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शिकारी

 (यहाँ यू.के. में भारत, पाकिस्तान, बँगला देश व श्रीलंका से आये प्रवासी लोग ’एशियन’ कहलाये जाते हैं। यह कविता उस समाचार के संदर्भ में है जब यू.के. के एशियन लोगों को बहुत शर्मनाक परिस्थियों का सामना करना पड़ा। उन्हीं के समाज के कुछ दुष्ट नौजवानों ने उत्तरी इंग्लैंड में यहीं की अवयस्क/नाबालिग असुरक्षित श्वेत बालिकाओं (underage vulnerable white girls) को 'ग्रूमिंग' कर उन्हें बुरे कामों में प्रयोग करना शुरू कर दिया था। यद्यपि अब तक कुछ दुष्ट पकड़े जा चुके हैं, परन्तु अधिकांश यहाँ से पलायमान हो न जाने कहाँ जा छुपे हैं ?) 

 

पहले जाँचकर फिर जाल बिछाता है, 
शिकार पकड़ना बाद में सिखलाता है। 
 
जब आस-पास कोई हाथ नहीं आती, 
या कोई भोली-भाली फँस नहीं पाती, 
तो दूसरे शहर ग्राहकों को ले जाता है, 
शिकार पकड़ना बाद में सिखलाता है। 
 
मासूम बालिकाएँ झट से बातों में आएँ, 
देखते-देखते उसके हाथों यूँँ बिक जाएँ, 
ऐसे-ऐसे शर्मनाक दाँव-पेंच चलाता है, 
शिकार पकड़ना इस तरह सिखलाता है। 
 
उसके किये का समाज पर असर पड़ रहा, 
नज़रों में दूसरों की हर ’एशियन’ गिर रहा, 
क्यों नहीं कोई उसका नाम-पता बताता है? 
फिर देखिए शिकारी बचकर कहाँ जाता है। 
 
इससे पहले उसके पाप दूर-दूर फैल जाएँ, 
मिलकर हम ही उसके लिए जाल बिछाएँ, 
बुरे का बुरा दिन एक न एक दिन आता है, 
फिर देखिए शिकारी बचकर कहाँ जाता है। 

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