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एक कप चाय और सौ जज़्बात

 

(विश्व चाय दिवस पर एक व्यंग्य) 

 

आज विश्व चाय दिवस है। चाय, यानी वो द्रव्य जो भारतीय आत्मा में यूँ रच-बस गया है जैसे राजनीति में वादे, या फ़िल्मों में आइटम सॉन्ग। यह वह अमृत है जो हर दफ़्तर के झगड़े को कुछ मिनटों के लिए विराम देता है, हर बेरोज़गार को ‘फ़िलहाल व्यस्त’ बना देता है, और हर गॉसिप को एक जायज़ मंच देता है। 

सुबह की शुरूआत अगर चाय से न हो, तो लगता है सूरज भी किसी कॉर्पोरेट में काम करता है और देर से उठ रहा है। घर में बरतन भले चमकें न, गैस भले ख़त्म हो जाए लेकिन “कप भर चाय” का इंतज़ाम हर भारतीय रसोई में ब्रह्मांड के नियमों से भी ज़्यादा पक्का होता है। 

अब देखिए, चाय सिर्फ़ एक पेय नहीं, एक सामाजिक आन्दोलन है। महल्ले की चाय दुकान ही असली ‘लोकसभा’ है जहाँ देश के सारे मसलों का समाधान ढाई इंच के स्टील के गिलास में डूबा पड़ा होता है। वहाँ बैठा हर आदमी न केवल अर्थशास्त्री होता है बल्कि विदेश नीति का विशेषज्ञ और बॉलीवुड समीक्षक भी। 

“एक कट देना” बोलने वाला इंसान चाहे कितना भी टूटा हो, उसकी आत्मा में अभी थोड़ा कैफ़ीन बाक़ी होता है। 

और यह तो मानिए कि चाय, केवल पेय नहीं, रिश्तों की नींव है। कई प्रेम कहानियाँ कट चाय से शुरू होकर परिवार की कटिंग में बदल जाती हैं। 

दफ़्तरों में ‘चाय ब्रेक’ असल में काम से ब्रेक नहीं, साँस लेने का एक मौक़ा होता है, जहाँ बॉस भी ‘सर’ से ‘शर्माजी’ बन जाता है। और वो प्याली पकड़ते हुए जब बॉस कहे “आज बड़ी थकावट है”, तो समझ जाइए कंपनी में लोन एप्लाई करने का सबसे उपयुक्त समय आ गया है। 

अब सरकारें तो चाय पर चर्चाएँ करती हैं, और नेता गर्व से कहते हैं—“मैं तो चाय वाला हूँ।” पर सच बताऊँ ठेले पर दिनभर तपते सूरज में खौलती केतली को प्रेम से देखते हैं, जैसे केतली नहीं कोई संस्कार हो। और उसमें से प्रधानमंत्री बनने का रास्ता जाता हो। 

लेकिन अब चाय भी वर्ग में बँट गई है, ग्रीन टी, ब्लैक टी, हर्बल टी, और पता नहीं कौन-कौन सी ‘टी’ जो चाय कम, लैबोरेटेरी का प्रोजेक्ट ज़्यादा लगती है। अरे भई, चाय वो जो कुल्हड़ में खनके, जिसमें अदरक की झन्नाट हो, और जो गले से उतरते ही माँ की फटकार और दादी के हल्के थप्पड़ की याद दिलाए। 

तो आज इस विश्व चाय दिवस पर, मैं उन तमाम चाय वालों को सलाम करता हूँ जिन्होंने इस देश को नशे में नहीं, नशेड़ी बना रखा है वो भी सिर्फ़ चाय के। 

तो आइए एक कप चाय हो जाए? 

(शक्कर कम, व्यंग्य्य थोड़ा ज़्यादा) 

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