अज्ञानता
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कहानी मधु शर्मा15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
“हद हो गई यार! निक्की न जाने कहाँ अटक कर रह गई। वेट करते-करते आधा घंटा हो चला।”
रैस्तराँ में बैठी निक्की की तीनों सहेलियाँ हैरान व परेशान हो रहीं थीं। सदैव की भाँति आज का भी यह प्रोग्राम निक्की ने ही बनाया था कि पहले वे कहीं लंच करेंगी, उसके बाद उस माह की सबसे बढ़िया फ़िल्म देखेंगी।
निराश हो उन तीनों ने अपनी-अपनी ड्रिंक समाप्त की। खाना ऑर्डर करने के लिए उन्होंने अभी मैन्यू पढ़ना शुरू किया ही था कि हाँफते हुए बड़े-बड़े क़दम उठाती निक्की रैस्तराँ में प्रवेश हुई। अपने स्वभावानुसार वह खिलखिलाती हुई तीनों से क्षमा माँगने लगी। फिर जैकेट उतारते हुए अपने देर से आने का कारण बताने लगी,
“यार, वो सामने वाले स्टेशन पर मेरी मैट्रो पहुँचते ही मैंने जैसे-तैसे भीड़ को काटते हुए प्लैटफॉर्म पर क़दम रखा ही था तो, मेरे आगे चल रही एक बूढ़ी औरत ने अचानक पलट कर मुझसे कुछ कहा और बेहोश हो गिर गई . . . ऐसी हालत में मैं उसे यूँ छोड़ कर कैसे आ जाती! सो जब तक ऐम्बुलन्स वाले नहीं पहुँचे, मैं मैट्रो के एक स्टाफ़ के साथ वहीं खड़ी रही। वहाँ अंडरग्राउंड में मोबाइल का नैटवर्क न होने की वजह से तुम तीनों से कॉन्टैक्ट भी नहीं हो पाया। चलें, खाना मँगवाएँ? . . . पेट में चूहे कूद रहे है।”
उन चारों ने लन्च किया व फ़िल्म देखकर हँसते-हँसाते अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गईं।
♦ ♦ ♦
निक्की के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इसी वर्ष सत्रह बरस की होते ही उसने ड्राइविंग टैस्ट पास कर लिया था। अपनी मम्मी की लाड़ली होने के कारण उनकी कार की चाबी उसी के पास रहती। कभी किसी पड़ोसी की कार ख़राब हो जाए तो वह अपने सभी काम छोड़ उन्हें लिफ़्ट दे देती। उसकी मम्मी के बुटीक की कोई ग्राहक कभी किसी कारण अपने बच्चों को स्कूल से उठा न पाए तो निक्की के ही फोन की घंटी बजती। या किसी रिश्तेदार को एयरपोर्ट ले जाना या वहाँ से लाना हो तो वह ख़ुशी-ख़ुशी हामी भर देती। उसके घरवालों ने उसका नाम ‘ट्रिपल ऐस’ यानी कि ‘संसार की समाज-सेविका’ रख छोड़ा था। वह भी हँसते हुए उन्हें यही कहती, “अब और पढ़ाई-वढ़ाई मेरे बस की बात नहीं। अभी छोटी हूँ तो क्या हुआ! अब मम्मी का बुटीक मुझे ही तो चलाना है न। और वह काम कहीं भागा नहीं जा रहा . . . रात को थोड़ा देर से सोने चली जाऊँगी तो कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा!”
♦ ♦ ♦
पिछले चार-पाँच सप्ताह से निक्की स्वयं को बहुत थकी-थकी और कमज़ोर सा अनुभव कर रही थी। फिर भी रिश्तेदारों, सहेलियों आदि की सहायता करने में वह हिचकिचाती न।
एक दिन नहाते हुए उसे अपनी बाईं बग़ल के नीचे गाँठ सी महसूस हुई। डॉक्टर के यहाँ जाकर दिखलाया तो उसने उसी समय निक्की को कुछ टैस्ट करवाने के लिए अस्पताल भेज दिया। अगले ही सप्ताह रिपोर्ट आने पर सभी घरवालों पर जैसे बिजली गिर गई . . . निक्की को ब्रैस्ट-कैंसर हो गया था। इतनी छोटी आयु में और वह भी इतनी सेहतमंद निक्की को? घर में सबसे छोटी होते हुए भी निक्की ने ही उन्हें ढाढ़स बँधाया कि वे लोग यूँ ही घबरा रहे हैं। इस आयु में भी दो-एक प्रतिशत नवयुवतियों को यह कैंसर हो जाना हैरानी की बात नहीं। और फिर पहली स्टेज ही तो है, इलाज द्वारा कुछ ही माह में देखते-देखते वह ठीक भी हो जायेगी।
निक्की नहीं चाहती थी कि यह समाचार जान कर उसकी सहेलियाँ या रिश्तेदार दुखी हों। इसलिए उसने घरवालों से अनुरोध किया कि यह बात घर से बाहर न जाए।
परन्तु न जाने कैसे यह बात फैलते-फैलते सभी को मालूम हो गई। निक्की तो सदा से ही बहादुर लड़की थी, हिम्मत रख अपने काम में व्यस्त रहने की कोशिश में लगी रही। लेकिन उसे धीरे-धीरे यूँ लगने लगा कि वही रिश्तेदार, महल्ले वाले आदि जो उसके आगे-पीछे घूमते थे, अब आमना-सामना होने पर रास्ता काट जाते हैं। ब्याह-शादियों में वह जब घरवालों के साथ जाती तो, लोग उससे हट कर बैठते हैं। सबसे बड़ा धक्का तो उसे तब लगा जब उसकी उन्हीं सहेलियों ने अपनी आउटिंग पर साथ आने के लिए उससे पूछा तक नहीं। यह बात अलग है कि वे औपचारिकता निभाते उसे अब एक-आध-बार फ़ोन कर हाल-चाल पूछ लेती हैं।
♦ ♦ ♦
आज दर्पण के सामने खड़ी हो निक्की स्वयं से पूछ रही है, “मैं तो वही निक्की हूँ . . . तो अचानक सभी के लिए अजनबी क्यों बन गई हूँ? क्या कैंसर कोई छूत की बीमारी है जिसके कारण सभी मेरे समीप आने से डरने लगे हैं?
