अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कोई हमारी भी सुनेगा

"आप सभी बड़े लोग क्या हम बच्चों की कभी सुनेगें?" दिनेश जो कि बाल दिवस के अवसर पर भाषण देने खड़ा हुआ था अचानक मंच की और मुड़ कर बोला।

मुख्य अतिथि कलेक्टर महोदय मुस्कुराये बोले, "हाँ बेटा बोलो।"

"आप लोगों ने हमारे सभी अधिकार छीन लिए हैं," दिनेश की आँखों में आक्रोश था।

"दिनेश क्या बोल रहे हो तुम बेटा, तुम्हारे कौन से अधिकार हम लोगों ने छीने हैं," प्रधानपाठक महोदय हतप्रभ थे।

"हम कितने बजे उठें?

"हम क्या खाएँ?

"हम क्या पहनें?

"हम कैसे दिखें?

"हम कैसे उठें, कैसे बैठें?

"हम क्या पढ़ें क्या लिखें?

"कब खेलें?

"कब सोएँ?

"यहाँ तक की हम कब साँसें लें आख़िर क्यों?

"ये भी आप सभी बड़े तय करते हैं

"घर में बाहर, स्कूल में हर जगह सिर्फ डाँटें, सीखें और अनुशासन के ताले।

"हम लोगों के भी मन हैं, इच्छाएँ हैं, कल्पनाएँ हैं, योजनाएँ हैं।

"क्या कभी उनको साकार करने का हमें मौक़ा मिलेगा?

"या हम भी यूँ ही बड़े होकर आप जैसे हो जाएँगे।

"हमारा बचपन कब तक आपकी अपेक्षाओं को ढोता रहेगा?

"प्लीज़ हमको इस क़ैद से मुक्त कर दो।"

पूरे हाल में सन्नाटा था सभी बड़ों के चेहरे झुके हुए थे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

काव्य नाटक

कविता

गीत-नवगीत

दोहे

लघुकथा

कविता - हाइकु

नाटक

कविता-मुक्तक

वृत्तांत

हाइबुन

पुस्तक समीक्षा

चिन्तन

कविता - क्षणिका

हास्य-व्यंग्य कविता

गीतिका

सामाजिक आलेख

बाल साहित्य कविता

अनूदित कविता

साहित्यिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

ग़ज़ल

बाल साहित्य लघुकथा

व्यक्ति चित्र

सिनेमा और साहित्य

किशोर साहित्य नाटक

ललित निबन्ध

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं