शक की बीमारी
आलेख | चिन्तन मधु शर्मा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
आये दिन हमारे घर-गृहस्थियों, काम-काज, विद्यालयों इत्यादि से लेकर समाज तक में ऐसी-ऐसी चिंताएँ उभर कर सामने आ जाती हैं, जिन पर यदि चिंतन न किया गया तो शीघ्र ही वे कैंसर रूपी कीड़ा बनकर हमारे भीतर घर कर जायेंगी या नासूर बन इंसानियत को मिटा डालेंगी।
शक की बीमारी
वह बहुत ख़ुश था। उसकी शादी रिश्तेदारों की उस लड़की से हुई जिसे वह बचपन से जानता था, और जो थी भी बहुत सुंदर। नई-नवेली दुल्हन को भी ससुराल नया नहीं लगा, क्योंकि वह भी उन सभी को बचपन से जानती थी।
लेकिन कुछ ही दिनों में अपने पति का स्वभाव देख वह हैरान व परेशान हो गई। उसका किसी पुरुष के साथ बोलना-चालना उसे नापसन्द था . . . चाहे वह उसका कोई रिश्तेदार ही क्यों न हो। पत्नी ने घर में शांति बनाए रखने के लिए सभी पुरुषों से बोलना छोड़ दिया। बाहर भी अकेले जाना बंद कर दिया . . . यही सोचकर कि बच्चे होने पर एक न एक दिन सब सही हो जाएगा।
परन्तु समय बीतते पति का शक इतना बढ़ता गया कि काम के दौरान भी अचानक देखने आ जाता कि पत्नी घर पर है या नहीं। उसके फोन करने पर न उठाने पर सैंकड़ों प्रश्न करता। पत्नी ने बातों-बातों मे कई बार काउन्सलिंग का ज़िक्र किया तो उलटा उसपर बरस पड़ता, "क्या तुम्हें मैं पागल दिखाई देता हूँ?"
चन्द बरसों ही में उस पति को ब्लड-प्रैशर, दमा और palpitation (धड़कन का अचानक बढ़ जाना) जैसी बीमारियों ने आन घेरा। वह आजकल उन रोगों की दवा तो सही समय पर ले रहा है। लेकिन जिस रोग के कारण ये अन्य रोग लग गये हैं, उसके इलाज के लिए अब भी तैयार नहीं।
और वह रोग है 'बेवज़ह शक करना'।
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