आज़ादी की धरोहर
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कहानी डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
(स्वतंत्रता दिवस पर एक कहानी-सुशील शर्मा)
शहर के शोर से बहुत दूर, गाँव के शांत आँगन में, बरगद की ठंडी छाँव के नीचे, नन्हे रोहन का मन बेचैन था। कल पंद्रह अगस्त था, और उसका स्कूल ‘आज़ादी का जश्न’ मनाने की तैयारी में जुटा था। रोहन के लिए यह सिर्फ़ एक छुट्टी का दिन था, जिसके बाद वह पतंग उड़ाता और दिनभर खेलता रहता। पर उसके दादाजी, जो अपनी बूढ़ी आँखों से भी देश के गौरव की एक-एक बूँद को जी रहे थे, उसके इस निश्चिंत भाव से संतुष्ट नहीं थे।
“क्या हुआ मेरे लाल? आज तुम इतने उदास क्यों हो?” दादाजी ने रोहन के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा। उनकी आवाज़ में गंगा की सी शीतलता थी।
रोहन ने बिना सोचे-समझे जवाब दिया, “दादाजी, कल फिर वही भाषण, वही तिरंगा फहराना . . . क्यों मनाते हैं हम यह दिन? क्या यह बस एक छुट्टी नहीं है?”
दादाजी ने एक गहरी साँस ली। उनकी झुर्रियों वाली आँखों में अतीत की तस्वीरें तैरने लगीं। वह मुस्कुराए और बोले, “बैठो मेरे पास, मैं तुम्हें बताता हूँ कि यह दिन केवल छुट्टी क्यों नहीं है। यह उन लाखों सपनों का दिन है, जो हमारी धरती की मिट्टी में मिले, उन वीर सपूतों के ख़ून का दिन है, जिन्होंने अपनी हथेली पर अपनी जान रखकर हमें यह आज़ादी दी।”
दादाजी की बात सुनकर रोहन चुप हो गया। उसने देखा कि दादाजी की आँखें नम थीं। उन्होंने अपनी कहानी शुरू की:
“यह उन दिनों की बात है, जब मैं तुम्हारी ही उम्र का था। हमारा देश अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में जकड़ा हुआ था। हमारे गाँव में अँग्रेज़ों के सिपाही जब आते, तो उनकी बूटों की आवाज़ से ही हमारी साँसें थम जाती थीं। हमारे खेतों की फ़सल, हमारे घर का अनाज, सब उनका होता था। हम सब सहते थे, क्योंकि हमें सिखाया गया था कि ‘हुक्म’ मानना ही हमारा धर्म है।
“लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्हें यह ग़ुलामी स्वीकार नहीं थी। वे हमारे गाँव के ही एक नौजवान थे, जिनका नाम था ‘किशन’। किशन भैया एक क्रांतिकारी थे। वे अक्सर रात के अँधेरे में हम बच्चों को इकट्ठा करते और हमें आज़ादी के सपने दिखाते। वे कहते थे कि हमारा अपना एक ध्वज होगा, जिसमें केसरिया, सफ़ेद और हरा रंग होगा। केसरिया रंग हमारे बलिदान का प्रतीक होगा, सफ़ेद रंग शान्ति का, और हरा रंग हमारे देश की हरी-भरी धरती का।”
रोहन की आँखों में उत्सुकता झलकने लगी। वह अब केवल एक बच्चा नहीं, बल्कि उस कहानी का एक हिस्सा बन चुका था।
“एक दिन गाँव में अँग्रेज़ों के विरुद्ध एक बड़ा जुलूस निकला। किशन भैया ने सबके सामने एक झंडा फहराया, जो आज़ाद भारत का पहला प्रतीक था। उसमें वही तीन रंग थे, जिनके बारे में उन्होंने हमें बताया था। वह झंडा लहरा रहा था, और हम सब ‘वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे थे। अचानक, अँग्रेज़ों के सिपाहियों ने हम पर लाठियाँ बरसाना शुरू कर दिया। चारों ओर अफ़रा-तफ़री मच गई।
“किशन भैया लोगों को बचाते हुए आगे बढ़ रहे थे। तभी एक सिपाही ने उन पर बंदूक चला दी। गोली उनके सीने में लगी। वे गिर पड़े, पर उनके हाथ में थमा हुआ झंडा अब भी हवा में फड़फड़ा रहा था। उनकी साँसें धीमी हो रही थीं, पर उनकी आँखें सिर्फ़ उस झंडे को देख रही थीं। उनका एक ही प्रयास था कि झंडा ज़मीन पर न गिरे।
