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अधूरी लिपि में लिखा प्रेम


(एक अतुकान्त गहन प्रेम कविता) 
 
मैंने तुम्हें चाहा—
जैसे कोई पर्वत अपनी छाया में
नदी को समेट लेना चाहता हो। 
तुम्हें ओढ़ लिया था
शब्दों की उन परतों में
जिन्हें कोई पढ़ नहीं पाया कभी, 
यहाँ तक कि मैं भी। 
 
तुम्हारा नाम, मेरी धड़कनों की लिपि में
अक्षरों की तरह नहीं, 
साँसों की लय में लिखा गया—
ताकि हर बार जब मैं चुप हो जाऊँ, 
तुम बोल उठो मेरे भीतर। 
 
प्रेम, वह भी अधिकार सहित, 
न झगड़ा था, न आग्रह—
बस एक मौन घोषणा कि
“तुम मेरी हो“
जैसे सूरज की किरणें
धरती के हर अणु पर
बिना कहे अधिकार कर लेती हैं। 
 
मुझे तुम्हें छूना नहीं था, 
मुझे तुम्हें होना था—
ताकि जब भी तुम अपने भीतर देखो, 
मैं वहाँ मिलूँ—
एक अनाम थकान की तरह
जो सुकून देती है। 
 
मिलन की तीव्र उत्कंठा
हर रात्रि की नींद छीन लेती रही, 
और मैं—
नींदों की राख में से
तुम्हारे स्पर्श की अग्नि ढूँढ़ता रहा। 
 
क्या तुम जानती हो
प्रेम में पिघलना और गलना
सिर्फ़ कविता नहीं, 
एक भूगोल होता है, 
जहाँ देह की सीमाएँ
मन की यात्राओं से बड़ी नहीं होतीं। 
 
मैं चाहता था—
तुम्हारे आँसुओं को भी अपना कह सकूँ, 
ताकि जब तुम रोओ, 
मैं भीग जाऊँ भीतर तक। 
यह अधिकार नहीं था, 
पर प्रेम जब पूर्ण होता है, 
तो वह हर भावना को
अपने अधीन कर लेता है। 
 
तुम मुझसे अलग नहीं थीं—
बस वही हिस्सा थीं
जिसे मैं अब तक
कविता कहता आया था। 
 
और आज, 
जब शब्द चुक गए हैं, 
मैं केवल मौन से तुम्हें पुकारता हूँ—
वही मौन, 
जिसमें प्रेम सबसे अधिक मुखर होता है। 

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