अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

चरित्रहीन 

 

चन्दा अपनी चौथी सन्तान को जन्म देते हुए चल बसी। डॉक्टरों के साथ-साथ उसके सीधे-सादे पति ने भी उसे बहुत समझाया था कि बच्चा गिरा दो। 

पति आये दिन दुहाई देता था, “देखो भाग्यवान! तुम्हें तो ईश्वर ने पहले से ही इतने हृष्ट-पुष्ट तीन-तीन बच्चों की ख़ुशियाँ दे रखी हैं तो हमें कमी किस बात की है? मेरी न भी सुनो लेकिन डॉक्टर की बात को तो समझने की कोशिश करो! एक तो तुम शुगर की रोगी . . . ऊपर से तुम्हारी उम्र भी चालीस की हो चली है, और फिर छोटे बेटे की डिलीवरी के समय भी तुम दोनों को ही कितनी परेशानी हुई थी। इसलिए अपनी व आने वाले बच्चे की जान की दुश्मन क्यों बन रही हो!”

उनके 12 वर्षीय छोटे बेटे को तो इतनी समझ न थी परन्तु जब से माँ के गर्भवती होने का समाचार महल्ले व रिश्तेदारों में आग की तरह फैला तो शर्म में डूबा बड़ा बेटा जो 18 का होने वाला था व 16 बरस की बेटी ने अपने दोस्तों व सहेलियों से मिलना-जुलना बन्द कर दिया था। 

परन्तु गाँव में पली-बड़ी चन्दा, शहर में इतने बरसों रहने के बावजूद भी अपना व परिवार का भला सोचने की बजाय, डॉक्टर व पति की सोच को पाप समझती थी। उसका मानना था कि बच्चे तो भगवान की देन होते हैं सो वह चाहे तो जीवन प्रदान करे या वापस ले ले। इन्सान को तो केवल प्रभु की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानकर जीवन बीताना चाहिए। 

परिवार वालों ने रोते-कलपते जैसे-तैसे चन्दा का अन्तिम संस्कार किया। क्रिया-कर्म के अगले दिन जब सभी अपने-अपने घरों की ओर रवाना हो गये तो बच्चों की इकलौती बुआ भाई से आग्रह करने लगी, “भइया, आप इस नन्ही जान को कैसे पालेंगे? बेटों के यह बस की बात नहीं . . . और बड़ी है तो समझदार लेकिन उसे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अब घर का चौका-बर्तन भी सँभालना होगा न। इसलिए वह बेचारी भी कहाँ और कब तक इस नवजात को पाल पायेगी। और फिर दो-तीन साल में उसकी पढ़ाई पूरी होते ही वह ब्याहने लायक़ भी हो जायेगी, तब क्या करोगे?” 

चन्दा के पति ने अपनी उदास आँखों से बहन की ओर ताकते हुए पूछा, “फिर तुम ही बताओ क्या करूँ? मेरा दिमाग़ तो वैसे ही काम नहीं कर रहा . . . यही सोच-सोचकर मेरा दिल बैठा जा रहा है। काश तुम्हारी भाभी ने हमारी बात मानी होती तो . . .”

चन्दा की ननद ने हिचकिचाते हुए अपनी वाणी धीमी कर भाई के काँधे पर हाथ रखते हुए कहा, “आप कहें तो . . . भइया आप चाहें तो इसका एक हल है। आप तो जानते ही हैं कि मेरा दूसरा बेटा एक बड़े ऑपरेशन के द्वारा ही हो पाया था। उस समय मेरी जान बचाने के लिए आपके बहनोई को डॉक्टर के सुझाव पर मेरा भी ऑपरेशन करवाने पर राज़ी होना पड़ा था। आपको याद होगा कि मैं किस तरह बेटी के चाव में अपने दूसरे बेटे के समय प्रार्थना करती थी कि मुझे बेटी ही हो। क्या मालूम मेरी वह इच्छा उस समय इसीलिए पूरी न हुई हो क्योंकि आपकी यह गुड़िया हमें . . . यानी कि हम गोद लेना चाहते हैं। मेरे ससुराल वाले भी कल यहाँ से वापस जाने से पहले ख़ुशी-ख़ुशी अपनी सहमति दे गये थे। बस आप हाँ कर दें तो!”

नवजात बच्ची के बाबा ने अपने तीनों बच्चों की ओर देखा तो उन्होंने भी धीरे से सिर हिलाकर अपनी हामी भर दी। बड़ी यह देख-सुन कर अपनी बुआ के गले लगकर रोने लगी। उसने बुआ को अपनी बहन सौंपते हुए रोते हुए कहा, “आप सभी को सही लगे तो जो नाम मैंने इसके लिए सोचा है . . . माँ का नाम चन्दा तो चन्दा से जो पैदा हुई यह चाँदनी है।” 

यह सुन उस दुख भरे वातावरण में इतने दिनों बाद सभी के चेहरे पर पहली बार हल्की सी मुस्कान दिखाई दी। बुआ की तो बरसों की मुराद आज पूरी हो गई थी व चाँदनी को लेकर उस दुखी परिवार में जो अनिश्चितता के बादल मंडराये हुए, उनके छँटने पर जैसे सभी को एक राहत सी मिल गई। 

♦    ♦    ♦

चाँदनी को बुआ व उनके ससुराल वालों से पहले ही दिन से इतना लाड़-दुलार मिला जो शायद उसे अपने माँ-बाप के घर भी न मिल पाता। और तो और बुआ के चाल वाले भी गोल-मटोल गुड़िया की तरह ठुमकती उस बच्ची को पुचकारते न थकते। आख़िर क्यों नहीं! वह इतनी प्यारी जो थी, बिल्कुल अपने नाम की भाँति। काले घुँघराले घने केश के बीच चमकता हुआ गोरा-गोरा गोलमोल मासूम सा चेहरा और सदा कौतूहल भरे काले विशाल नयन। 

तो क्या उसकी मासूमियत या फिर उसकी सुन्दरता ही उसकी दुश्मन बन बैठी? अक्सर देखने व सुनने में आया है कि या तो बुज़ुर्ग, जिन्होंने दुनिया देखी है, या वो भाग्यशाली जिन्होंने दुनिया घूमी है या फिर जिन्हें जन्म से ही ऐसी घुट्टी पिलाई गई हो कि लोगों को वे झट से परखने में माहिर होते हैं . . . परन्तु चाँदनी ऐसी कोई कला सीख न पाई, जैसे कि औरों की बातों में या जल्द किसी के बहकावे में न आना, अच्छे-बुरे में अन्तर न कर सकने वाली। यानी कि नासमझ व इतनी भोली कि आजकल के व्यवहार में ऐसे व्यक्ति को 'बेवक़ूफ़' का नाम दिया जाता है। 

ऊपर से पढ़ाई के मामले में चाँदनी हर परीक्षा कठिनाई से ही पास कर पाती। उसके पीछे दिल दहलाने वाला एक कारण छुपा हुआ था। 

सात-आठ बरस की वह मासूम बच्ची अपने पिता तुल्य फूफा की हवस का शिकार बनना शुरू हो गई थी। वह उसे यह कहकर डराता, “यह तुम्हारी व मेरी सिक्रट गेम (गोपनीय खेल) है। यदि अपनी बुआ या किसी को भी इसके बारे बताओगी तो तुम्हारी बुआ की मौत हो जायेगी।” और बेचारी चाँदनी . . . वह उस नेक बुआ की मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहती थी जो उसे एक माँ से भी बढ़कर पाल-पोस रही थी। 

इस कुकर्म के चलते जब चाँदनी दस-ग्यारह साल की हुई तो बुआ की ही चाल में रहने वाले एक गुंडे ने एक रात फूफा की यह बुरी हरकत देख ली। अब वह चाँदनी को धमकी देने लगा कि यदि वह सबकी नज़रें बचाकर दिन में एक बार उसकी खोली में न आई तो वह फूफा व उसका ‘खेल’ सभी के सामने खोल देगा। 

यौवन में क़दम रखते ही चौदह-पन्द्रह की आयु वाली लावण्य से भरपूर चाँदनी पर उनकी चाल के सामने ही वाली कोठी में नये-नये आये एक धनी लड़के की नज़र उस पर पड़ी तो वह अपनी सुध-बुध खो बैठा। स्कूल आते-जाते जब कभी चाँदनी को अकेला पाता तो उसके पीछे फ़िल्मी गीत गाता, प्यार के झूठे वादे और मरने-जीने की क़समें खाता . . . चाँदनी घबरा भी जाती परन्तु किसी नौजवान को अपनी ओर इतना आकर्षित देख मन ही मन उत्सुक भी होती। 

एक दिन उस अमीरज़ादे ने चाँदनी को अकेले में देख रोक लिया और पूछा कि उसके ढेरों प्रेम-पत्रों का एक भी जवाब उसने क्यों नहीं दिया। क्या वह चाहती है कि अब से वह उसके पीछे न आये? तो डरते-डरते चाँदनी ने उसे गुंडे के बारे बताया कि यदि उसे मालूम हो गया तो वह हम दोनों को जान से मार डालेगा। 

उस अमीर लड़के ने उसे तसल्ली दी कि डरो नहीं, वह सब सम्भाल लेगा। और वास्तव में न जाने उसने उस गुंडे से क्या कहा या लिया-दिया कि वह रातों-रात ही चाल छोड़ चलता बना। जब उस गुंडे से जान छूटी तो चाँदनी इतने वर्षों बाद चैन की साँस ले पाई। फूफा तो तीन वर्ष पहले लकवे का शिकार हो बिस्तर से लग गये थे। चाँदनी को लगा भगवान को अंत में उस पर दया आ ही गई।

अब उस नौजवान से छुप-छुपकर मिलने से उसे लगा जैसे उसका खोया बचपन लौट आया है। और फिर मिलने पर अपने बारे ढेरों नई-नई प्रेम भरी बातें सुनना जो आज तक किसी ने उससे कभी नहीं कही थीं, “तुम तो चाँदनी से भी ज़्यादा सुन्दर हो, क्योंकि वह तो रात को ठंडक पहुँचाती है और वह भी सिर्फ़ चाँद निकलने पर जब आसमान साफ़ हो . . . लेकिन तुम्हें देखते ही दिन में सूरज की तपन भी चाँदनी की ठंडक सी महसूस होती है। और सुनो, मेरी जान-पहचान के बहुत से फ़िल्मी-डायरेक्टर हैं। देखना, मैं जल्द ही तुम्हें उनके यहाँ मुम्बई ले जाऊँगा, और देखते-देखते तुम बहुत बड़ी हिरोइन बन जाओगी...फिर तो मेरे माता-पिता भी हमारी शादी के लिए मान जाएँगे।" इत्यादि इत्यादि। ये थे तो किसी घटिया फ़िल्म के घटिया डायलॉग परन्तु मासूम चाँदनी इन सब से अनजान थी।

और वही हुआ जो अपने मार्ग से भटकी हुई इस आयु में लड़कियों के साथ होता आया है। वह लड़का अचानक जैसे उसके जीवन में आँधी की भाँति आया था, वैसे ही अचानक उसके सपने, उसका सब लूट कर अलोप हो गया। मुम्बई के सपने देखते-देखते चाँदनी हिरोइन तो क्या बन पाती, हाँ गर्भवती अवश्य हो गई थी। 

बुआ तो पहले से ही बीमार पति की सेवा करते-करते टूट सी गई थीं। और अब जवान कुँआरी लड़की की उस छोटे से शहर में बदनामी के भय से उन्होंने चाँदनी को उसके भाइयों के पास भेज दिया कि बड़े शहर में जब किसी क्लिनिक में ले जाकर इसका काम हो जाये तो वापस मेरे पास ले आना। चाँदनी के भाई अपनी रोती-कलपती बहन से बात किए बिन, दो-चार फ़ोन नम्बर मिलाकर अगली सुबह की उसकी अपॉइन्ट्मन्ट बनवा चुपचाप अपने-अपने ऊपर वाले कमरों में चले गये।

चाँदनी का दुर्भाग्य इतनी आसानी से कहाँ उसका पीछा छोड़ने वाला था। उसकी दोनों भाभियाँ शाम ढलने तक उसके चरित्र की धज्जियाँ उड़ाती रहीं, खरी-खोटी सुनाती रहीं और वह . . . वह, जिसने दो दिन से न कुछ खाया न कुछ पीया था, पत्थर बनी वहीं घुटनों में मुँह छुपाये ठंडी ज़मीन पर बैठी सुनती रही, सुनती रही, “हमारी सास मरते हुए इस कुलटा को भी क्यों न अपने साथ ले गई। पहले बेचारी बुआ और अब अपने भाइयों के साथ-साथ उनके परिवार को भी बदनाम करने आ पहुँची। “यह छिनाल न जाने और कितनों का घर बर्बाद करेगी . . .”

वे दोनों भी बोल-बोलकर थकी-हारीं अपना सिर पकड़े ऊपर अपने कमरों में चली गईं। और चाँदनी वहीं धरती पर लुढ़क गई, लेकिन भाभियों के लगाये लांछन पिघले शीशे की भाँति उसके कानों से प्रवेश कर उसके दिमाग़ और फिर रग-रग में बहते चले गये।

लगभग आधी रात के समय चाँदनी की दर्दभरी चीखें सुन उसके भाई व भाभियाँ नीचे दौड़ते हुए आये तो क्या देखते हैं कि ख़ून में लथपथ हुई वह आँगन में इधर से उधर चक्कर लगा रही थी और बड़बड़ा रही थी, “मैं कुलटा नहीं हूँ, और न ही मैं छिनाल हूँ . . . मैं कुलटा नहीं हूँ, और न ही मैं छिनाल हूँ . . .”

भाभियों ने उसे पकड़ कर डाँटते हुए उसके कपड़े बदले और चाँदनी तब भी बड़बड़ाती रही तो बड़े भाई ने उसके मुँह पर ज़ोर से तमाचा जड़ दिया लेकिन चाँदनी काविलपना बन्द न हुआ। वैसे एक तरह से वे सब निश्चित हो गये थे कि अब सुबह क्लिनिक जाने का झंझट तो न रहा।

परन्तु उन्हें तब यह मालूम न हुआ कि क्लिनिक जाने के झंझट से भी बड़ी मुसीबत उनके सामने आन खड़ी हुई है कि चाँदनी अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी।

♦    ♦    ♦

“मैं कुलटा नहीं हूँ, और न ही मैं छिनाल हूँ . . .” पागलख़ाने के कर्मचारी चाँदनी के दिल दहलानेवाली रुदन से भरी पुकार सुनते हुए भी अनसुना कर रहे थे। जब वह अपने बालों को नोचते हुए उस बंद कोठरी की सलाख़ों से अपना सिर टकराने लगी तो दो कर्मचारी दौड़ते हुए आये और उसकी बाँहों व टाँगो को बाँधकर उन्होंने उसे नींद का एक टीका लगा दिया। कुछ ही पल में वह शान्त हो अपने बिस्तर पर एक नन्ही बच्ची की तरह सिकुड़ कर सो रही थी . . . परन्तु कर्मचारी जानते थे कि नींद से जागते ही वह फिर से वही बातें दोहराएगी। 

पागलख़ाने में नियुक्त हुई सिकाइअट्रिस्ट (मानसिक रोगों की चिकित्सक) ने महीनों लगाकर बहुत धीरज से आरम्भ से अन्त तक चाँदनी की कहानी सुन उसका इलाज करना आरम्भ किया। वह डॉक्टर उसे प्यार से समझाती रहती कि उसकी मासूमियत ही उसकी दुश्मन बनी। वह अपने ग़ुस्से, अपनी उदासी को एक कमज़ोरी न समझे क्योंकि 'It’s okay to be not okay' (कभी-कभार सही महसूस न करना भी सही होता है)। और क्रोध करना, यानी कि दूसरों की भूल के लिए स्वयं को दंड देना, यह कहाँ की समझदारी है! इत्यादि इत्यादि। 

बातों-बातों में डॉक्टर द्वारा सादा से शब्दों में बताई सीख चाँदनी के सादा से हृदय में धीरे-धीरे घर करती चली गई। उसने निर्णय ले लिया कि अपनी तबियत सँभलते ही यहाँ से मुक्त किए जाने पर वह कुछ ऐसा क़दम उठायेगी ताकि उसी की भाँति अन्य मासूम बच्चियों को किसी निर्मम शिकारी के जाल में फँस कभी भी किसी कष्टदायी दौर से न गुज़रना पड़े।

♦    ♦    ♦

और उसने पागलख़ाने से बाहर निकल उस डॉक्टर की सहायता से किया भी यही। उस पुरानी चाँदनी को पीछे छोड़ सब भूल-भुलाकर बुआ के यहाँ उनकी सेवा करते हुए और साथ ही साथ मानसिक रोगों से सम्बंधित तीन वर्षीय कोर्स डिसटिंक्शन में पास कर लिया। तदुपरान्त बिन सिफ़ारिश के ही सरकारी विद्यालयों के ‘छात्र-कल्याण विभाग’ द्वारा चुन भी ली गई।

अब इन दिनों चाँदनी प्रत्येक स्कूल में जा-जाकर हर सप्ताह एक कार्यशाला लगा रही है। एक-एक सप्ताह की कार्यशाला लगा रही है। बच्चियों को उनकी आयु अनुसार सरल व अलग-अलग ढंग से समझाती है कि, “कोई यदि आपको पहली दफ़ा बेवुक़ूफ़ बनाता है तो लानत है उस व्यक्ति पर . . . और यदि वही आपको दूसरी बार बेवुक़ूफ़ बनाता है तो लानत है आप पर। 

उन बच्चियों के समक्ष स्वयं को जीती-जागती उदाहरण दर्शा कर व संसार की ढेरों महान स्त्रियों की जीवनियों पर बनी फ़िल्म दिखाकर उन्हें ग़लत मार्ग पर जाने से रोकती है। वे छात्राएँ भी उसे अध्यापक न समझ अपनी सहेली मानकर अपनी गोपनिय समस्याओं का हल पूछतीं हैं। और चाँदनी यदि कभी सोचने का प्रयास करती भी है कि काश उसे भी बचपन से ही कोई सही मार्ग दिखाने वाला मिल जाता . . . परन्तु दूसरे ही क्षण अपनी सोच को सकारात्मकता में पलट देती है कि उन्हीं परिस्थितियों के कारण ही आज उसका जीवन किसी के काम तो आ रहा है। अपनी नौकरी में उपलब्ध विभिन्न साधनों व समय का उपयोग कर वह सौ में से यद्यपि केवल लगभग दस बच्चियों को ही उनके किसी रिश्तेदार की हवस से, या किसी किसी गुंडे के चंगुल या ब्लैकमेल करने वालों से या फिर किसी अजनबी के बहकावे में आने से बचा पा रही है, तथापि वह एक-एक सफल केस उसके अपने मानसिक घावों पर मरहम का काम कर रहा है। 

आज उसी स्वाभिमानी चाँदनी की पीठ पीछे यदि यदा-कदा कोई एक भी अशिष्ट या असभ्य व्यक्ति उस पर चरित्रहीन होने का लांछन लगाता है, या उसके नाम को कलंकित करता है तो दस स्त्रियाँ चाँदनी के पक्ष में उस व्यक्ति को मरने-मारने तक पर उतारू हो जाती हैं। और चाँदनी इन सब बातों से अनभिज्ञ अपने लक्ष्य की ओर रात-दिन अग्रसर रह संतोषजनक जीवन बीता रही है। अपने भाइयों-बहन के लाख समझाने पर भी उसने विवाह के लिए साफ़ इन्कार कर दिया है। उसे लगता है कहीं उसका विवाहित व पारिवारिक जीवन उसकी मंज़िल तक पहुँचने में कहीं आड़े न आ जाये।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 तो ऽ . . .
|

  सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सजल

लघुकथा

कविता

किशोर साहित्य कहानी

चिन्तन

किशोर साहित्य कविता

बच्चों के मुख से

आप-बीती

सामाजिक आलेख

ग़ज़ल

स्मृति लेख

कविता - क्षणिका

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं