अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पुरानी कहावतें, नया नज़रिया

1.
एक दिन भैया रुआँसे होकर हमसे यूँ  बोले,
तुम्हारी भाभी आये दिन बहुत तंग करती है,
आव देखे न ताव, 'छाती मेरी पे मूँग दलती है’। 
यह सुन अपने भाई पर हमें  बहुत तरस आया,
सो ब्लैंडर ख़रीद भाभी को मूँग दलना सिखाया।
 
2.
'​घर की मुर्गी दाल बराबर!' 
लेकिन...
पड़ोसन की बनाई 
पानी सी दाल बिन मसाला,
पतिदेव यूँ पी गए, 
जैसे अमृत का हो वो प्याला।
 
3. 
'न लँगोट रहे, न ही लँगोटिया यार' की क़द्र अब,
डायपर जैसा प्रयोग कर लोग कर देते उन्हें  डम्प।
 
4. 
'ख़ूबसूरती गहनों की मोहताज़ नहीं'
परन्तु आधुनिक महिला का अपने गहने बेच,
प्लास्टिक-सर्जरी करवाना –
क्या उल्टी बात नहीं?
 
5. 
'चुल्लू भर पानी में डूबना' 
उनके लिए आम हो गया,
बेशर्म कहती रहे दुनिया, 
उनका तो काम हो गया। 
 
6. 
'घर आई  लक्ष्मी को कौन लात मारता है?'
भई, हमारी पड़ोसन लक्ष्मी को 
जूडो-कराटे आता है,
उसका बेचारा पति, 
उल्टा उसी के घूँसे-लात खाता है।
 
7. 
'सुबह का भूला शाम को घर आ जाए 
तो भूला नहीं कहलाता है'
लेकिन शाम का कह सुबह घर आए 
तो उसका रखवाला विधाता है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँगूठे की व्यथा
|

  पहाड़ करे पहाड़ी से सतत मधुर प्रेमालाप, …

अचार पे विचार
|

  पन्नों को रँगते-रँगते आया एक विचार, …

अतिथि
|

महीने की थी अन्तिम तिथि,  घर में आए…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य कविता

ग़ज़ल

किशोर साहित्य कहानी

कविता - क्षणिका

सजल

चिन्तन

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

कहानी

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं