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स्वयं की सोच पर शर्मिंदगी 

आये दिन हमारे घर-गृहस्थियों, काम-काज, विद्यालयों इत्यादि से लेकर समाज तक में ऐसी-ऐसी चिंताएँ उभर कर सामने आ जाती हैं, जिन पर यदि चिंतन न किया गया तो शीघ्र ही वे कैंसर रूपी कीड़ा बनकर हमारे भीतर घर कर जायेंगी या नासूर बन इंसानियत को मिटा डालेंगी। 

स्वयं की सोच पर शर्मिंदगी 

निशा का अमेरिका में विवाह हुए लगभग पच्चीस वर्ष हो चुके थे। उसके ससुराल वहाँ पहले से ही बसे हुए थे। निशा का वहाँ मायके से कोई न था इसीलिए दो-तीन वर्ष के अन्तराल में भारत हो आती। सभी से मिल-मिलाकर अंतिम तीन दिन अपनी बड़ी बहन के यहाँ ठहरती जो अन्तरराष्ट्रीय हवाई-अड्डे के समीप ही रहती थी। 

लेकिन इस बार बहन के घर जाने से पहले निशा को उसका अचानक फ़ोन आ गया कि वह अपनी बेटी के घर है जो उन दिनों गर्भवती थी। बेटी की अचानक तबियत कुछ ढीली सी हो गई थी। चूँकि उसे अपनी बेटी की देखभाल के लिए कुछ दिन वहीं रुकना पड़ेगा सो वह वहीं आ जाये; बेटी का घर भी उसी शहर में था। 

निशा यह सुनकर बहुत हैरान होकर बोली, "तुम अपनी बेटी के यहाँ कैसे रह लोगी? न बाबा न, मुझसे तो यह न होगा। हाँ दो-चार घंटे के लिए तुम सब से मिलने आ जाऊँगी।” 

निशा की बहन निराशा भरे स्वर में कह उठी, "निशा, तुम अमेरिका में रह कर भी इतने पुराने विचारों की बन जाओगी, मैं सोच भी नहीं सकती चलो जैसा तुम सही समझो।”

फ़ोन नीचे रखते ही निशा को अचानक वह दिन याद आ गया जब नवविवाहिता निशा के मुख से उसके पति का नाम सुनकर उसकी सास ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया था। निशा उस समय सहम कर रह गई थी कि वह जैसे पाश्चात्य देश में न आकर किसी गाँव में ब्याही गई हो। और आज . . . और आज उसने भी वही दक़ियानूसी वाली बात कर दी। अपनी सोच पर शर्मिन्दा होते हुए उसने झट से बहन को फ़ोन करके क्षमा माँगी व पहले की तरह दो-तीन दिन उसकी बेटी के यहाँ ही रहने की योजना बना ली। 

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टिप्पणियाँ

Ritu Khare 2021/12/20 10:28 PM

मधुजी, आपके इस छोटे से प्यारे से लेख में बहुत कुछ छुपा है। इस तरह की बातें हम रोज़ सुनते हैं और खुद भी कहते हैं चाहे किसी भी देश या शहर में रहे। काश हम सब एक दिन "निशा" की तरह सोच पाएं, दूजे से पहले स्वयं पर ऊँगली उठाएं, दूजो के जीवन में दखल देने की जगह, स्वयं की सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाएं। आपके ऐसे ही और लेखों की प्रतीक्षा करूंगी!

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