आस्था
कथा साहित्य | कहानी मधु शर्मा15 Oct 2021 (अंक: 191, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
"आशी, आशी! पहचाना मुझे? मैं . . . मैं भावना . . . "
आशी की एक दिन अचानक भावना से मॉल में भेंट हो गई। वे दोनों एक ही लेडीज़-क्लब की मैंबर थीं, लेकिन लगभग दस बरस हुए आशी ने अपने पति की सेहत ढीली रहने के कारण पहले कभी-कभार, और फिर बिलकुल ही वहाँ आना बंद कर दिया था। भावना भी दूसरे शहर नौकरी लगने की वज़ह से किसी के सम्पर्क में न रह पाई। आशी को देखते ही भावना ने दौड़ कर उसे गले लगा लिया।
उसने आशी से कहा, "अगर तुम्हारे पास आधा घंटा ख़ाली है तो क्यों न सामने वाले रैस्टोराँ में बैठ कर कॉफ़ी पी जाये . . . मैंने तुम्हें एक बहुत ख़ास बात बतानी है।"
आशी के हाँ कहने पर दोनों वहाँ चली गईं और कॉफ़ी ऑर्डर कर कोने वाली एक टेबल पर बैठ गईं। बैठते ही भावना एक उतावले से बच्चे की तरह बोलना शुरू हो गई,
"आशी, तुम्हें याद है? मैं हमेशा रोया करती थी कि मेरे पति ने कैसे मेरी पीठ पीछे कितने ही साल अपना एक अफ़ेयर चलाये रखा। और जब इस बात का पर्दाफ़ाश हो गया तो मुझे तलाक़ देकर उसने दूसरी शादी कर ली। मैं उन दिनों कितनी टूट सी गई थी।"
बिना रुके अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए भावना बोली, "उस लेडीज़-क्लब में बस एक तुम ही थीं जो हमेशा मुझे समझाती रहती थी कि भगवान की इच्छा में ही अपनी इच्छा समझ कर ज़िंदगी गुज़ारने की कोशिश करो। तो मैं खीझ कर कहा करती थी कि मुझे भगवान वग़ैरह में कोई विश्वास नहीं। मैं चाहे नास्तिक हूँ, लेकिन किसी दूसरे को तकलीफ़ भी नहीं देती, न ही किसी का दिल दुखाती हूँ। सो लोगों को क्या हक़ था मेरी ज़िंदगी इस तरह तबाह करने का?
"परन्तु जब मेरी प्रोमोशन होने पर दूसरे शहर में ट्रांसफ़र हुई, तो एक दिन यूँ ही उस बड़े से ऑफ़िस में बैठे-बैठै तुम्हारी उन्हीं बातों में छिपी गहराई समझ में आ गई कि . . . वाक़ई . . . वाक़ई उन सभी दुखों के बदले ही मुझे आज ढेरों सुख मिल पाये। तभी से भगवान में मेरी आस्था जाग उठी। और हर दिन कुछ समय निकाल कर रामायण और भागवत-गीता वग़ैरह पढ़ने व सुनने लगी।"
आशी चुपचाप भावना की बातें सुन रही थी। भावना अपनी ही रौ में बोलती चली गई, "जानती हो आशी, मुझे मालूम ही न चल पाया कि कब और कैसे मुझे ठेस पहुँचाने वालों के प्रति मेरा ग़ुस्सा ग़ायब होता चला गया। और तभी से मेरा दिन-रात कुढ़ना भी ग़ायब हो गया। डिप्रैशन के जाते ही एक अच्छा साथी भी मिल गया, और अब . . . वो मेरे पति हैं, व हमारे दो प्यारे से बच्चे भी हैं।"
अपनी बात ख़त्म कर भावना शर्मिंदा होकर बोली, "यह लो! मैं अपना ही राग गाये जा रही हूँ। भई तुम बताओ, भाई साहब की अब तबियत कैसी है? और फ़ैमिली? . . . बेटे-बेटी की शादी हो गई?"
आशी लम्बी सी साँस खींचती हुई बोली, "सब ख़त्म हो गया . . . सब कुछ ख़त्म हो गया। पति तो बिमारी के दो साल बाद ही चल बसे थे। उस वक़्त तो मैंने भगवान की मर्ज़ी समझ चुपचाप सहन कर लिया। लेकिन अभी बेटे ने उनका बिज़नस सम्भालना शुरू ही किया था कि एक दिन अचानक शहर में हुई दहशतग़र्दी का शिकार होने पर वो भी चल बसा। मेरा तो उसी दिन से भगवान पर से भरोसा उठ गया।"
यह सुनते ही भावना के हाथ से कॉफ़ी का प्याला छूटते-छूटते रह गया। बोली, “यह, यह क्या कह रही हो? और बेटी . . . ?"
"अब बेटी सारा कारोबार सम्भालती है। परन्तु मुझे अकेला छोड़ने के डर से शादी के नाम से कोसों दूर भागती है। मैं अब जीना नहीं चाहती हूँ, लेकिन . . . लेकिन, मर भी तो नहीं सकती . . . बेटी की फ़िक्र जो लगी रहती है," आशी सुबकते हुए बोली।
भावना की आँखों से आँसू टपटप गिर रहे थे। आशी का हाथ अपने हाथ में थामकर बोली, "याद है न आशी, मैं भी इसी तरह की नैगेटिव बातें किया करती थी, और तुम . . . केवल तुम ही मुझे हौसला दिया करती थी। मैं आज जो कुछ भी हूँ, तुम्हारे ही दिखाये सही रास्ते पर चलने की वज़ह से हूँ। तो क्या तुम भी भगवान पर फिर से भरोसा करना शुरू नहीं कर सकती? . . . और 'उसकी इच्छा के पीछे न जाने क्या अच्छाई' छिपी हुई है’, यह समझकर बेटी का काम में हाथ बटाना शुरू करो . . . देख लेना, देखते-देखते सब सही हो जाएगा।"
यह सुनते ही आशी ने उठकर भावना को गले लगा लिया और कहा, "आज तुम्हारी-मेरी यह भेंट भगवान ने शायद इसीलिये करवाई है, जैसे कि वह कह रहे हों, ’आशी, तुम मुझे कैसे भूल गई? दूसरों के अंदर मेरे प्रति आस्था पैदा करने वाली तुम . . . तुम्हारी अपनी आस्था इतनी कच्ची तो न थी, जो तुमने एक झटके में ही तोड़ डाली?’
"भावना, उस प्रभु के साथ-साथ तुम्हारा ढेरों धन्यवाद जो मुझे आशा व आस्था की राह पर वापस ले आई हो।"
यह कहकर मुस्कराते हुए आशी ने अपने आँसुओं को पोंछ डाला।
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पाण्डेय सरिता 2021/10/20 10:08 PM
बहुत बढ़िया