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सिस्टम का श्राद्ध


(झालावाड़ की घटना पर कविता) 
 
झालावाड़ की वो सुबह, 
प्रार्थना में डूबे मासूम, 
ज्ञान के मंदिर में, मौत का तांडव, 
और फिर, वही पुरानी धुन। 
छत गिरी, चीखें उठीं, 
सात नन्ही जानें, मलबे में दफ़न। 
अख़बारों में सुर्ख़ियाँ, 
टीवी पर चीखते एंकर, 
और नेताओं के घड़ियाली आँसू। 
जाँच के आदेश! “कड़ी कार्रवाई होगी!”
ये रटा-रटाया संवाद, 
कानों में गूँजता है, 
जैसे कोई फटा हुआ टेप रिकॉर्डर। 
पंद्रह मिनट में बन जाती है कमेटी, 
पाँच मिनट में रिपोर्ट तैयार। 
 
फिर शुरू होता है, 
बलि का बकरा ढूँढ़ने का खेल। 
अधिकारी मीटिंग में, 
चाय-पकौड़े खाते हुए, 
तय करते हैं, किसे लपेटना है। 
मास्टर जी ने ध्यान नहीं दिया! 
क्लर्क ने फ़ाइल आगे नहीं बढ़ाई! 
पंचायत सचिव को मरम्मत का पता नहीं था! 
और धड़ाम से गिरते हैं, 
कुछ छोटे-मोटे कर्मचारी। 
 
स्कूल का प्रिंसिपल, बेचारा चपरासी, 
शायद कोई वार्ड मेंबर भी। 
सस्पेंड हुए, ट्रांसफ़र हुए, 
किसी की नौकरी गई, किसी की इज़्ज़त। 
अरे भाई! वो तो बेचारे मोहरे थे, 
जिन्हें अपनी जेब से भी कई बार, 
स्कूल की टूटी खिड़की, 
या नल का लीकेज ठीक कराना पड़ा था। 
 
मगर वो बड़ी मछलियाँ कहाँ हैं? 
वो ठेकेदार, 
जिसने घटिया माल लगाया था? 
वो इंजीनियर, 
जिसने ओके की मुहर लगाई थी? 
वो माननीय जी, 
जिनके बँगले पर करोड़ों का बजट ख़र्च हुआ, 
पर स्कूलों की जर्जर हालत दिखी नहीं? 
वो आला अधिकारी, 
जिनकी मेज़ पर सालों से धूल फाँक रही थी, 
मरम्मत के नाम पर आई फ़ाइल? 
 
नहीं! उनका बाल भी बाँका नहीं होगा। 
उनके पास है सिस्टम का कवच, 
राजनीति की ढाल, 
और ऊपरी साँठगाँठ का ब्रह्मास्त्र। 
 
वे तो बस एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करेंगे, 
मुआवज़े का ऐलान करेंगे, 
और फिर अगली घटना का इंतज़ार करेंगे। 
बच्चे मरते रहेंगे, 
ज्ञान के मंदिर श्मशान बनते रहेंगे, 
और सिस्टम, 
अपनी लीपापोती से, 
श्राद्ध मनाता रहेगा, 
छोटी मछलियों का। 
क्योंकि बड़ी मछलियाँ, 
आज भी पानी में हैं, 
और कल भी रहेंगी, 
आज़ाद! 
सत्ता के तालाब में तैरती हुई। 

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