अनुभवी या स्वार्थी
कथा साहित्य | कहानी मधु शर्मा15 Aug 2021 (अंक: 187, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
अनु व मिन्नी एक ही कॉलेज की एक ही कक्षा में पढ़ती थीं। मिन्नी और उसी के ग्रुप के एक सागर नाम के लड़के के बीच हुई दोस्ती न जाने कब और कैसे प्यार में बदल गई। और दूसरी तरफ़ अनु का भी यही हाल था। वह और आकाश कॉलेज में भी व कॉलेज के बाहर भी अपना अधिकतर समय साथ-साथ व्यतीत करते। वह कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है . . . और तो और जब जवानी का ख़ून रगों में दौड़ रहा हो . . . तो न ही अपने दोस्तों की सलाह का, न ही अपने सगों की डाँट-डपट का कोई असर पड़ता है। कुछ ऐसा ही इन चारों के साथ हुआ।
इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छुपते सो उनके घरवालों से यह बात अधिक समय तक छुपी न रह सकी। लड़कों के माता-पिता ने समझाने की बहुत कोशिश भी की कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो, फिर कुछ बन जाओ, गृहस्थी के मायने क्या होते हैं वग़ैरह-वग़ैरह, जानने लगोगे तब तुम जहाँ चाहो हम ख़ुशी-ख़ुशी तुम्हारी वहीं शादी कर देंगे।
सागर अमीर घर का बेटा था। लेकिन मिन्नी के घरवालों का मानना था कि इस आधुनिक दौर में भी सागर के घर वाले मिन्नी का दूसरे धर्म की होने के कारण उसे कभी ख़ुशी से नहीं अपनायेंगे। दूसरी तरफ़ अनु व आकाश एक ही धर्म के थे परंतु आकाश के ब-निसबत अनु के घरवाले बहुत अमीर थे। स्वभाविक था कि नाज़ो-नख़रों में पली अपनी बेटी को वे अपने जैसे या अपने से बड़े घर में ब्याहना चाहते थे। दोनों परिवारों ने पूरा ज़ोर लगा दिया कि उनकी बेटियाँ उन लड़कों से दूर रहें। लेकिन हुआ वही जो आजकल के प्यार में अंधे हुए बच्चे कर बैठते हैं। एक दिन कॉलेज के साथियों के साथ रजिस्ट्री ऑफ़िस में जाकर दोनों जोड़े प्रेम के बंधन मे बँध गये।
अनु व मिन्नी जब अपने घरवालों से अपने पतियों को मिलवाने गईं तो पाया कि उनके लिए घर के द्वार सदा के लिए बंद कर दिये गये हैं। दु:ख तो उन्हें बहुत हुआ लेकिन अब अपने साजन का साथ सदा के लिए मिल गया है . . . और फिर माँ-बाप बेटियों से ज़्यादा दिन तो नाराज़ नहीं रह सकते हैं . . . यह सोचकर अपने-अपने ससुराल में रहने लगीं और अपनी पढ़ाई का अन्तिम वर्ष पूरा करने की तैयारियों में जुट गईं।
फिर वही हुआ जो आमतौर पर होता आया है। अनु को शुरू-शुरू के दिन तो हनीमून जैसे लगे। लेकिन चंद ही दिनों में बड़े से घर में रहने की आदी, उसे अब दो कमरों के छोटे से घर की गृहस्थी की वास्तविकता दिखाई देने लगी। परिवार में एक और सदस्य के आ जाने से, और फिर अनु की फ़ीस व पढ़ाई का भी आकाश को ही सोचना था, बेचारा दिन में कॉलेज जाता और शाम को छोटी-मोटी नौकरी कर रात देर गये घर लौटता। अनु ने कभी घर के कामों को हाथ नहीं लगाया था, लेकिन ऐसे तो यहाँ गुज़ारा होने से रहा सो कॉलेज से आते ही सास-ननद का हाथ बटाने की कोशिश करती तो वे उसे बेमन से रोक देतीं। ऐसे में अनु न तो पढ़ने में ध्यान लगा पाती, न ही गृहस्थी में। जैसे-तैसे परिक्षा पास की और आकाश के साथ नौकरी की तलाश में निकल पड़ी। परंन्तु उन जैसे बी.ए. डिग्री वाले तो क्या एम.ए. या इंजीनियरिंग, डॉक्टर आदि डिग्री वाले भी सड़कों पर नौकरी की तलाश में धक्के खाते दिखाई दे रहे थे।
पैसों की तंगी, महँगाई और ऊपर से नौकरी न मिलने की परेशानी ने दोनों को इतना चिड़चिड़ा बना दिया कि आए दिन घर में छोटी-छोटी बातों पर चखचख होनी शुरू हो गई। बात-बात पर अनु आकाश को अपने अमीर डैडी के पास जाने को कहती कि चलो माफ़ी माँगने चलें ताकि तुम्हें वह कोई नौकरी दिलवा दें। आकाश को अपनी ही नज़रों में गिरने वाली यह बात स्वीकार नहीं थी। अनु इस तरह का घुट-घुटकर रहने वाला जीवन और न जी सकी और एक दिन अपना सामान बाँध मायके पहुँच गई। परन्तु वहाँ न तो उसके भाई-भाभियों ने, और उनके डर से, न ही उसके माता-पिता ने उसका सही ढंग से हाल-चाल पूछा। इस बात को दो साल हो चुके हैं, अनु यही सोच-सोच कर डिप्रैशन का शिकार हो गई है कि समझदार व बड़ों का कहा न मानकर वह न तो सुखी दाम्पत्य बिता सकी न ही अच्छी बेटी कहला सकी।
उधर मिन्नी को सागर के अमीर घरवाले अपने बड़े से शानदार घर में स्वीकार करने की बजाय उससे घर के नौकरों की तरह काम करवाने लग गये। उठते-बैठते उसे दहेज़ या दूसरे धर्म की होने के ताने इत्यादि सुनने को मिलने लगे। सागर देखकर भी अनजान बन जाता, और कुछ ही महिनों में उसके इस रवैय्ये से मिन्नी सकते में आ गई कि यह सागर तो कॉलेज वाला वो सागर बिल्कुल भी नहीं। बाहर शेर बनकर घूमने वाला तो घर में दब्बू, आलसी व हर फ़ैसले को लटकाने वाला साबित हुआ। पढ़ाई में मिन्नी पहले से ही कमज़ोर थी, ऐसे में पढ़ाई में कैसे मन लगा पाती। परिणाम वही निकला जिसकी आशंका थी . . . बेचारी फ़ेल हो गई। ससुराल वालों के ताने सुन-सुन और पति के होते हुए भी उसका सहयोग न मिलने पर कभी अप्सरा सी दिखने वाली मिन्नी अब शरीर से बहुत कमज़ोर हो चुकी थी और उसके चेहरे का रंग भी काला पड़ गया था।
एक दिन बाज़ार में माता-पिता का घर छोड़ने के बाद पहली बार उनसे आमना-सामना होते ही चक्कर खाकर वहीं बेहोश हो गिर पड़ी। होश आने पर स्वयं को अपने मायके वाले छोटे से घर में अपने उसी छोटे से बिस्तर पर लेटा हुआ पाया। अपनी माँ को सिरहाने बैठा देख मिन्नी फूट-फूटकर रो पड़ी। 'आप सभी का दिल दुखाने की यही सज़ा मुझे मिलनी चाहिए', कहकर वह माफ़ी माँगने लगी। उसे तब मालूम हुआ कि उसके माता-पिता ने भी दुनियावालों के कैसे-कैसे ताने सहे, परन्तु उस बात का उन्हें इतना दुख न था जितना कि उड़ती-उड़ती ख़बरें सुनकर कि उनकी मिन्नी के साथ ससुराल में कैसा व्यवहार किया जा रहा है। सागर किसी लायक़ होता तो वे सब्र कर लेते लेकिन अब बेटी को वापस उसके पास भेजने से साफ़ इंकार कर दिया।
मिन्नी अब उनकी कोई बात टालना नहीं चाहती थी क्योंकि उसने जान लिया था कि माँ-बाप अपने बच्चों के कभी दुश्मन नहीं होते। सागर तो अक़्ल का कच्चा होने के कारण संभवतः यह बात समझ न पाये, लेकिन आकाश को भी अहसास हो गया है कि नवयुवक-युवतियाँ जिसे 'स्वार्थ' समझ बैठते हैं, वह कुछ और नहीं, दुनियादारी के मामलों में अनुभवी होने के कारण माता-पिता अपनी संतान की ही भलाई व सुखी भविष्य के बारे सोच रहे होते हैं।
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टिप्पणियाँ
पाण्डेय सरिता 2021/08/15 08:19 PM
कठोर यथार्थ
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मधु 2021/08/16 03:57 PM
आभार सरिता जी।