“मैंने अपनी आँखों से देखा, कैसे उन्होंने अपनी आख़िरी साँस तक उस झंडे को गिरने नहीं दिया। उनके चेहरे पर दर्द नहीं, बल्कि एक अजीब सा सुकून था। उनकी आँखों में वही चमक थी, जो हमारे आज़ादी के सपने की थी। जब वे शहीद हुए, तो उनके एक साथी ने झंडा उनके हाथ से लिया और उसे सुरक्षित रखा।”
दादाजी चुप हो गए। उनकी आवाज़ में अब भी उस दिन का दर्द और गर्व गूँज रहा था। रोहन ने देखा कि दादाजी की आँखों में आँसू थे।
“क्या हुआ उसके बाद?” रोहन ने धीरे से पूछा।
“उसके बाद, वह संघर्ष और बढ़ गया। किशन भैया जैसे हज़ारों क्रांतिकारियों के ख़ून और बलिदान ने इस देश को जगा दिया। हर गाँव से, हर शहर से, लोग अपनी जान की परवाह किए बिना आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। और फिर वह दिन आया, जब 15 अगस्त 1947 को लाल क़िले पर हमारा अपना तिरंगा लहराया गया।
“वह दिन, रोहन, मैंने अपनी आँखों से देखा था। वह सिर्फ़ एक झंडा फहराना नहीं था, बल्कि वह उन सभी बलिदानियों का सम्मान था, जिन्होंने अपनी जान दी। वह हर उस माँ के आँसुओं का गौरव था, जिसने अपने बेटे को खोया। वह हर उस पिता की उम्मीदों का प्रतिफल था, जिसने अपनी बेटी को खोया। वह दिन यह साबित करता था कि इस तिरंगे के लिए, इस आज़ादी के लिए, हमने बहुत कुछ खोया है।
“यह तिरंगा केवल एक कपड़ा नहीं है, मेरे लाल। यह हमारे गौरव का प्रतीक है। इसके तीन रंग हमें याद दिलाते हैं कि हमारी आज़ादी का सफ़र बलिदान, शान्ति और समृद्धि से भरा है। जब यह लहराता है, तो हमें महसूस होता है कि हमारे पूर्वज हमारे साथ हैं।”
दादाजी की बातें रोहन के दिल को छू गईं। उसकी आँखों में अब तिरंगे का एक नया मतलब था। उसने देखा कि बरगद के पेड़ पर बैठे पक्षी अब उसे केवल पक्षी नहीं लग रहे थे, बल्कि वे भी उसी आज़ादी का हिस्सा थे, जिसका वह इतना बड़ा जश्न मना रहे थे।
अगले दिन, जब स्कूल में तिरंगा फहराया गया, तो रोहन सबसे आगे खड़ा था। उसने पूरे सम्मान के साथ झंडे को सलाम किया। उसकी आँखों में अब एक नई चमक थी, जिसमें आज़ादी का गौरव और शहीदों के प्रति सम्मान का भाव था।
वह अब जान चुका था कि यह सिर्फ़ एक छुट्टी नहीं है, बल्कि यह एक धरोहर है, जिसे उसे और उसके बाद की पीढ़ियों को हमेशा सँजोकर रखना है। उसने मन ही मन में दादाजी से वादा किया कि वह कभी भी इस तिरंगे का अपमान नहीं होने देगा। वह आज़ादी की अहमियत को समझेगा और एक ज़िम्मेदार नागरिक बनकर इस राष्ट्र के गौरव को बढ़ाएगा।
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- मैं दिनकर का वंशज हूँ – 002
- मौन गीत फागुन के
- मज़दूर दिवस पर गीत
- यूक्रेन युद्ध
- वयं राष्ट्र
- वसंत पर गीत
- वासंती दिन आए
- विधि क्यों तुम इतनी हो क्रूर
- शस्य श्यामला भारत भूमि
- शस्य श्यामली भारत माता
- शिव
- श्रावण
- सत्य का संदर्भ
- सुख-दुख सब आने जाने हैं
- सुख–दुख
- सूना पल
- सूरज की दुश्वारियाँ
- सूरज को आना होगा
- स्वागत है नववर्ष तुम्हारा
- हर हर गंगे
- हिल गया है मन
- ख़ुद से मुलाक़ात
- ख़ुशियों की दीवाली हो
कविता - क्षणिका
स्वास्थ्य
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बाल साहित्य कविता
- अरे गिलहरी
- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - ठंड
- गर्मी की छुट्टी
- चिड़िया का दुःख
- चिड़िया की हिम्मत
- पतंग
- पानी बचाओ
- बादल भैया
- बाल कविताएँ – 001 : डॉ. सुशील कुमार शर्मा
- बेचारा गोलू
- मुनमुन गिलहरी
- मैं कुछ ख़ास बनूँगा
- मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर
- लोरी
- लौकी और कद्दू की लड़ाई
- हम हैं छोटे बच्चे
- होली चलो मनायें
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