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कविता बेचो, कविता सीखो! 

 

अब कविता भी बिकती है, और हाँ, सीखी भी जाती है—वो भी फ़ीस देकर। क्या आपने कभी किसी को प्रेम सीखते देखा है? या कोई जंगल जाकर चिड़ियों से गाना सीखता है? नहीं ना? पर आजकल ‘कविता लेखन कार्यशालाएँ’ चल रही हैं—मात्र दो सौ, तीन सौ रुपए में आपको “कवि” बना देने का वादा करती हैं। 

“पंक्तियाँ गढ़ना सीखिए!”

“बिम्बों में गहराई लाइए!”

“रूपक और अनुप्रास को समझिए!”

और हाँ, एक प्रमाणपत्र भी मिलेगा—“सरकारी नहीं, साहित्यिक!”

कवि बनना अब साधना नहीं, “पेड कोर्स” हो गया है। कभी कल्पना कीजिए, तुलसीदास को ‘रामचरितमानस लेखन कार्यशाला’ में बैठे हुए, या मीरा को ‘भाव प्रकट करने की ट्रेनिंग’ लेते हुए! 

कविता तो आत्मा की तड़प है, और आत्मा की भाषा सिखाई नहीं जाती। पर इन आधुनिक गुरुओं ने काव्य को भी “कोचिंग क्लास” बना डाला है। 

“कल पहली बार छंद लिखा!”

“तीसरे दिन मुक्तछंद!”

“पाँचवे दिन सोशल मीडिया पर पोस्ट!”

वाह! कविता भी अब इंस्टैंट नूडल्स हो गई है—दो मिनट में पकती है और लाइक्स के तड़के में छपती है। 

असल में ये कार्यशालाएँ नहीं, “शब्दों की दुकानें” हैं, जहाँ बेचने वाले गंभीरता की टोपी पहनकर तुकों का सौदा कर रहे हैं, और ख़रीदने वाले भ्रम में डूबे हुए हैं कि ‘साहित्य’ कोई सर्टिफ़िकेट से मिलने वाला तमगा है। 

साहित्य पैदा होता है—दर्द से, संघर्ष से, प्रेम से, विद्रोह से। यह सिखाने की चीज़ नहीं, समझने की बात है। 
पर जब तक कविता “सीखने” के नाम पर बिकती रहेगी, तब तक कवि नहीं, ग्राहक पैदा होते रहेंगे। 

कवि नहीं बनो, सजग पाठक बनो—कविता ख़ुद जन्म लेगी। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2025/05/08 12:29 AM

जब परीक्षाओं के पर्चे बेचे व खरीदे जा रहे हैं, थीसिस स्वयं लिखने की बजाय किसी को पैसे देकर लिखवा ली जाती है तो अचम्भे की बात नहीं कि 'कविता कैसे लिखी जाए' की भी 'बेकारशालाएँ' खुलने लगी हैं। परन्तु वह नली मिलेगी कहाँ से जिसके द्वारा संवेदना, दर्द, वीऱ, व्यंग्यात्मक, इत्यादि इत्यादि ग्यारह रसों से सुसज्जित उनकी लेखनी के बहाव को हृदय से ले जाते हुए मस्तिष्क तक पहुँचाया जाये? कहीं नहीं मिल पायेगी न!! इसलिए महोदय जी, मेरी भाँति आप भी चिंता मत कीजिए। साधुवाद।

डॉ. शबनम आलम 2025/04/18 04:30 PM

बहुत बढ़िया व्यंग्य... कविता तो भाव और संवेदना के तारतम्य से स्वयं उपजती है।

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