गोविन्द गीत— 002 द्वितीय अध्याय
काव्य साहित्य | दोहे डॉ. सुशील कुमार शर्मा15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
दोहमय गीता
काव्यानुवाद: डॉ. सुशील कुमार शर्मा
संजय उवाच
शोकमग्न अर्जुन हुए, करुणा झरते नैन।
व्याकुल मन सुनने लगा, फिर माधव के बैन।1
श्रीभगवानुवाच
असमय मोह न धारिये, श्रेष्ठ धनुर्धर वीर।
नहीं उचित न आचरित, हे अर्जुन रणधीर।2
क्यों बनता है नपुंसक, नहीं उचित अनुरीत।
दुर्बल मत कर हृदय को, छोड़ जगत से प्रीत।3
अर्जुन उवाच
हे माधव कैसे लड़ूँ, रण में छाती तान।
द्रोण भीष्म सम्पूज्य हैं, करता उनका मान।4
युद्ध न मैं इनसे करूँ, भिक्षा मुझे यथेष्ठ।
गुरु हन्ता कैसे बनूँ, बतलाओ हे श्रेष्ठ।5
भ्रमित हृदय अंतस शिथिल, मन है बहुत अशांत।
युद्ध करें या चुप रहें, शंकित तन मन क्लांत।
नहीं जानते हम सभी, होगी किसकी जीत।
कैसे कौरव सुत हनु, जो मेरे मनमीत।6
कायरता का दोष ले, धर्म विहित मन खिन्न
शरण आपकी शिष्य है, माधव ज्ञान अभिन्न।7
निष्कंटक साम्राज्य हो, देवतुल्य हो मान।
तो भी ये दुःख न मिटे, शोकमग्न सब ज्ञान।8
संजय उवाच
गुडाकेश अर्जुन भ्रमित, शोकमग्न हैं बैन।
युद्ध भला कैसे करूँ, भर आये हैं नैन।9
अंतर्यामी कृष्ण हैं, जानें मन की पीर।
विहँसि वचन कहने लगे, सुन अर्जुन रणधीर।10
श्री भगवानुवाच
क्यों पंडित तू बन रहा, लेकर झूठा ज्ञान।
नहीं शोक उनका करो, जो अवगुण की खान।
क्या जीवन क्या मृत्यु में, हरदम रहो अशोक।
पंडित ज्ञानी जन नहीं, करते इतना शोक।11
तुम भी थे हर काल में, मैं प्रस्तुत आकाश।
ये सब भी हर युग रहे, जीव सदा अविनाश।12
जन्म जवानी वृद्धपन, जरा मृत्यु निर्जीव।
हर युग में हर काल में, तन धारित है जीव।13
इन्द्रिय सुख दुख जीव में, नित्य अनित्य विनाश।
पृथापुत्र इनको सहो, मनमें रखो प्रकाश।14
वही पुरुष अति श्रेष्ठ है, सुख दुख सहे समान।
विषय वासना से परे, करे मोक्ष आधान।15
असत कभी सत्ता नहीं, सत्य सुलभ सब ओर।
हर क्षण हर पल ही रहे, सदा सत्य का ज़ोर। 16
जगत व्याप्त जिसमें दिखे, वह अविनाशी अंश।
नष्ट नहीं होता कभी, सुनो श्रेष्ठ कुरुवंश।17
नाश रहित अप्रमेय है, नित्यरूप ये जीव।
हे अर्जुन तू युद्ध कर, ये शरीर निर्जीव।18
आत्म कभी हन्ता नहीं, नहीं मृत्यु को प्राप्त।
न तिल भर घट बढ़ा रहे, होय न कभी समाप्त।19
जीव कभी जन्मे नहीं, मरे नहीं ये आत्म।
नित्य अजन्मा सनातन, जीव अंश परमात्म।20
पृथापुत्र अर्जुन सुनो, नित्य अजन्मा आत्म।
कोई पुरुष हन्ता नहीं, करता सब परमात्म।21
नए वस्त्र पहने मनुज, करे पुराना त्याग।
जीव तनों को तज सदा, नव तन का हो भाग।22
