अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्टेटस

"हाँ, तो भइया! कैसी रही आपकी डेट? पसन्द आई कि नहीं मेरी सहेली?" ममता ने चहकते हुए अधेड़ आयु के तलाक़शुदा अपने चचेरे भाई से फोन पर पूछा। 

भइया ने रूखी सी आवाज़ में जवाब दिया, "नन्ही, तुम भी कमाल करती हो! कहाँ मैं इतना क़ामयाब वकील, और कहाँ तुम्हारे नीचे करने वाली तुम्हारी वह सहेली? मैं तो समझा था तुम्हारी ही तरह तुम्हारे ऑफ़िस में मैनेजर लगी हुई होगी। तुमने भी क्यों नहीं बताया?"

ममता ने बात को घुमा-फिरा कर उन्हें समझाने की कोशिश की कि आप तो इतने वर्षों से यहाँ बाहर देश में रह रहे हैं। यहाँ यह बात बिल्कुल मायने नहीं रखती कि किसका क्या स्टेटस है . . . बस स्वभाव और विचार आदि मिल जायें तो इस उम्र में ऐसे जीवन-साथी के साथ आराम से जीवन बसर हो सकता है। लेकिन भइया की दलील के आगे उसकी एक न चली . . . वकील जो ठहरे थे।

उस बात के लगभग एक वर्ष बाद लॉकडाउन के कारण भइया की कम्पनी बंद हो गई। अच्छे वेतन वाली दूसरी नौकरी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब मायूस हो गये तो मजबूर होकर ममता के ही ऑफ़िस की दूसरी बिल्डिंग में उन्हें सिक्योरिटी-गार्ड की नाइट-शिफ़्ट की नौकरी करनी पड़ी . . . तनख़्वाह अच्छी थी तो राहत सी हुई कि घर की किश्तें चुका सकेंगे, और अच्छा रहन-सहन भी क़ायम रहेगा।

यूँ तो ममता का भइया से कभी-कभार मिलना-मिलाना हो ही जाता था। लेकिन आज अचानक रात के नौ बजे उनका फोन आया और बोले, "नन्ही, आज जब ड्युटी शुरू करने जा रहा था तो ऑफ़िस के कार-पार्क में तुम्हारी उसी सहेली से मुलाक़ात हो गई। किसी मीटिंग पर आई थी जो पाँच की बजाय छ: बजे देर तक चलती रही, सो वह जल्दी में थी। मैं भी काम के लिये लेट हो रहा था इसलिए ज़्यादा बात नहीं हो पाई।"

फिर थोड़ा रुक कर झिझकते हुए बोले, "क्या उसकी शादी हो गई? लग तो नहीं रहा था। नहीं हुई तो उससे ज़रा मेरे लिए दोबारा बात करके देखना।"

ममता अचम्भित हो गई। उससे कुछ कहते न बना। व्यस्त होने का बहाना कर बस इतना कहकर फोन रख दिया, "भइया, उसकी तो सगाई हो चुकी है . . . एक बड़े जाने-माने डॉक्टर के साथ।"

कहना चाह कर भी ममता कह न पाई कि भइया जिस लड़की का स्टेटस छोटा समझकर आपने रिश्ता ठुकराया था, आपसे भी बेहतर हैसियत वाले एक डॉक्टर ने इस बारे यह बिल्कुल न सोचा। आपने रिश्ते की दोबारा बात छेड़ने से पहले सोचा तो होता कि उसकी सगाई न भी हुई होती, और यदि वह भी अपने स्टेटस को आपके वर्तमान के स्टेटस से तुलना करते हुए 'न' कर देती, तो आपको कैसा लगता?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य कविता

कविता

ग़ज़ल

किशोर साहित्य कहानी

कविता - क्षणिका

सजल

चिन्तन

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

कहानी

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं