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पाप धुलें तो कैसे धुलें

 

त्रेतायुग में भगीरथ अपने कठोर परिश्रम व बरसों की घोर तपस्या के फलस्वरूप माँ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित करने में सफल हो गये। तब से लेकर कलयुग के प्रारम्भ तक कितने ही पापियों ने गंगा जी में स्नान कर अपने पाप धो डाले। 

प्राचीन काल में जीवन में एक ही बार गंगा-स्नान किया जाता था। और वह भी कुछ साधु-संतों के अतिरिक्त अपनी पूरी निष्ठा से पश्चाताप करने वाला कोई-कोई महापापी भी कहीं कड़कती धूप, कहीं मूसलाधार वर्षा सहन करते हुए और ऊबड़-खाबड़ मार्ग तय कर महीनों पश्चात इतनी कठिन यात्रा पूरी कर माँ गंगे के दर्शन कर पाता था। तदोपरान्त वह व्यक्ति गंगाजी में एक बार स्नान कर, फिर आजीवन कभी पाप करने की धृष्टता न कर पाता। 

और अब? अब कलयुग में यद्यपि हर माह नहीं तो वर्ष में एक बार, या फिर कुम्भ के प्रत्येक मेले में गंगा-स्नान करना आम सी बात हो चुकी है। कारण यह है कि पापी पाप करने से पहले . . . या पाप करने के पश्चात . . . स्वयं को आश्वासन दे लेता है कि नाना प्रकार के यातायात के साधन उपलब्ध होने के कारण महीनों की पदयात्रा अब चंद ही घंटों में हो जाती है, तो आराम से गंगा जी जाकर स्नान करते ही मेरे पाप तो धुल ही जायेंगे। 

लेकिन वह मूर्ख इस बात से बिल्कुल अपरिचित होता है कि आधुनिक पाप उससे भी दो क़दम आगे हैं। जैसे ही वह व्यक्ति गंगाजी में डुबकी लगाता है तो उसके पाप पूर्वाभास होते ही उछल कर घाट पर या गंगा किनारे आ बैठते हैं। और आपस में विचार-विमर्श करने लगते हैं, 
 “यह महाशय अपनी हरकतों से कभी बाज़ तो आयेगें नहीं! तो हम स्वयं को क्यों यूँ ही मिटने दें? घर पहुँचने की देरी नहीं कि यह व्यक्ति आदतानुसार हमें फिर गले लगाने को मचलेगा। तो भई, इसके घर तक की वापसी की इतनी लम्बी यात्रा हमसे तो होने से रही।”

परिणामस्वरूप वही सारे पाप . . . और दो-एक इधर-उधर के भूले-भटके हुए भी . . . चंद पलों के लिए पापमुक्त हुए उस व्यक्ति पर वापस छलाँग कर उसके दिलो-दिमाग़ पर फिर से हावी हो जाते हैं। 

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