नहीं आग में ये जले, इसे न काटे तीर।
पवन चले सूखे नहीं, नम न कर सके नीर।23
नित्य सनातन आत्म है, सदा अदाह्य अक्लेद्य।
सर्वव्याप्त अशोष्य अचल, रहता सदा अच्छेद्य।24
हे अर्जुन यह जान कर, तू क्यों करता शोक।
आत्म सदा अचिन्त्य है, है अव्यक्त अशोक।25
अगर मानता तू इसे, जन्म मृत्यु का रूप।
महाबाहु अर्जुन नहीं, तब भी शोक स्वरूप।26
मृत्यु सुनिश्चित जन्म से, यथा विधि अनुसार।
जन्म सुनिश्चित भी यथा, मत कर शोक विचार।27
जन्म से पहले अप्रकट, मृत्यु बाद अदृश्य।
शोकमग्न तू क्यों हुआ, बीच जीव हो दृश्य।28
महापुरुष ही जानते, आत्म तत्व का सार।
ज्ञानी ही वर्णन करें, आत्म रहस्य अपार।29
आत्मा सदा अवध्य है, करता तन में वास।
अतः शोक सब व्यर्थ है, कर इसको आभास।30
धर्म की रक्षा के लिए, यदि जाते हैं प्राण।
गौरव क्षत्रिय के लिए, मिले आत्म कल्याण।31
क्षत्रिय सम्मानित रहे, रखे धर्म में आस।
धर्मयुद्ध लड़कर सदा, मिले स्वर्ग में वास। 32
धर्म युद्ध को भूलकर, करे समर का त्याग।
अपयश अपकीरत मिले, बने पाप का भाग।33
जीवन भर अपयश मिले, हर पल हो अपमान।
वीर पुरुष जीवित नहीं, जिनका जाता मान।34
हृदय व्यथित उनके रहें, जो देते सम्मान।
युद्ध भगोड़ा वे कहें, कर तेरा अपमान।35
शत्रु सदा तुझ पर हँसें, गा निंदा के गान।
शत्रु दृष्टि जो भी गिरा, जीवन मृत्यु समान।36
मृत्यु समर में यदि मिले, स्वर्ग मिले साम्राज्य।
विजय अगर रण में मिले, मिले धरा का राज्य।37
हानि लाभ जय हार अरु, सुख दुख समझ समान।
पृथा पुत्र तू युद्ध कर, तज कर सब अज्ञान।38
ज्ञानयोग से बाँध लो, मन है कटी पतंग।
कर्म बंध सब नष्ट हों, कर्म योग के संग।39
बीज नष्ट होता नहीं, फल का लगे न पाप।
जन्म मृत्यु भय मुक्त कर, कर्मयोग निष्पाप।40
निश्चय बुद्धि धारता, मनुज शील गुणधाम।
बुद्धि विविधता जो लहे, हीन विवेक सकाम।41
भोगों में तन्मय रहें, अर्थ काम अरु रीत।
फल की इच्छा मन रखें, वेद वाक्य से प्रीति।42
स्वर्ग सदा मन में बसे, भोग परम उद्देश्य।
बुद्धिहीन ज्ञानी बने, सुख ही परम विशेष्य।43
आसक्ति है भोग में, यश की मन में आस।
परमेश्वर से दूर वो, बुद्धिहीन विश्वास।44
प्रतिपादन करते सदा, तीन गुणों का वेद।
हर्ष शोक से मुक्त हो, द्वन्द्व रहित सम्वेद।45
क्षुद्र सरोवर वेद हैं, अतल जलाशय ब्रह्म।
तत्व ज्ञान से ही मिले, सास्वत श्री परब्रह्म।46
छोड़ मोह आसक्ति सब, कर्म करो साकार।
फल की इच्छा त्याग कर, कर्म तेरा अधिकार।47
रख समत्व का भाव तू, त्यागो सिद्धि असिद्धि।
कर्तव्यों को पूर्ण कर, धारित कर सदबुद्धि।48
दीन हीन वह मनुज है, करता कर्म सकाम।
हे अर्जुन फल त्याग दे, रख बुद्धि निष्काम।49
समबुद्धि वाला पुरुष, पुण्य पाप से मुक्त।
कर्मबंध से छूटता, समबुद्धि से युक्त।50
समबुद्धि से युक्त जन, त्यागे फल की आस।
निर्विकार पद प्राप्त हो, रहे ब्रह्म के पास।51
मोह रूप दलदल फँसा, अर्जुन तेरा भाग्य।
इस दलदल को पार कर, मिले योग वैराग्य।52
भाँति भाँति के वचन सुन, विचलित मति का योग।
थिर बुद्धि अर्जुन धरो, मिले ब्रह्म संयोग।53
अर्जुन उवाच
अचल बुद्धि वाला पुरुष, पाता ब्रह्म अशेष।
हे माधव मुझसे कहो, इसके गुण अवशेष।54
श्रीभगवानुवाच
जो मानव जिस काल में, करे कामना त्याग।
प्रज्ञा स्थिर वो ही बने, रखे आत्म अनुराग।55
अचल बुद्धि जो धारता, नष्ट राग भय क्रोध।
रहे सर्वथा एक सम, सुख दुःख का न बोध।56
घृणा मोह से रहित हो, शुभ न अशुभ का भान।
अचल बुद्धि उसकी सदा, सुख दुःख एक समान।57
विषय भोग से दूर हो, करे सदा सत्संग।
अचल बुद्धि का पुरुष जिमि, कूर्म समेटे अंग।58
इन्द्रिय निग्रह पुरुष भी, रहें विषय आवृत्त।
अचल बुद्धि है ब्रह्म सम, करे विषय निवृत्त।59
मनस यदि आसक्त रहे, विषयाभोग निमित्त।
प्रमथन इन्द्रिय यत्न से, हरें पुरुष का चित्त।60
इन्द्रिय सब बस में करे, ईश परायण काम।
जो मुझको भजता सदा, पुरुष बने निष्काम।61
विषयों का चिंतन करे, पुरुष बने आसक्त।
क्रोध काम जकड़े रहें, विषयों में अनुरक्त।62
क्रोध मूढ़ता दे सदा, मति का करे विनाश।
पुरुष सदा नीचे गिरे, करे बुद्धि का नाश।63
अन्तस को वश में रखे, राग द्वेष से दूर।
विषय भोग को भोग कर, हो प्रसन्न परिपूर।64
दुख सारे मिटने लगें, अंतस रहे प्रसन्न।
बुद्धि ब्रह्म एकात्म हो, कर्मयोग आसन्न।65
मनस नियंत्रण यदि नहीं, निश्चय बुद्धि विनाश।
भावहीन अंतस रहे, करे शान्ति का नाश।66
नाव चले उस दिश सदा, पवन चले जिस ओर।
इन्द्रिय जो मन में बसे, हरे बुद्धि सब छोर।67
इन्द्रिय सारी जीत कर, विषय भोग से दूर।
हे अर्जुन उसको कहें, अचल बुद्धि परिपूर।68
जिसको पाने के लिए, योगी जागें रात।
नाशवान संसार के, रहे न बस वो बात।
परम ब्रह्म है रात सम, जो न जाने योग।
काल निशा जैसे लगें, योगी को सब भोग।69
जलधि समाते जल सभी, अविचल रहे समुद्र।
अचल बुद्धि सब भोग को, करे समाहित भद्र।70
अहंकार का नाश कर, त्यागे सभी ममत्व।
स्पृहा रहित विचरे मनुज, जाने ब्रह्म का तत्व।71
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करे, योगी करे न मोह।
अंतकाल मुझ में मिले, सहे न कभी विछोह। 72
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥2॥
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