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न्याय की गली में कुत्तों का दरबार


(एक सामयिक व्यंग्य-सुशील शर्मा) 

 

अदालत का फ़ैसला आया, तो जैसे गली-मोहल्लों में ‘डॉग शो’ शुरू हो गया। लोग कहते थे कि न्यायपालिका की आँखें बहुत तेज़ होती हैं, अब समझ में आया कि वे दूरबीन लगा कर देखती हैं। पहले तो आवारा कुत्तों को पकड़कर शेल्टर में रखने का हुक्म आया। कुत्ता-प्रेमियों ने कहा, “यह तो सीधे-सीधे मानवाधिकारों का हनन है!” और फिर आ गया संशोधन। अब हुक्म हुआ कि पकड़ो, नहलाओ-धुलाओ, टीका लगाओ, बधियाकरण कराओ, और फिर उसी गली में सम्मानपूर्वक छोड़ दो, जहाँ से पकड़े थे। बस इतना ध्यान रहे कि कुत्ता रैबीज वाला न हो। 

शहर के हर वार्ड में एक ‘फ़ीडिंग प्वाइंट’ बनाने का आदेश आया, जैसे कोई पंचवर्षीय योजना हो। हमारे महल्ले में, ‘नगर निगम’ के बाबू आए, नाक पर रुमाल रखे। उन्होंने कहा, “यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय का है, इसके पालन में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।”

बाबूजी की बात सुनकर सबने अपनी-अपनी दलीलों का पिटारा खोल दिया। रामू हलवाई ने कहा, “बाबूजी, मेरे पास तो बस एक छोटा सा ढाबा है। मैं तो यहीं रोटी देता था।” 

बाबूजी ने आँखें तरेरीं, “सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, ‘सड़क पर नहीं!” अब तुम्हारी गली के हर कुत्ते को तुम खिलाओगे, तो वो तुम्हारे घर का पता पूछेंगे। और फिर अगर किसी ने शिकायत की, तो क़ानूनी कार्रवाई होगी।”

हमारे महल्ले के कर्ताधर्ता, श्रीमान चतुर्वेदी जी ने प्रस्ताव रखा कि ‘फीडिंग प्वाइंट’ श्मशान घाट के पास बनाया जाए। “वहाँ शान्ति भी रहती है, और कुत्तों को भी अपने भविष्य का पता चलता रहेगा।” लेकिन महल्ले की ‘पशु अधिकार समिति’ की अध्यक्ष, श्रीमती शर्मा जी, ने इसे ‘अमानवीय और मानसिक क्रूरता’ कहकर ख़ारिज कर दिया। उनके मुताबिक़, कुत्तों को शान्तिपूर्ण और ‘सुंदर’ जगह पर खाना मिलना चाहिए, ताकि वे सकारात्मक ऊर्जा से भर सकें। 

आख़िरकार, एक टूटी हुई सरकारी इमारत की जगह को ‘फीडिंग प्वाइंट’ घोषित किया गया। वहाँ एक बोर्ड लगा, जिस पर लिखा था, “यह क्षेत्र कुत्तों के भोजन के लिए आरक्षित है। सड़क पर खाना खिलाना दंडनीय अपराध है।” बोर्ड के नीचे ही एक कुत्ता आराम से सो रहा था, शायद वो भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पढ़ रहा था। 

अगले दिन, सुबह-सुबह एक दिलचस्प दृश्य देखने को मिला। गली में एक बूढ़ी महिला, जिसे ‘चाची’ कहकर पुकारते थे, अपने हाथ में रोटी लेकर जा रही थीं। हमेशा की तरह, एक कुत्ता उनका पीछा कर रहा था। अचानक, पुलिस की गाड़ी आई। पुलिस वाले ने चाची को रोका और पूछा, “माँजी, कहाँ जा रही हो?” चाची ने भोलेपन से कहा, “बेटे, इस बेचारे को रोटी देने जा रही हूँ।”

पुलिस वाले ने बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहा, “माँजी, आपके प्यार को सलाम, लेकिन आपकी मोहब्बत ने देश के क़ानून को ख़तरे में डाल दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सड़क पर खाना नहीं खिलाना।” 

चाची ने रोटी फेंकते हुए कहा, “तो क्या इसे भूख से मर जाने दूँ?” 

पुलिस वाला बोला, “नहीं माँजी, इसे ‘फ़ीडिंग प्वाइंट’ ले जाओ। वो भी आपकी रोटी का इंतज़ार कर रहा है, और आपका इंतज़ार भी।”

भक्त और विरोधी: कुत्तों का राजनैतिकरण

सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने कुत्तों को भी राजनीतिक बना दिया। एक पक्ष ‘डॉग-भक्त’ बन गया और दूसरा पक्ष ‘डॉग-विरोधी’। 

डॉग-भक्त कहते थे, “देखो, कोर्ट ने हमारी बात मानी। ये बेचारे जानवर हैं, इन्हें जीने का हक़ है।” दूसरी ओर डॉग-विरोधियों का तर्क था, “सुप्रीम कोर्ट ने हमारी जान ख़तरे में डाल दी। 2024 में 37 लाख से ज़्यादा लोगों को कुत्तों ने काटा है, क्या ये आँकड़े झूठ बोलते हैं?” 

एक टीवी डिबेट शो में, दोनों पक्ष भिड़ गए। एक पशु-अधिकार कार्यकर्ता ने कहा, “इंसान ख़ुद आक्रामक हैं, कुत्ते तो सिर्फ़ अपनी सुरक्षा में काटते हैं।” जवाब में एक वकील ने कहा, “तो क्या हम अपने बच्चों को स्कूल भेजने से पहले उन्हें तलवार चलाना सिखाएँ, ताकि वे गली के कुत्ते से बच सकें?” 

डिबेट का नतीजा कुछ नहीं निकला, बस टीवी एंकर की आवाज़ बैठ गई। 

सरकार ने भी अपना तर्क दिया, “अगर इन कुत्तों को सड़क से हटा दिया गया, तो इनकी आबादी को नियंत्रित कौन करेगा? हम तो बस कोर्ट के आदेश का पालन कर रहे हैं।” लेकिन सच्चाई ये थी कि आदेश के बाद गली के कुत्ते और भी शक्तिशाली हो गए थे। अब वे जानते थे कि उन्हें ‘क़ानूनी सुरक्षा’ मिली है। वे सड़क पर चलते हुए लोगों को ऐसे देखते थे, जैसे कह रहे हों, “अब मारो लाठी, देखते हैं तुम्हारी हिम्मत।”

बधियाकरण और टीकाकरण: कुत्तों की नई पहचान

नगर निगम के बाबू अपनी टीम के साथ आए। उनके पास जाल, पिंजरे और कुत्ते पकड़ने वाली विशेष गाड़ी थी। उनके हाथ में एक लिस्ट थी, जिसमें लिखा था, “पकड़ो, बधियाकरण करो, और छोड़ दो।” एक कुत्ता जो अपनी आक्रामकता के लिए पूरे महल्ले में मशहूर था, उसे पकड़ते ही बाबू ने कहा, “इसे मत छोड़ना! यह रैबीज से संक्रमित है। इसका ‘जीवन भर का कारावास’ तय है।”

लेकिन उसी कुत्ते का एक छोटा पिल्ला था, जो अक्सर महल्ले में घूमता रहता था। लोगों ने देखा कि उसे पकड़ने के बाद उसे टीका लगाया गया, फिर एक छोटे से बैग में बंद कर दिया गया और वापस उसी जगह पर लाकर छोड़ दिया गया। एक बुज़ुर्ग ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट का हुक्म है, ये अब ‘क़ानूनी कुत्ते’ हैं। इन्हें छेड़ना मत, वरना तुम्हें जेल जाना पड़ सकता है।”

सबसे दिलचस्प आदेश था ‘हेल्पलाइन नंबर’। नगर निगम ने एक नंबर जारी किया, जिस पर लोग कुत्तों के हमलों या ‘फीडिंग प्वाइंट’ के नियमों के उल्लंघन की शिकायत कर सकते थे। एक दिन हमारे पड़ोस के एक साहब ने फोन किया। उन्होंने शिकायत की, “मेरे घर के सामने एक कुत्ता सो रहा है। वह मुझे बाहर निकलने नहीं दे रहा है।” हेल्पलाइन से जवाब आया, “साहब, अगर वह आक्रामक नहीं है, तो हमें कोई दिक़्क़त नहीं। और अगर है, तो उसे छेड़िए मत, वरना आप पर ही ‘उत्पीड़न’ का आरोप लग सकता है।”

दंडात्मक कार्रवाई और ‘डोनेशन’

न्यायपालिका ने कुत्ता प्रेमियों और एनजीओ के लिए भी एक शर्त रखी। अगर किसी को अदालत में अर्ज़ी दाख़िल करनी है, तो उसे पहले सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में एक भारी भरकम राशि जमा करनी होगी। व्यक्ति के लिए 25,000 और एनजीओ के लिए 2 लाख रुपये। इस पैसे का उपयोग कुत्तों के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करने में होगा। 

एक कुत्ता-प्रेमी ने कहा, “यह तो हमारे अधिकारों पर हमला है।” दूसरे ने कहा, “यह हमला नहीं, बल्कि ‘डोनेशन’ है। न्याय के लिए भी अब डोनेशन देना पड़ रहा है।”

इस आदेश के बाद कई एनजीओ ने अपने नाम बदलकर ‘फ़ंड रेज़िंग’ संस्थाएँ रख लिया। उन्होंने लोगों से अपील की, “अगर आप कुत्तों से प्यार करते हैं, तो हमारे संगठन को पैसे दान करें, ताकि हम कोर्ट में जाकर उनकी लड़ाई लड़ सकें।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई व्यक्ति या संस्था इस आदेश के पालन में बाधा डालती है तो उस पर ‘लोकसेवक के काम में बाधा’ डालने का आरोप लगेगा। इससे तो गलियों में और भी मज़ेदार स्थिति बन गई। एक दिन एक महल्ले वाला कुत्ते से झगड़ रहा था। अचानक पुलिस आ गई। पुलिस ने उससे कहा, “भाई, तुम क़ानून के ख़िलाफ़ जा रहे हो। यह कुत्ता अपना काम कर रहा है। वह यहीं रहता है, और उसका यही ‘फ़ीडिंग प्वाइंट’ है।”

शहरों में अब एक नया पेशा शुरू हो गया है—‘डॉग काउंसलर’। ये लोग कुत्तों को समझाते हैं कि वे कहाँ रहें, कहाँ खाएँ और किसे काटें। एक काउंसलर ने तो अपनी फ़ीस ही कुत्तों के काटने की संख्या के हिसाब से तय कर रखी थी। 

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश कोई सामान्य निर्णय नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्रांति थी। इस आदेश ने साबित कर दिया कि भारत में अब हर समस्या का हल ‘कोर्ट’ और ‘कानून’ ही है। चाहे वह इंसान की हो या जानवर की। 

आज, हमारे महल्ले में सब कुछ बदल गया है। कुत्तों के लिए ‘फीडिंग प्वाइंट’ बन गए हैं, और हम इंसान अब सड़कों पर चलते हुए अपने क़दमों को सँभाल कर रखते हैं। कभी-कभी हमें लगता है कि हम अब ‘आज़ाद’ नहीं रहे, बल्कि एक ऐसे ‘क़ानूनी’ समाज में रहते हैं, जहाँ जानवरों को भी अपने अधिकार पता हैं। 

शायद सुप्रीम कोर्ट का असली मक़सद यही था कि जब देश में इतनी महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार हो, तो लोगों का ध्यान किसी और चीज़ पर केंद्रित हो। और इस बार यह ध्यान ‘कुत्तों पर’ केंद्रित हो गया। 

अब तो बस एक ही सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को अपने अगले आदेश में, कुत्तों के लिए एक ‘आधार कार्ड’ और ‘वोटर आईडी’ भी जारी करना चाहिए? ताकि उन्हें भी पता चले कि वे इस देश के ‘क़ानूनी’ नागरिक हैं, और उनके भी कुछ अधिकार हैं। 

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