात . . . बुआ ने ऐसा तो स्वप्न में भी सोचा न होगा। उसका अपना इकलौता छोटा भाई और इकलौता भतीजा क्या जानें कि उसने तो अपने दोनों बेटों की शादी में भी अपना केवल पैसा ही लगाया था। उन पैसों से सारा इंतज़ाम, शॉपिंग से लेकर हॉल व केटरर तक का, बेटों ने अपनी मंगेतरों व अपने मित्रों के साथ मिल-मिलाकर ही किया था। जब माँ होते हुए भी उसने वहाँ कोई आपत्ति नहीं उठाई तो अपने भतीजे की शादी पर वह उसके दोस्तों व उनकी पत्नियों द्वारा किये गये प्रबन्धों को लेकर टोका-टाकी क्यों करती!
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