“रिश्ते तो बहुत मज़बूत थे . . . लोग लेकिन कमज़ोर निकले।
“हे ईश्वर! आपकी आभारी हूँ कि समय होते आपने मुझे इस रोग से अवगत करवा दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं जल्द ही ठीक भी हो जाऊँगी। लेकिन आज आपसे अपने लिए तो कुछ नहीं, परन्तु इग्नोरेंट (अबोध) लोगों के लिए यही माँगना चाहूँगी कि आप उन में इतनी अवेर्नेस (अभिज्ञता) पैदा कर दें ताकि इस प्रकार की अज्ञानता संसार से अलोप हो जाये।”
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अब पछताए होत का
किशोर साहित्य कहानी | प्रभुदयाल श्रीवास्तवभोला का गाँव शहर से लगा हुआ है। एक किलोमीटर…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य कविता
किशोर साहित्य कविता
कविता
- 16 का अंक
- 16 शृंगार
- 6 जून यूक्रेन-वासियों द्वारा दी गई दुहाई
- अंगदान
- अकेली है तन्हा नहीं
- अग्निदाह
- अधूरापन
- असली दोस्त
- आशा या निराशा
- उपहार/तोहफ़ा/सौग़ात/भेंट
- ऐन्टाल्या में डूबता सूर्य
- ऐसे-वैसे लोग
- कविता क्यों लिखती हूँ
- काहे दंभ भरे ओ इंसान
- कुछ और कड़वे सच – 02
- कुछ कड़वे सच — 01
- कुछ न रहेगा
- कैसे-कैसे सेल्ज़मैन
- कोना-कोना कोरोना-फ़्री
- ख़ुश है अब वह
- खाते-पीते घरों के प्रवासी
- गति
- गुहार दिल की
- जल
- दीया हूँ
- दोषी
- नदिया का ख़त सागर के नाम
- पतझड़ के पत्ते
- पारी जीती कभी हारी
- बहन-बेटियों की आवाज़
- बेटा होने का हक़
- बेटी बचाओ
- भयभीत भगवान
- भानुमति
- भेद-भाव
- माँ की गोद
- मेरा पहला आँसू
- मेरी अन्तिम इच्छा
- मेरी मातृ-भूमि
- मेरी हमसायी
- यह इंग्लिस्तान
- यादें मीठी-कड़वी
- यादों का भँवर
- लंगर
- लोरी ग़रीब माँ की
- वह अनामिका
- विदेशी रक्षा-बन्धन
- विवश अश्व
- शिकारी
- संवेदनशील कवि
- सती इक्कीसवीं सदी की
- समय की चादर
- सोच
- सौतन
- हेर-फेर भिन्नार्थक शब्दों का
- 14 जून वाले अभागे अप्रवासी
- अपने-अपने दुखड़े
- गये बरस
ग़ज़ल
किशोर साहित्य कहानी
कविता - क्षणिका
सजल
चिन्तन
लघुकथा
- अकेलेपन का बोझ
- अपराधी कौन?
- अशान्त आत्मा
- असाधारण सा आमंत्रण
- अहंकारी
- आत्मनिर्भर वृद्धा माँ
- आदान-प्रदान
- आभारी
- उपद्रव
- उसका सुधरना
- उसे जीने दीजिए
- कॉफ़ी
- कौन है दोषी?
- गंगाजल
- गिफ़्ट
- घिनौना बदलाव
- देर आये दुरुस्त आये
- दोगलापन
- दोषारोपण
- नासमझ लोग
- पहली पहली धारणा
- पानी का बुलबुला
- पिता व बेटी
- प्रेम का धागा
- बंदीगृह
- बड़ा मुँह छोटी बात
- बहकावा
- भाग्यवान
- मोटा असामी
- सहानुभूति व संवेदना में अंतर
- सहारा
- स्टेटस
- स्वार्थ
- सोच, पाश्चात्य बनाम प्राच्य
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता-मुक्तक
कविता - हाइकु
कहानी
नज़्म
सांस्कृतिक कथा
पत्र
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
एकांकी
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं