अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मानवीय संवेदनाएँ वर्तमान सन्दर्भ में

इंसान की संवेदनाएँ बदल जाती हैं लेकिन भयावह बात यह है कि इंसान भावहीन होने लगा है। संवेदनाएँ क्या हैं? यह प्रश्न आधुनिक समय में बहुत ही कम लोगों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है। कारण-संवेदना की कमी या संवेदना को महसूस न करना। संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो भावनाशील है उसमें से यदि संवेदनाएँ निकाल दी जाए तो फिर जो शेष बचेगा वह भले ही मनुष्य जैसा लगे पर स्तर मानवीय नहीं कहा जा सकेगा, भाव संवेदनाएँ ही जीवन को मनुष्य से जोड़तीं हैं मनुष्य प्रकृति के बीच मैत्री स्थापित करती हैं व्यवस्थाएँ बनाए रहती हैं।

यह मनुष्य के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उस जैसा विचारशील प्राणी मानवीय गुणों से युक्त होकर भी सृष्टि के दूसरे प्राणियों के भाव संवेदनाएँ को समझने में अक्षम होता जा रहा है मनुष्य मर्यादा शील विचारशील प्राणी होने का गर्व करता है पर टूटते हुए सम्बन्धों, नष्ट होती पारिवारिक शान्ति, उत्पन्न होती जा रही दिशा विहीन पीढ़ियाँ और अराजकता पूर्ण सामाजिक सम्बन्ध यह बताते हैं कि हमारी संवेदनाओं को महसूस करने की शक्ति नष्ट होती जा रही है। 

हमारे मन में सभी प्रकार के भाव संचित होते हैं, समय समय पर हम जैसी परिस्थितियों से गुज़रते हैं वैसे ही भाव हमारे मन में उत्तेजित होते हैं। मानवीय संवेदनाएँ मनोवैज्ञानिक रूप से हमें प्रभावित करती हैं। ये मानवीय संवेदनाएँ मनोवैज्ञानिक रूप से एक मनुष्य के मन को दूसरे मनुष्य के मन से जोड़ती हैं यही कारण है कि कभी किसी व्यक्ति के दुख को देख कर हम अकस्मात्‌ ही दुख का अनुभव करते हैं यह हमारी ज्ञानेन्द्रियों के स्पंदन के कारण होता है। उस क्षण उसके लिए हमारे मन में संचित करुणा व दया के भाव उत्तेजित होते हैं। सरल शब्दों में इन्हीं भावों की उत्तेजना को मानवीय संवेदना कहते हैं। 

संवेदना शब्द किसी एक विशेष अर्थ को व्यंजित नहीं करता। यह विविध अर्थों का बोधक है। संवेदना को हम व्याकरणिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही रूपों से समझ सकते हैं। संवेदना शब्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘विद’ (वेदना) धातु में ल्युट प्रत्यय लगाने से होती है अर्थात्‌ सम + वेदना=संवेदना। यह संवेदना का व्याकरणिक अर्थ है। इसका शाब्दिक अर्थ है—प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुभूति, भावना जागृति, उत्तेजना आदि। 

अत: समवेदनाओं का सीधा सम्बन्ध हमारी भावनाओं और बोध से होता है। संवेदना का भाव केवल मानव को मानव से नहीं जोड़ता बल्कि पशु-पक्षियों के लिए भी हमारे मन में ये भाव उत्तेजित होते हैं। संवेदना की कोई सीमा नहीं, ये असीम भाव हैं। जिनसे हमारा कोई रिश्ता नहीं होता उनके प्रति भी हमारे मन में संवेदना उत्पन्न हो जाती है। मानवीय संवेदनाओं और अन्य जीवों की संवेदनाओं में मूलभूत अंतर स्वार्थ एवं बुद्धि का है। अगर हम अन्य जीवों की संवेदनाओं की बात करें तो धनेश पक्षी को अधिक कष्ट पूर्ण साधना करनी पड़ती है वह अपने अंडे सेने के लिए आवश्यक ताप तथा मादा की सुरक्षा के लिए जिस कोटर में रहता है उसका मुख बंद कर देता है वह उतना ही खुला रहता है जिससे चोंच भर बाहर निकल सके बस इसी से नर अपनी मादा को खिलाता-पिलाता रहता है मातृत्व भावना यदि देखनी हो तो सारस पक्षी को देखना चाहिए वह अपने अंडे इतने सुरक्षित पानी से भरे स्थानों में देती है कि उन्हें किसी प्रकार की कोई क्षति न पहुँचे, कौवे और सर्प जैसे जीव ही अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक भावना शील होते हैं। हिंद महासागर की कुछ मछलियाँ तो अंडों के समुच्चय को अपने साथ-साथ लिए घूमतीं हैं एरियर्स और तिलपिया मछलियाँ तो अंडों को अपने मुख में सेती हैं और बंदर तथा चिंपांजी पेट और पीठ पर लादे बच्चों को बड़े होने तक घुमाते हैं। 

मानव जीवन में संवेदना का विशेष महत्त्व है। मनोवैज्ञानिक आधार पर मानव के मन व मस्तिष्क दोनों से संवेदना का चिर सम्बन्ध है। हम सभी कभी न कभी संवेदना के भावों से सराबोर अवश्य होते हैं आवश्यकता है महसूस करने की। जब मानव मन स्वार्थ के भावों से भर जाता है तब उसे किसी के प्रति संवेदना का एहसास नहीं होता। स्वार्थ मानव मन को क्लेश, स्पर्धा व अहं भावों से परिपूर्ण कर देता है तब करुणा, दया व प्रेम के भावों के लिए स्थान ही नहीं रहता। जहाँ सद्भावना होगी वहाँ तालमेल स्वस्थ बनता और निभता चला जाता है। अन्य प्राणी इस कारण मज़े में रहते और दिन गुज़ारते हैं क्योंकि उनमें परस्पर प्रेम अपने आप रहता है। सद्भाव के अभाव से पनपते स्वार्थ और दो प्रतिद्वंद्वी स्वार्थों के टकराव से वैमनस्य बनते हैं। जहाँ कटुता होगी वहाँ विग्रह होगा वहाँ प्रगति भी ठप हो जाएगी और सद्‌गति का मार्ग अपना लेने मानवीय संवेदनाओं को बल मिलता है। जब मानव मन दूसरे के दुख में दुख का अनुभव करता है तब मन करुणा, दया और प्रेम के भावों से सराबोर हो जाता है। उस समय मानव हृदय पवित्र और निर्मल हो जाता है। न किसी के लिए बैर रहता है और न ही ईर्षा की भावना। तब स्वार्थ भाव त्याग कर किसी के लिए कुछ अच्छा करने की भावना जाग्रत होती है, यही सच्चे अर्थों में मानवीय संवेदना कही जाती है। यही मानवीय संवेदना मानव को एक आदर्श और संवेदनशील बनती है। 

वर्तमान समाज में मानव धन अर्जन के लोभ में अपनों को ही दुख पहुचाते रहते हैं। अनुदान कितना ही क़ीमती क्यों ना हो उनका महत्त्व समझना और उनके उपयोग में सतर्कता बरतना ही हमारी संवेदना को सुरक्षित बनाता है। अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों के ही अपने-अपने लाभ हैं। अनुकूलता सुविधा एवं सफलता प्राप्त होने से मनुष्य को आत्म गौरव की अनुभूति कराती है; सफलता पर गर्व करने के साथ-साथ वह अपने व्यक्तित्व के वर्चस्व की अनुभूति भी कराती है। मनुष्य में आत्म बल सर्वोपरि बल है उससे बड़ा और कोई बल नहीं है। किसी भी राष्ट्र के श्रवण सर्वांगीण विकास में संवेदना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समसामयिक परिदृश्य में वैज्ञानिक साधनों एवं तकनीकों के माध्यम से शिक्षा एवं संवेदनाओं का स्वरूप अधिक  रचनात्मक एवम रोज़गारोन्मुखी होता जा रहा है। आज अधिक उदारीकरण के कारण शिक्षा एवं संवेदना के परिदृश्य तेज़ी से बदल रहे हैं। आज की पीढ़ी को ना सिर्फ़ विविध क्षेत्रों में ज्ञान की ज़रूरत है बल्कि व्यक्तित्व एवं आचरण को उन्नत करने हेतु मूल्यों की भी आवश्यकता महसूस की जा रही है इसलिए वर्तमान संदर्भ में हमारी संवेदनाएँ वैश्विक होनी चाहिएँ ना कि स्वार्थ से परिपूर्ण। समसामयिक परिदृश्य में पश्चिमी संस्कृति ने मानवीय एवं नैतिक मूल्यों का पतन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। संयुक्त परिवारों की परम्पराएँ टूटती जा रही हैं। इंसान ही इंसान के ख़ून का प्यासा बन बैठा है। नैतिक मूल्यों में लगातार गिरावट आती जा रही है। हर तरफ़ भ्रष्टाचार अपराध अनुशासनहीनता और अंतर्विरोध दृष्टिगोचर हैं। जो नैतिक एवं मानवीय मूल्य मनुष्य के हृदय में विराजित होते थे वह आज अदृश्य हैं।

समाज टूट रहे हैं राष्ट्र खंड खंड हो रहे हैं इसके पीछे संवेदना और मानवता की कमी के कारण भूत है। लोग कितना भी धन सम्पत्ति अर्जित कर ले किन्तु शान्ति और सुख कभी भी नहीं प्राप्त कर पाते। लोगों को समझना होगा की जीवन मात्र धन संपाती कमाने के लिए नहीं है। बल्कि सभी के साथ रह कर सुख और आनंद का अनुभव काटने के लिए हैं। ज़रूरतमंदों की सहायता कर के देखिये कितनी संतुष्टि मिलती है। उस आत्मा संतुष्टि का सुख लाख रूपिया कमाने से बड़ा और सुखकर है। 

 परमात्मा की इस सृष्टि में जहाँ एक और प्रगति के प्रचुर आधार हैं और सुख संसाधनों की भरमार है वहाँ विकृतियों और अवांछित भावनाओं की भी कमी नहीं है। उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एवं वर्तमान परिवेश में विदेशी संस्कृति का प्रचलन द्रुतगति से बढ़ता जा रहा है जिससे युवा अपनी क्षमताओं का उपयोग आत्महित और राष्ट्रहित में नहीं कर पा रहा है अर्थात्‌्‌ युवा वर्ग दिशा विहीन होता जा रहा है। संपूर्ण विश्व में आतंक मद्यपान मांसाहार एवं सांस्कृतिक ह्रास आदि से ग्रसित युवा रुग्ण मानसिकता एवं संवेदनाओं की कमीं से ग्रसित है। ऐसी विकट एवं विषम समसामयिक परिदृश्य में जीवन मूल्यों का पदार्पण होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। आज संपूर्ण विश्व कठिन परिस्थितियों एवं संवेदनाओं की कमी से झूझ रहा है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकृतियों का बाहुल्य है स्थितियाँ बहुत ही प्रतिकूल हैं धन और पद की लिप्सा ने मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना दिया है व्यक्तिवाद एवं स्वार्थपरता के दबाव में मानवीय संवेदनाएँ और जीवन मूल्य चूर चूर होते जा रहे हैं। अतःहम सभी अपने मन को संतुष्ट रखें, संवेदना जाग्रत करें, आपसी सम्बन्धों की क़द्र करें, धन की बजाय जीवन में शान्ति की चाहत रखें। आप स्वयं अनुभव करेंगे की धन सम्पत्ति से आराम ख़रीदा जा सकता है लेकिन शान्ति और जीवन का सच्चा आनंद नहीं। हम सद्भाव और सहनशक्ति पैदा करें यही वर्तमान बिखराव का एकमात्र समाधान है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!! 
|

(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…

अणु
|

मेरे भीतर का अणु अब मुझे मिला है। भीतर…

अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
|

वैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…

अपराजेय
|

  समाज सदियों से चली आती परंपरा के…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

गीत-नवगीत

कविता

काव्य नाटक

सामाजिक आलेख

दोहे

लघुकथा

कविता - हाइकु

नाटक

कविता-मुक्तक

यात्रा वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

चिन्तन

कविता - क्षणिका

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

बाल साहित्य कविता

अनूदित कविता

साहित्यिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं